भारत के विश्वविद्यालयों में अकादमिक स्वतंत्रता पर गंभीर संकट है

देश के विश्वविद्यालय ख़ासकर केंद्रीय विश्वविद्यालय एक प्रकार से केंद्र सरकार के ‘विस्तारित कार्यालय’ में तब्दील कर दिए गए हैं. कोई भी अकादमिक विभाग बिना प्रशासन की ‘छन्नी’ से गुजरे किसी भी प्रकार का आयोजन नहीं कर सकता.

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जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय. (फोटो साभार: Wikimedia Commons/GS Meena/CC BY-SA 3.0)

भारत के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों में से एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से जुड़ी हुई दो ख़बरें सामने आई हैं. पहली ख़बर का संबंध भारत ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ से है. भारत ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ आयोजित करने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी), नई दिल्ली भारत के सभी विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुरोध-पत्र भेजता है जिसे ‘संस्थान’ आदेश की तरह ग्रहण करते हैं.

इसी प्रसंग में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रख्यात लेखक सआदत हसन मंटो (1912-1955 ई.) की कहानी ‘खोल दो’ का मंचन विद्यार्थियों द्वारा किया जाना किया जाना था. इस मंचन को ऐन वक़्त पर मौखिक आदेश के तहत रोक दिया गया. इतना ही नहीं यह भी कहा गया कि अगर मंचन करना ही है तो इस में आई पात्र ‘सकीना’ का नाम ‘समीरा’ कर दीजिए एवं ‘अल्लाह’ को ‘ईश्वर’ कर दीजिए जैसा कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के ‘प्रेसिडेंट’ धनंजय ने अपने वीडियो में स्पष्ट किया है.

सवाल यह है कि एक विश्वविद्यालय में प्रतिष्ठित लेखक की कहानी के मंचन में ‘छेड़छाड़’ की मानसिकता कैसे उत्पन्न हो रही है? कहानी में आए पात्र के नाम का ‘हिंदूकरण’ करने को क्यों कहा जा रहा है?

सबसे प्रमुख सवाल तो यही है कि भारत ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ आयोजित करने की ज़रूरत ही क्यों पड़ी वह भी 14 अगस्त को जबकि यह इतिहास-प्रमाणित बात है इस दिन पाकिस्तान देश का जन्म हुआ था न कि विभाजन की विभीषिका की शुरुआत.

दरअसल ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ की परिकल्पना, प्रकृति और परियोजना का यदि विश्लेषण किया जाए तो इसके पीछे बहुत ही महीन क़िस्म की चालाकी एवं कुटिलता नज़र आती है. ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ से जुड़े दस्तावेज बहुत ही महीन तरीक़े से यह बताते हैं कि विभाजन में अधिक नुकसान हिंदुओं का हुआ, बर्बरता मुसलमानों की ओर से बरती गई. विभाजन का कारण तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं की सत्ता-लोलुपता थी.

2023 में जो दस्तावेज उस समय की केंद्र सरकार (जो अभी भी लोकसभा चुनाव के बाद वर्तमान है.) द्वारा जारी किया गया था उसमें भी इसी तरह की बात थी. 2024 में भी जो दस्तावेज प्रसारित किया गया है उसमें भी सबसे अधिक संदर्भ 1946 में ‘कलकत्ता’ में हुए दंगों के हैं जिसकी शुरुआत में लिखा गया है कि ‘भारत के विभाजन के इतिहास का उल्लेख 1946 के दर्दनाक कलकत्ता हत्याकांड के बिना अधूरा है, जब कलकत्ता को सांप्रदायिक उन्माद की शक्तियों ने अपने कब्जे में ले लिया था. मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के निर्माण के एकमात्र एजेंडे पर चुनाव लड़ा था. प्रचार यह था कि यह अभियान ब्रिटिशों के खिलाफ है, लेकिन वास्तव में यह सिखों और हिंदुओं के खिलाफ था.’

इसी दस्तावेज में आगे ऐसी बातें कही गई हैं (उदाहरण के लिए- अख़बार ‘स्टेट्समैन’ की कतरन लगाईं गई है जिसमें यह लिखा गया है कि ‘Join Islam Or Burn’ (जॉइन इस्लाम और बर्न) इसी प्रकार लिखा गया है कि ‘सबसे पहला हमला रामगंज पुलिस स्टेशन क्षेत्र के एक बाजार में हिंदुओं के स्वामित्व वाले व्यवसायों पर किया गया.’)  जिनसे यह छवि बनती है कि विभाजन के समय हिंदुओं पर बहुत अधिक अत्याचार हुए. यह भी समझा जा सकता है कि आज की नई पीढ़ी इस दस्तावेज को देखेगी तो उस के मन में यह सहज-स्वाभाविक रूप से बैठेगा कि विभाजन के सबसे अधिक शिकार हिंदू हुए और जो हिंदू रूप में अपनी पहचान महसूस करेगा उसके भीतर मुसलमानों के प्रति नफ़रत उत्पन्न होगी. यही राजनीतिक उद्देश्य है जिसके लिए ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ का आयोजन किया जा रहा है.

उक्त दस्तावेज के साथ एक नाटक भी कुछ भारतीय भाषाओं में दिया गया है. हिंदी में जो नाटक दिया गया है उसमें ‘दादा जी’ नामक पात्र एक संवाद में कहते हैं कि ‘जो हुआ सो हुआ … सुनो हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री जी ने क्या कहा है:’ और फिर प्रधानमंत्री (जो निश्चित ही अभी के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं.) की आवाज़ में उनका संदेश दिया गया है. समझा जा सकता है और पूछा जाना चाहिए कि भारत विभाजन की स्थितियों का सामना सबसे अधिक उस समय तत्कालीन और पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने किया था न कि अभी के प्रधानमंत्री ने! भारत विभाजन की विभीषिका पर लिखे गए नाटक में अभी के प्रधानमंत्री की आवाज़ या उनके विचार का क्या संदर्भ हो सकता है?

इस विवरण से इसका कारण समझा जा सकता है कि ‘खोल दो’ कहानी के पात्र ‘सकीना का नाम ‘समीरा’ करने को क्यों कहा जा रहा है? बात यही है कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह चाहते हैं कि घटित कारुणिक इतिहास को भी वर्तमान राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया जा सके और राजनीतिक उद्देश्य (उग्र हिंदुत्व के सहारे सत्ता में बने रहना) की प्राप्ति हो सके. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विश्वविद्यालय जैसी सामाजिक संस्था का भी व्यापक इस्तेमाल किया जा रहा है.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से जुड़ी दूसरी ख़बर यह है कि विश्वविद्यालय गंभीर वित्तीय संकट से गुजर रहा है इसलिए वह अपनी संपत्ति बेचेगा. विदित हो कि अभी भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इसी विश्वविद्यालय की पूर्व-विद्यार्थी रही हैं.

उपर्युक्त दोनों ख़बरें भारत के विश्वविद्यालयों का वर्तमान हाल स्पष्ट कर देती हैं. एक बात तो यही कि विश्वविद्यालय जो तर्क, संवाद और विवेचन-विश्लेषण के लिए बने हैं उनमें इन सबका अब कोई स्थान नहीं है. मंटो अविभाजित भारत के ऐसे लेखकों में से एक हैं जिन्होंने विभाजन के दंश को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त किया है. यह बदतमीजी ही कही जाएगी कि उनकी कहानी के मंचन में पात्रों के नाम बदलने की शर्त विश्वविद्यालय प्रशासन के द्वारा तय की जा रही है.

साफ़ है कि भारत के विश्वविद्यालयों में अकादमिक स्वतंत्रता पर गंभीर संकट है और यह लगभग समाप्त हो गई है. इसके साथ यह भी रोज़ महसूस होता है कि विश्वविद्यालय ख़ासकर केंद्रीय विश्वविद्यालय एक प्रकार से केंद्र सरकार के ‘विस्तारित कार्यालय’ में तब्दील कर दिए गए हैं. कोई भी अकादमिक विभाग बिना प्रशासन की ‘छन्नी’ से गुजरे किसी भी प्रकार का आयोजन नहीं कर सकता.

स्व-वित्तपोषित आयोजन पर बल है और जहां केंद्रीय सरकार या कहना चाहिए कि जिस दल की केंद्रीय सरकार है उसके द्वारा प्रस्तावित कार्यक्रमों (उदाहरण के लिए ‘सेल्फी पॉइंट’, ‘2047 विकसित भारत’, 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में राम मंदिर के आयोजन से संबंधित ‘दिया जलाना’ आदि.) के लिए पैसे की कभी कोई कमी नहीं लगती.

दूसरी ओर देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय को अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए अपनी संपत्ति बेचने की ज़रूरत पड़ रही है. इन दोनों बातों से स्पष्ट है कि भारत के विश्वविद्यालयों के पास अब न तो अकादमिक स्वतंत्रता है और न ही उन्हें ज़रूरी संसाधन उपलब्ध कराए जाएंगे जिनके आधार पर वे अपना काम इत्मीनान से कर पाएं.

इसके साथ-साथ यह भी है कि ज़्यादातर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में सिविल सेवा नियमावली लागू है जो सरकार की किसी नीति की आलोचना करने का अधिकार नहीं देती. स्पष्ट है कि इसके कारण और परिणामस्वरूप  शिक्षक (जिनका बुनियादी काम तार्किक एवं आलोचनात्मक तरीक़े से सोचना है.) महज ‘सरकारी कर्मचारी’ की हैसियत में बांध दिए गए हैं, उनकी अकादमिक स्वतंत्रता छीन ली गई है इसलिए वे इन सब बातों का खुलकर विरोध भी नहीं कर पाते और दूसरी तरफ़ विश्वविद्यालय को  वित्तीय संसाधन से वंचित कर दिया गया है.

विचित्रता यह है कि अभी भारत को ‘विश्वगुरु’ के रूप में बड़े जोरशोर से व्याख्यायित किया जा रहा है. हमेशा रोना रोया जाता है कि हमारे विश्वविद्यालय दुनिया के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों की सूची में नहीं आते. इतना तो स्पष्ट है कि दुनिया के श्रेष्ठ माने जाने वाले विश्वविद्यालय अपने सरकारी आयोजनों के लिए नहीं जाने जाते बल्कि अपनी अकादमिक उपलब्धियों और ऊंचाइयों के लिए जाने जाते हैं.

एक ओर तो भारत के विश्वविद्यालयों के विकसित होने के न्यूनतम संसाधन भी हर लिए गए हैं और दूसरी तरफ़ उनसे उम्मीद है कि वे श्रेष्ठ हो जाएं. यह कबीर के समय से भी अधिक अटपटी उलटबांसी है जिस का कोई रहस्यात्मक अर्थ नहीं बल्कि रोज़ सीधा साक्षात्कार है.

(लेखक दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं.)