साहित्य की नागरिकता ऐसी विशाल नागरिकता से घिरी है, जिसे उसके होने का पता ही नहीं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हम जिस हिंदी समाज में लिखते हैं, जिसके बारे में लिखते हैं और जिससे समझ और संवेदना की अपेक्षा करते हैं वह ज़्यादातर पुस्तकों-लेखकों से मुंहफेरे समाज है. उसके लिए साहित्य कोई दर्पण नहीं है जिसमें वह जब-तब अपना चेहरा देखने की ज़हमत उठाए.

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(इलस्ट्रेशन साभार: पिक्साबे)

साहित्य में दशकों से सक्रिय रहते हुए मैं अक्सर साहित्य के माहात्म्य, समाज के लिए उसकी ज़रूरत, उसकी निर्णायक भूमिका आदि का बखान करता रहा हूं. इस हद तक कि मुझे साहित्यवादी, कलावादी आदि कहा जाने लगा. देखा जाए तो मेरे दो काम थे, लेखन और प्रशासन. मैं हमेशा साहित्य के पक्ष में बोलता रहा, लिखता रहा लेकिन प्रशासन के बारे में अधिकतर चुप ही रहा और जब बोला तो मैंने उसकी कमियां, विफलता आदि का ज़िक्र कर उसका अवमूल्यन ही किया.

आप इसे एक तरह की फांक कह सकते हैं. यह हुआ, इसके बावजूद कि प्रशासन में होने के कारण ही मुझे साहित्य और कलाओं के क्षेत्र में सार्वजनिक रूप से कुछ कर पाने, अनेक संस्थाएं स्थापित करने और चलाने, कई बड़े-छोटे आयोजन करने के अवसर साधन मिलते रहे. यह और बात है कि प्रशासन ने ये सब अपने से नहीं दिए, मैंने, कई बार हठात्-बलात्, उन्हें छीना. प्रशासन में संस्कृति, हर तरह के राजनीतिक निज़ाम में, हाशिये का मामला रही है.

हम जिस हिंदी समाज में लिखते हैं, जिसके बारे में लिखते हैं और जिससे समझ और संवेदना की अपेक्षा करते हैं वह समाज ज़्यादातर पुस्तकों-लेखकों से मुंहफेरे समाज है. उसके लिए साहित्य कोई दर्पण नहीं है जिसमें वह जब-तब अपना चेहरा देखने की ज़हमत उठाए. लगभग पचास करोड़ लोगों का समाज अब अधिक साक्षर और शिक्षित है. पर इसने उसकी साहित्य और कलाओं में दिलचस्पी बढ़ाने का काम नहीं किया है. हिंदी समाज जितना बड़ा है उतने बड़े समाज का शायद एक प्रतिशत भी साहित्य के प्रति अभिमुख नहीं है, न उससे प्रतिकृत-प्रभावित होता है.

ऐसी स्थिति में साहित्य के बारे में बड़े दावे करना गहरी हताशा से ही उपजता है. साहित्य की नागरिकता ऐसी विशाल नागरिकता से घिरी है जिसे उसके होने का पता ही नहीं है. ऐसे में साहित्य की सामाजिक ज़िम्मेदारी, उसके लिए कोई अपेक्षा करना आदि, एक तरह से, साहित्य का अधिमूल्यन है. उसकी तथाकथित सामाजिकता दरअसल एक बहुत छोटे वर्ग की सामाजिकता है. यह अधिमूल्यन, एक तरह से, लेखकों का मनोबल बनाए रखने के लिए ज़रूरी है पर हमारे सामाजिक यथार्थ में उसकी इतनी कम जगह है कि वह नज़र ही नहीं आती.

मुझे यह सूझा जब हाल में एक युवा लेखक ने मेरा लगभग 200 प्रश्नों से लदा-फंदा इंटरव्यू लिया. अनेक प्रश्नों के पीछे यह बद्धमूल धारणा थी कि साहित्य समाज को दिशा देता है कि वह समाज में निर्णायक भूमिका निभाता है, कि उसके माध्यम से समाज अनेक नैतिक प्रश्नों पर विचार और पुनर्विचार करता है.

मेरे बुढ़ा गए चित्त को ईमानदारी से यह लगता है कि हिंदी लेखक एक क़िस्म के सामाजिक अरण्य में लिखता-बढ़ता है और उसके लिए यह एक ज़रूरी रूमान है कि वह सोचे के उसके लिखे से समाज में फ़र्क पड़ता है, कि उसके लिखे के कुछ ऐसे आशय हैं जो समाज और सचाई को बदल और बेहतर कर सकते हैं. तर्क कुछ यह बनता है कि चूंकि समाज साहित्य का अवमूल्यन करता रहता है, अपनी उपेक्षा-उदासीनता द्वारा, तो कम से कम लेखक उसका अधिमूल्यन कर इस उदासीनता का प्रतिकार कर ले, कर सकते हैं.

स्वतंत्रता दिवस

हम लोग वसुंधरा एनक्लेव नाम के दिल्ली के एक सरहदी मुहल्ले की एक हाउसिंग सोसाइटी में अपने तीन कमरों में एक फ्लैट में पिछले 21 बरसों से रह रहे हैं. हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर 15 अगस्त को रहवासी झंडा उत्तोलन और वंदन के लिए एकत्र होते हैं. उसमें एकाध भाषण के अलावा बच्चों के संगीत और नृत्य प्रस्तुतियां होती हैं जो सभी देशभक्ति पर एकाग्र रहती हैं.

एक बुजुर्ग इंजीनियरिंग के अध्यापक हर वर्ष एक कविता भी इस अवसर के लिए विशेष रूप से लिखकर सुनाते हैं. कविता उद्बोधनपरक होती है और उसमें भारत के विश्व गुरु होने या होने की संभावना का ज़िक्र होता है. उन सब अभिप्रायों का संदर्भ होता है जो सत्तारूढ़ राजनीति और मीडिया कहते-फैलाते रहते हैं. इसका आश्वासन भी कि दुनिया हमारी तरफ़ उम्मीद की नज़र से देख रही है और हम दुनिया को फिर रास्ता दिखाएंगे. बच्चे जो गीत आदि पर अपनी प्रस्तुतियां करते हैं वे भी ऐसे ही अतर्कित वीरता, शौर्य, पथप्रदर्शन, दुनिया में अपनी अद्वितीयता आदि के भावों से भरे होते हैं.

हमारी हाउसिंग सोसाइटी में ज़्यादातर लोग मध्यवर्ग के हैं- कुछ डॉक्टर, कुछ इंजीनियर, कुछ बिजनेस एक्ग्ज़ीक्‍यूटिव, पत्रकार, अध्यापक उनमें शामिल हैं. इधर लगभग एक दशक से यह वही मध्यवर्ग है जो सत्तारूढ़ शक्तियों द्वारा हर दिन फैलाए जा रहे झूठों पर न सिर्फ़ य़कीन करता है, उन्हें आगे फैलाता-बढ़ाता भी है. अभी सचाई का इतना दबाव, फिर भी, बना हुआ है कि ऐसे अवसरों पर गांधी और नेहरू का नाम लिया जाता है और उनकी जगह सावरकर और गोडसे नहीं ले पाए हैं.

दिलचस्प यह है कि इस वर्ग के मानस में कुछ मिथक घर कर गए हैं. पहला यह कि भारत तेज़ी से विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था बन रहा है: यह सही हो भी तो इस तथ्य को छिपाता है कि भारत के 70 करोड़ लोगों की जितनी कुल संपत्ति है, उतनी ही संपत्ति चालीस व्यापारिक घरानों की है.

दूसरा मिथक यह है कि हम विश्व गुरु थे और फिर होने जा रहे हैं. सचाई यह है कि हम कभी विश्व गुरु नहीं थे; इसका कोई साक्ष्‍य नहीं है. पहले हमारी प्रतिष्ठा अपने आध्यात्मिक ज्ञान के कारण थी. अब हमारा एक भी विश्वविद्यालय विश्व के दो सौ श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में नहीं आता और हम शोध और ज्ञान के मामले में बेहद पिछड़ गए हैं.

सच तो यह है कि हमने देशभक्ति को कुछ अनुष्ठानों तक सीमित और सतही कर दिया है और उसके नाम पर हम कई निरपराध नागरिकों की हत्या तक करते रहते हैं. यह भी कि हमने ऐसी शक्तियों को सत्तारूढ़ किया है जो लोकतंत्र, संविधान, ज्ञान, परंपरा और संस्कृति के विरुद्ध सक्रिय हैं. इन सबकी हमारी व्यापक समझ बहुत पोली हो गई है और हम तरह-तरह की दुर्व्‍याख्याओं में मुदित मन विश्वास करने लगे हैं. हम सांस्कृतिक निरक्षरता के संकट में हैं और स्वतंत्रता दिवस के आयोजन उसका आकर्षक मंच बन गए हैं.

डेढ़ कविताएं

विष्णु नागर का नया कविता संग्रह ‘ऐसा मैं हिन्दू हूं’ संभावना प्रकाशन से आया है. उसमें ‘कितना मैं हिन्दू हूं?’ शीर्षक एक कविता का यह अंश देखिए:

मैं सवाल पूछने वाला ऐसा हिन्दू हूं
जो मुसलमान भी है
मैं उतना हिन्दू हूं, जितना हर मुसलमान, हिन्दू होता है
मैं चींटी जितना हिन्दू तो हूं ही मच्छर जितना हिन्दू भी हूं
मैं ऐसा हिन्दू हूं जो किसी की जात-धर्म चुपके से
जानने की कोशिश नहीं करता
मैं इतना ज़्यादा हिन्दू हूं
कि भूल ही जाता हूं कि क्या हूं

‘समास’ के 25वें अंक में विवेक निराला का यह पद प्रकाशित है:

ऊधौ रोज़ खिंचावैं फ़ोटो.
कलयुग में कुछ करामात करि, कासी कर दें क्योटो.
एक सै बढ़कर एक पनौती, कौन बड़ो को छोटो.
हिंसा, झूठ, फरेब, बकैती, यही तुम्हारा मोटो.
लोकतंत्र के मेला मांही मिलिहै सिक्को खोटो.
सिलबट्टे मं भांग परी है, जाओ छानौ-घोटो.
लूटपाट की लगन लगी है, चाहे जिधर बकोटो.
बार-बार तुम बदलौ कपड़े, हमको महज लंगोटो.
थेथर भये फरक नहिं कौनो, अब पिरात नहिं चोटौ.
आखि़र अपनेन आय अखारे, भुंइ मं लोटो-पोटो.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)