परकाला प्रभाकर की लिखित पुस्तक ‘नए भारत की दीमक लगी शहतीरें: संकटग्रस्त गणराज्य पर आलेख’ भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान संकट पर एक गहन और चिंतनशील विश्लेषण प्रस्तुत करती है. मूल रूप से यह पुस्तक द क्रूकेड टिंबर ऑफ न्यू इंडिया: एस्सेज़ ऑन अ रिपब्लिक इन क्राइसिस (The Crooked Timber of New India: Essays on a Republic in Crisis) अंग्रेजी में लिखी गई थी, जिसे वर्ष 2023 में स्पीकिंग टाइगर ने प्रकाशित किया था.
इस पुस्तक का सहज और सटीक हिंदी अनुवाद वरिष्ठ पत्रकार व्यालोक पाठक द्वारा किया गया, जिसे राजकमल प्रकाशन ने इसी साल प्रकाशित किया है. इस पुस्तक में प्रभाकर ने भारतीय समाज और राजनीति में 2014 के बाद हुए परिवर्तनों को उजागर किया है, जो भाजपा के सत्ता में आने के बाद से तेजी से दृष्टिगोचर हुए हैं. उनके अनुसार, ये परिवर्तन केवल सत्ता परिवर्तन या चुनावी परिणामों का परिणाम नहीं हैं, बल्कि भारतीय गणराज्य की संरचना को जड़ से हिला देने वाला एक गंभीर संकट है.
चर्चित अर्थशास्त्री परकाला प्रभाकर का मानना है कि भारतीय लोकतंत्र की बुनियादें दिन-ब-दिन कमजोर होती जा रही हैं. यह संकट मात्र चुनावी हार-जीत से हल नहीं हो सकता. वह इस विचार को मजबूती से प्रस्तुत करते हैं कि मौजूदा संकट का समाधान केवल राजनीतिक सुधारों या नीतिगत बदलावों से संभव नहीं है; इसके लिए समाज के हर स्तर पर व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है.
प्रभाकर के अनुसार, यह परिवर्तन न केवल राजनीतिक परिदृश्य में, बल्कि समाज की संरचना और सोच में भी होना चाहिए, ताकि लोकतंत्र के मूल्यों को संरक्षित और सुदृढ़ किया जा सके!
इस संदर्भ में व्यालोक पाठक का अनुवाद अत्यंत महत्वपूर्ण है. उन्होंने प्रभाकर के विचारों को हिंदी पाठकों तक न केवल स्पष्टता से पहुंचाया है, बल्कि विचारों की गंभीरता को भी सही रूप में प्रस्तुत किया है. उनका अनुवाद मूल पाठ की बारीकियों को यथावत रखते हुए प्रभाकर के संदेश को हिंदी भाषी समाज के लिए प्रभावी बना देता है. यह वास्तव में एक उत्कृष्ट अनुवाद है; लंबे समय बाद हिंदी में ऐसा सहज और प्रभावी अनुवाद पढ़ने को मिला है.
‘नए भारत की दीमक लगी शहतीरें’ भारतीय गणराज्य के मौजूदा संकट को समझने के लिए एक अनिवार्य पाठ है, जो पाठकों को ठहरकर विचार और चिंतन के लिए प्रेरित करती है. यह पुस्तक न केवल वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य का विश्लेषण करती है, बल्कि यह भी स्पष्ट करती है कि भारत के लोकतांत्रिक भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए कौन-कौन से कदम उठाने जरूरी हैं.
राजनीतिक परिदृश्य का आकलन
प्रभाकर ने भाजपा के शासनकाल में देश में हुए परिवर्तनों का विस्तार से विश्लेषण किया है. उन्होंने दिखाया है कि कैसे मौजूदा सरकार ने अपने नीतिगत निर्णयों से लोकतांत्रिक ढांचे को प्रभावित किया है. उनके अनुसार, यह सरकार संवैधानिक मूल्यों को कमजोर करके अपने एजेंडा को आगे बढ़ा रही है, जिससे लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है.
प्रभाकर इस बात पर भी जोर देते हैं कि अब निष्क्रियता या मौन रहना विकल्प नहीं है, क्योंकि हिंदुत्व की परियोजना और अवसरवाद लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा बन गए हैं. वह चेतावनी के स्वर में कहते हैं कि यदि इन खतरों का समय रहते मुकाबला नहीं किया गया, तो भविष्य में अराजकता और विभाजन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है.
प्रभाकर ने विभिन्न मुद्दों जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बयानबाजी, हिजाब और भगवा दुपट्टे पर बहस, कोविड-19 महामारी के साथ भारत की आर्थिक स्थिति पर भी विचार किया है. उनका विश्लेषण डेटा और आंकड़ों पर आधारित है, जो उनके तर्कों को और भी प्रभावशाली बनाता है. उन्होंने मोदी सरकार द्वारा डेटा की पारदर्शिता पर उठाए गए सवालों को भी प्रमुखता से उजागर किया है, जो मौजूदा शासन के तहत डेटा की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा करते हैं.
शासन और मीडिया की भूमिका पर प्रश्न
इस पुस्तक में शासन और मीडिया के बीच के जटिल और चिंताजनक संबंधों को बारीकी से उकेरा गया है. लेखक ने इस बात का गहन विश्लेषण किया है कि कैसे मीडिया, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, धीरे-धीरे सत्ता के हाथों का मोहरा बनता जा रहा है. उन्होंने उदाहरणों और तथ्यों के माध्यम से दिखाया है कि किस प्रकार मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अपने वास्तविक कर्तव्यों से विमुख होकर सत्ता की चापलूसी में लिप्त हो गया है.
प्रभाकर बताते हैं कि यह मीडिया अब जनसरोकारों को दरकिनार कर सांप्रदायिकता, अति राष्ट्रवाद और अन्य सतही मुद्दों को प्रमुखता से पेश कर रहा है, जिससे समाज में भ्रम और विभाजन फैल रहा है. प्रभाकर का तर्क है कि इस प्रकार की मीडिया रिपोर्टिंग न केवल जनता को गुमराह करती है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं को भी कमजोर करती है. वे कहते हैं कि जब मीडिया सत्ता के दबाव में आकर अपने नैतिक दायित्वों से समझौता करता है, तो वह अपनी निष्पक्षता खो देता है और लोकतंत्र का अभिन्न हिस्सा बनने के बजाय उसे संकट में डालने का कारक बन जाता है.
इस संदर्भ में, प्रभाकर ने मीडिया की निष्पक्षता, जनता के प्रति उसकी जवाबदेही और उसके सच्चे कर्तव्यों पर गंभीर सवाल उठाए हैं. उनका दृष्टिकोण पाठक को सोचने पर मजबूर करता है कि क्या आज का मीडिया वाकई लोकतंत्र के हित में कार्य कर रहा है या फिर वह केवल सत्ता के एजेंडे को आगे बढ़ाने का एक साधन बन गया है?
यह अध्याय भारतीय मीडिया की वर्तमान स्थिति का एक चिंतनशील आकलन प्रस्तुत करता है और इसके सुधरने की आवश्यकता पर बल देता है, ताकि लोकतंत्र की जड़ें मजबूत रहें और गणराज्य सही मायनों में जनता के लिए कार्य कर सके.
पुस्तक का मर्म
पुस्तक के अंतिम अध्यायों में, लेखक ने अपने विचारों का सार प्रस्तुत करते हुए इस बात पर जोर दिया है कि भारतीय लोकतंत्र को बचाने के लिए अब महज खतरों की पहचान करना पर्याप्त नहीं है; बल्कि, हमें उनके समाधान के लिए साहसिक कदम उठाने होंगे. प्रभाकर का मानना है कि समाज को सशक्त बनना होगा, नागरिकों को अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए विभाजनकारी और असहिष्णु ताकतों के खिलाफ दृढ़ता से खड़ा होना पड़ेगा.
यह पुस्तक हमारे सामने कई गंभीर विषयों को रेखांकित करती है, जो हमें याद दिलाती है कि हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों की सुरक्षा के लिए जागरूकता और उसपर ठोस कार्रवाई दोनों अनिवार्य हैं. प्रभाकर अपने तर्क से हमें सचेत करते हैं कि यदि समय रहते इन खतरों का सामना नहीं किया गया, तो भारत का भविष्य अनिश्चित और अस्थिर हो सकता है.
हम पढ़ते हुए अनुभव करते हैं कि कैसे पुस्तक पाठकों को सोचने पर विवश करती है, उन्हें अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति भी सचेत करती है. साथ ही एक ऐसे राष्ट्र के निर्माण की दिशा में प्रेरित करती है, जहां लोकतंत्र की जड़ें न केवल मजबूत हों, बल्कि वे सभी के लिए न्याय, समानता और स्वतंत्रता की गारंटी भी दें.
कोविड-19 महामारी का विश्लेषण
पुस्तक का सबसे लंबा और गंभीर अध्याय भारत की कोविड-19 महामारी की प्रतिक्रिया से संबंधित है. प्रभाकर ने सरकार की नीतियों और उनके कार्यों के प्रभाव का गहन विश्लेषण किया है, जिसमें यह दिखाया गया है कि कैसे बुनियादी सुविधाओं की कमी और गलत नीतियों के कारण कई लोगों की जानें गईं.
प्रभाकर ने इस अध्याय में यह भी उजागर किया है कि कैसे सरकार ने महामारी के दौरान वैज्ञानिक सलाह की अनदेखी की और पर्याप्त स्वास्थ्य संसाधनों की कमी के बावजूद चुनावी सभाओं और धार्मिक आयोजनों को प्राथमिकता दी. इसके परिणामस्वरूप, आम जनता को असहनीय संकटों का सामना करना पड़ा, जबकि सरकार अपनी असफलताओं को छिपाने में लगी रही.
यह अध्याय न केवल सरकार की नीतिगत गलतियों पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी बताता है कि इन विफलताओं ने देश की सामाजिक और आर्थिक संरचना को गहरे संकट में डाल दिया.
लेखक की अंतर्दृष्टि
परकाला प्रभाकर का मानना है कि वर्तमान सरकार को केवल पिछली सरकारों के संदर्भ में देखना एक छलावा है. उनका दृष्टिकोण इस बात पर आधारित है कि यह लड़ाई केवल चुनावी नहीं है, बल्कि इसके आयाम सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक स्तरों तक फैले हुए हैं. लेखक के अनुसार, यह आवश्यक है कि वे राजनीतिक ताकतें, जो बहुसंख्यकवादी परियोजना के खिलाफ हैं, अपने विचारों और कार्यों में स्पष्टता और दृढ़ता दिखाएं. अन्यथा, देश के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष आदर्श खतरे में पड़ सकते हैं.
यह पुस्तक उन सभी के लिए एक अनिवार्य पाठ है, जो यह समझना चाहते हैं कि आज भारत में क्या हो रहा है और भविष्य में देश की दिशा क्या होनी चाहिए.
(आशुतोष कुमार ठाकुर पेशे से मैनेजमेंट प्रोफेशनल हैं.)