‘विलायत खां अभी ख़त्म नहीं हुआ, कोई है?’

जन्मदिन विशेष: आज उस्ताद विलायत खां का जन्मदिन है. पढ़िए इस बेमिसाल कलाकार पर यह लेख जो उनकी कला और व्यक्तित्व को बखूबी चित्रित करता है.

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एक कार्यक्रम में उस्ताद विलायत खां. (फोटो साभार: फेसबुक / @ustad.vilayat.khan)

एक महफ़िल में उस्ताद विलायत खां का सितारवादन सुनकर प्रख्यात संगीत-समालोचक नीलाक्ष दत्त को लगा कि उनके हाथ का कौशल कुछ कम होना शुरू हो गया है. उन्होंने लिखा – ‘इस बार विलायत खां अस्ताचल की ओर जा रहे हैं. अब वह निपुणता उनके बजाने में रह ही नहीं गयी है.’ कुछ दिन बाद (कलकत्ता के) कला मंदिर में पुनः उस्ताद का सितारवादन हुआ. उन्होंने भीमपलासी राग में आलाप और गतकारी बजायी. तान वर्ग में लगातार उच्चांग और कठिन तानों को एक के बाद एक वे बजाते चले गए. नीलाक्ष दत्त सन्न हो गए थे. विगत दस बरसों में उस्ताद विलायत खां को इस तरह की तानें बजाते हुए सुना ही नहीं गया था. अंत में उस्ताद ने कहा – ‘विलायत खां ख़त्म नहीं हुआ है. कोई है? कोई है?’

आज ‘आफ़ताब-ए-सितार’ उस्ताद विलायत खां का जन्मदिन है. कुछ महीने पहले उनकी और उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की एक जुगलबंदी सुनी. सितार पर उनकी धुनें पहले भी सुनी थीं लेकिन उनको गाते हुए पहली बार सुन रहा था. सितार का सुर मानो गले में उतर आया हो और संगीत का सहज माहौल में. बिस्मिल्लाह खां से तो बनारस का नाता है. वे हमारी स्मृति में समाये हुए हैं जैसे घर समाया होता है. लेकिन विलायत खां को जानने में वक्त लगा.

उनकी आत्मकथा ‘कोमल गांधार’ आज़ाद भारत के संगीत के मिज़ाज के बनने की कहानी है जहां आज़ादी के आंदोलन से विरासत में मिली आज़ादख़याली है, बुजुर्गों का सम्मान है, महान सोहबतों की यादें हैं और एक ठस ईमानदार ज़बान है जो सच बोलती है और आपको कभी आश्चर्यचकित तो कभी असहज कर देती है. इस लेख के आरंभ में आया किस्सा इसी आत्मकथा से लिया गया है.

उनका जन्म 28 अगस्त 1928 में गौरीपुर के पास एक गांव में हुआ था जो अब बांग्लादेश में पड़ता है. 1936 में उन्होंने पहली बार स्टेज पर बजाया. उस समय के महान तबला वादक थिरकवा खां साहब उसी महफ़िल में पहुंचे हुए थे. उन्होंने विलायत के पिता से कहा, ‘इनायत खां! मैं बजाऊंगा विलायत के साथ.’ 8 साल के विलायत के साथ थिरकवा साहब की संगत. विलायत खां ने भैरवी बजाई और श्रोताओं में उपस्थित थे- रविंद्रनाथ ठाकुर, ओंकारनाथ ठाकुर, केशरबाई, अब्दुल अज़ीज़ खां जैसे लोग.

आधुनिक भारत के इतिहास में सितार के दो गौरव स्तंभ हैं- पंडित रविशंकर और उस्ताद विलायत खां. ये दोनों अपने आप में सितार के स्कूल थे. उन्होंने न केवल सितार बजाया बल्कि उसकी संरचना और वादन तकनीक में भी महत्वपूर्ण परिष्कार किया जिसका अनुसरण बदस्तूर जारी है. रियाज़ और साधना के जिस स्तर पर जाकर उन्होंने संगीत को साधा है, वह दुनिया के पटल पर विरल ही है.

दुनिया में सभी जगह संगीत के सात ही सुर हैं और हर कलाकार की यात्रा इन्हीं सात सुरों के बीच होती है लेकिन संगीत को ऊंचाई पर ले जाने के लिए पहले दृष्टि की ऊंचाई आवश्यक है.

गौतम चटर्जी को दिए एक साक्षात्कार में विलायत खां साहब इस ओर इशारा करते हैं, ‘एक ही राग को इतने लोग बजाते हैं तो फर्क कहां होता है? राग को ले के सोचने में या कलाकार के मन का फर्क होता है? फिर मुझे सूझा कि राग तो एक ही होता है लेकिन उसे हम देखें कहां से, कोई जगह होनी चाहिए जहां से वह दिखे. एक ऊंचाई जहां से राग का पूरा स्वरूप दिखाई दे सके. पहले दिखेगा तब तो किसी को दिखाएंगे. आप के ज़रिये राग कुछ कहना चाहता है. पहले आप कुछ कहना चाहते हैं राग के ज़रिये. सेल्फ एक्सप्रेशन. फिर वो अपने सेल्फ को एक्सप्रेस करता है. राग का सेल्फ बहुत बड़ा होता है. इसलिए अपने सेल्फ को भी बड़ा करना पड़ता है.’

विलायत खां की आत्मकथा एक संगीत-शिल्पी के जीवन को देखने का मौका देती है जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी बुजुर्गों के सम्मान और आत्मस्वाभिमान के साथ जी है. पूरी आत्मकथा एक श्रद्धांजलि लेख की तरह जान पड़ती है जहां हर दूसरे पन्ने पर उस्ताद अपने वरिष्ठों के प्रति सम्मान व्यक्त करते दिखाई देते हैं. उस्ताद फ़ैयाज़ खां, उस्ताद बड़े गुलाम अली खां, उस्ताद अली अकबर खां, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, केसरबाई इत्यादि अनेक नाम उनकी ज़बान पर प्रार्थना की तरह आते रहते हैं. ऐसा लगता है मानो उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा वरिष्ठजनों के सम्मान में समर्पित कर रखा है.

दरअसल, भारतीय शास्त्रीय संगीत की गुरु-शिष्य परंपरा, औपचारिक शिक्षण संस्थानों से अधिक मानवीय संबंधों के धरातल पर निर्मित हुई है. वह पारिवारिक और सामाजिक संबंधों के अनौपचारिक संस्थाओं में विकास पाती है. आशीष नंदी ने भी अपने एक व्याख्यान में यह संस्थापना दी कि भारतीय शास्त्रीय संगीत शिक्षण संस्थानों की बजाय व्यक्तिगत संबंधों के दरमियान अधिक बेहतर तरीके से विकसित हुआ है. विलायत खां के पिता उस्ताद इनायत खां के घर में हो रही संगीत की महफ़िलों ने बाल विलायत को एक महान सोहबत दी जहां उन्हें सुनने और सिखाने वाले फैयाज खां, करीम खां जैसे लोग थे. इन सोहबतों को विलायत खां ने हमेशा अल्लाह की नेमत की तरह समझा और मरते दम तक उन्हें याद करते रहे.

शायद यह उस सीख का ही नतीजा था जो उन्हें पिता से बचपन में मिली थी. पिता इनायत खां ने कहा था,  ‘बेटा, सारी दुनिया के उस्तादों को अपने पिता की इज़्ज़त दोगे तो मैं तुम्हारी इज़्ज़त करूंगा, मरने के बाद भी. नहीं तो तुम अच्छे शागिर्द और अच्छे आर्टिस्ट कभी नहीं बन पाओगे.’ यह एक ऐसी ताबीज़ थी जिसने विलायत खां को हमेशा उस अहंकार से बचाए रखा जो अक्सर सफलता के साथ आती है.

विलायत खां अपने पिता को याद करते हुए कहते हैं,

बचपन से अब्बा को कैसा देखा? सड़क पर जाते-जाते एक मस्जिद के सामने खड़े होकर सिर झुकाकर इबादत की मन ही मन. फिर राह में कोई मंदिर पड़ा तो उसके सामने भी चुपचाप खड़े रहे. ऐसे ही फिर कभी गिरजे के सामने रुक गए. तो ये सब देखकर मैंने पूछा था एक बार, अब्बा, आप तो मुसलमान हैं. तो आप मंदिर को सलाम क्यों करते हैं? तब अब्बा ने कहा, बेटा मैं मंदिर का फॉलोवर नहीं हूं. लेकिन मंदिर के अंदर एक कोई बैठा हुआ है जो हमसे बड़ा है. और जो हमसे बड़ा है उसको सलाम करता हूं. कितना बड़ा, है कि नहीं है, ये नहीं मालूम. लेकिन वो हमसे बड़ा है. इतने खूबसूरत अंदाज़ में उस दिन समझाया अब्बा ने कि तुमसे जो बड़ा है उसके सामने सिर झुकाओ.

यह पिता-पुत्र संवाद स्वयं अपने आप में संगीत की एक मधुर लय है जो वर्तमान भारत में घायल होती सेकुलर परंपरा के लिए बेहद जरूरी है. 

(फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

संगीत विद्या का सर्वोच्च रूप है. इसीलिए संगीत मनुष्य को विनम्र बनाता है. लेकिन यह विनम्रता आत्मस्वाभिमान के मूल्य से जुड़ी होती है. किशोरी अमोणकर के आत्मस्वाभिमान से श्रोतागण भी सहमे रहते थे. लेकिन विलायत खां का आत्मस्वाभिमान तो सरकार तक को हिलाकर रख देता था. वे कभी भी अपनी बात सामने रखने से हिचकते नहीं थे चाहे वो किसी व्यक्ति के खिलाफ हो या स्वयं सरकार के.

आकाशवाणी के प्रारंभिक दौर में यह नियम बना कि सभी कलाकारों की स्वर परीक्षा होगी- यहां तक कि केसरबाई केशकर, ओंकारनाथ ठाकुर जैसे भारतीय संगीत के प्रकाश स्तंभों को भी स्वर परीक्षा देने को कहा गया. तब विलायत खां इसके विरोध में खड़े हो गए. उन्होंने कहा, ‘इस देश में ऐसा कौन है जो इतने बड़े धुरंधर कलाकारों की योग्यता की परीक्षा लेगा?’ इसी वजह से उन्हें आजीवन आकाशवाणी में बजाने नहीं दिया गया. उन्होंने निर्णय समिति की अयोग्यता की बात करते हुए 1964 में पद्मश्री और 1968 में पद्मविभूषण भी ठुकरा दिया.

एक ऐसे दौर में जब कला की स्वतंत्रता सेंसर की जा रही है और बहुत से कलाकार सरकार के सामने घुटने टेककर पुरस्कार राशि गिन रहे हैं, विलायत खां और उनकी वाक् की संप्रभुता याद आती है. आज़ादख़याली कला की पहली शर्त है.

बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, वे संभवतः भारत के प्रथम संगीतकार थे जिन्होंने भारत की आज़ादी के बाद इंग्लैंड जाकर संगीत पेश किया था. एक ऐसा समय था जब विलायत खां के संगीत की पूरे दुनिया भर में धूम थी और वे एक साल में आठ महीने विदेश में बिताया करते थे. न्यूजर्सी तो जैसा उनका दूसरा घर बन गया था. दुनिया भर में घूमते रहे लेकिन बंगाल दिल से निकल नहीं सका. अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे देशों ने उन्हें नागरिकता देने की पेशकश की लेकिन ‘घर की याद’ उम्र के साथ बढ़ती ही रही.

उस्ताद कहते हैं, ‘जैसे मंदिर है मेरा यह देश. इसीलिए हज़ार थप्पड़ खाने के बाद भी यहीं बार बार लौट आता हूं. यहां के लोग मुझे कितना चाहते हैं क्या मैं इसे जानता नहीं हूं? ऐसा प्रेम मुझे दुनिया में कहां मिलेगा? कौन देगा? प्रेम का भिखारी मैं सदा अल्लाह को पुकारता हूं और कहता हूं मेरी मिट्टी भी जिससे इस देश में मिल जाए. इसी बंगाल में.’

एक कलाकार का जीवन हमेशा ही जिज्ञासा के घेरे में रहता है. लोग जानना चाहते हैं की सितार के तार से आती धुन के पीछे कौन-सा अमूर्त तत्व है जो सुरों में ही मूर्त हो सकता है. क्या है जो कलाकार छुपा लेना चाहता है और क्या है जो वह बताना चाहता है. इस दृष्टि से देखें तो यह आत्मकथा विलायत खां की व्यक्तिगत ज़िंदगी में बहुत गहरे नहीं जा पाती लेकिन प्रेम, वैवाहिक जीवन इन सब विषयों पर एक झलकी ज़रूर दे देती है. लेकिन दरअसल विलायत खां ने संगीत को ही जिया है. इसीलिए उनकी हर बात अंत में आकर संगीत और सितार पर टिक जाती है.

अपने संगीत के बारे में वे कहते हैं, ‘मुझे ज़िंदगी भर बहुत दर्द मिला, दुख ही ज्यादा आया मेरे हिस्से. अंदर समाया ये दर्द बाद में सुरों में उभरा.’ खां साहब का यह कहा हुआ पढ़कर नीरज का वो गीत याद आता है:

‘सूनी-सूनी सांस की सितार पर
गीले-गीले आंसुओं के तार पर
एक गीत सुन रही है ज़िंदगी
एक गीत गा रही है ज़िंदगी’

आत्म की कथा समाप्त नहीं होती. वह खां साहब की आखिरी इच्छाओं में गूंजती रहती है- ‘ज़िंदगी को फिर से, नए सिरे से जीना चाहता हूं बिना किसी राग द्वेष के. थोड़ा अकेला रहकर देखना चाहता हूं. अलग होने पर दिखता है. अलग होने पर ज्यादा साथ महसूस होता है.’

‘कोमल गांधार’ साहित्य और संगीत के बीच एक शानदार जुगलबंदी है. आत्मकथा साक्षात्कार की शैली में है. शंकरलाल भट्टाचार्य ने खां साहब के जीवन को पन्ने पर उतारते हुए बड़ी सावधानी बरती है ताकि शब्दों के बीच का संगीत कहीं खो ना जाए. इसलिए लय को बनाए रखने के लिए सारे प्रश्न हटा दिए गए हैं जिससे पाठक निरंतर उस्ताद से ही संवाद स्थापित कर पाए. पढ़ते हुए कई बार ऐसी अनुभूति होती है मानो उस्ताद हमसे ही बात कर रहे हो. उम्मीद यही है कि यह बातचीत भारतीय शास्त्रीय संगीत के अतीत और वर्तमान दोनों को देखने की एक बेहतरीन नज़र दे सकती है.

(लेखक टीवी इंडस्ट्री से जुड़े हैं. साहित्य और सिनेमा पर लिखते हैं.)