नई दिल्ली: बांग्लादेश में हिंसक तख्तापलट के बाद देश की अल्पसंख्यक राजनीति विभाजित हो चुकी है. यह विभाजन रेखाएं शायद पहले भी मौजूद थीं, लेकिन अंतरिम सरकार के गठन के बाद यह दरार गहरी और कड़वी हो गई है.
एक ओर वे हिंदू हैं जिनका कहना है कि तख्तापलट के दौरान और उसके बाद अल्पसंख्यकों पर तेज गति से हमले हुए हैं, दूसरी ओर वे हिंदू हैं जो कहते हैं कि ऐसी कई सारी ख़बरें झूठी और माहौल को भड़काने के लिए हैं.
एक ओर हैं देश के प्रमुख अल्पसंख्यक संगठन ‘बांग्लादेश हिंदू बुद्धिस्ट क्रिश्चियन यूनिटी काउंसिल’ के महासचिव राणा दासगुप्ता, दूसरी ओर हैं बांग्लादेश जातीय हिंदू महाजोत के महासचिव गोविंद प्रोमानिक.
जब दासगुप्ता का सगंठन अल्पसंख्यकों पर हमले की घटनाओं को लगातार मीडिया के सामने रख रहा था, उन्हीं दिनों गोविंद प्रोमानिक ने एक वीडियो जारी कर कहा था, ‘कल दोपहर शेख हसीना के इस्तीफे के बाद इस देश के हिंदू समुदाय ने सोचा कि उन पर बड़े पैमाने पर हमले होंगे और आगजनी की घटनाएं होंगी. लेकिन बीएनपी और जमात के नेताओं ने अपने पदाधिकारियों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि हिंदू घरों पर हमला न किया जाए और मंदिरों की रक्षा की जाए. और हमने देखा है कि मंदिरों की सुरक्षा की जा रही है. मंदिरों और हिंदुओं पर हमले की कोई घटना नहीं हुई है.’
दूसरी तरफ दासगुप्ता ने द वायर हिंदी को बयान दिया है कि पांच अगस्त को शेख हसीना के नेतृत्व वाली सरकार के पतन के बाद से ‘बांग्लादेश के 52 ज़िलों में अल्पसंख्यकों पर हमलों और उत्पीड़न की कम से कम 205 घटनाएं हुई हैं’.
बांग्लादेश के इन दोनों हिंदू संगठनों के बीच अलगाव इतना अधिक है कि द वायर हिंदी से बात करते हुए गोविंद प्रोमानिक ने राणा दासगुप्ता पर भीषण आरोप लगाते हुए कहा, ‘उन्होंने (राणा दासगुप्ता) हसीना सरकार के गलत काम में सहयोग किया है. बांग्लादेश हिंदू बुद्धिस्ट क्रिश्चियन यूनिटी काउंसिल की स्थापना शेख हसीना ने अवामी लीग के सदस्य संगठन के रूप में की थी. संस्था के प्रबंधन का खर्च शेख हसीना उठाती थीं. संगठन के नेताओं को हसीना सरकार द्वारा विभिन्न अवसर दिए गए. इसका मकसद हिंदू बौद्ध ईसाई समुदाय के लोगों को अवामी लीग के साथ बनाए रखना है.’
लेकिन जब द वायर हिंदी ने बांग्लादेश के राजनीतिक विशेषज्ञों से इन आरोपों का ज़िक्र किया, उन्होंने इन्हें सिरे से नकार दिया और कहा कि ये बेबुनियाद हैं. यहां दो प्रमुख बिंदु रेखांकित करना आवश्यक है. पहला, ये विशेषज्ञ शेख हसीना के विरोधी हैं और उनके तख्तापलट को देश-हित में मानते हैं. दूसरा, उनका कहना है कि दासगुप्ता और प्रोमानिक के बीच कोई तुलना हो नहीं सकती.
द वायर हिंदी से बांग्लादेश के एक वरिष्ठ मुस्लिम पत्रकार ने कहा, ‘दासगुप्ता बांग्लादेश के अल्पसंख्यक समुदायों के लिये काम करने वाले प्रमुख और जाने-पहचाने नेता हैं. वे अरसे से सक्रिय हैं. हम उनके बयानों को छापते हैं. यह सही है कि हम उनके प्रत्येक कथन को एकदम सत्य नहीं मानते, उसकी पुष्टि भी करते हैं, लेकिन उनकी एक साख है. इसके विपरीत गोविंद प्रोमानिक पटल पर अभी हाल ही उभरे हैं. उनकी कोई ख़ास पहचान नहीं है.’
इन पत्रकार ने आगे जोड़ा कि इन दिनों ‘उनका (गोविंद प्रोमानिक) चेहरा सोशल मीडिया पर इसलिए दिखाई दे रहा है क्योंकि कंटेंट क्रिएटर (उनके जरिये) व्यूज हासिल कर लेना चाहते हैं.’
गौरतलब है कि गोविंद प्रोमानिक भारतीय सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स के बीच काफ़ी लोकप्रिय हो गये हैं. भारतीय इन्फ्लुएंसर्स को दिए उनके साक्षात्कार बहुप्रचारित हो रहे हैं.
यह समूचा घटनाक्रम अगर बांग्लादेश के जटिल राजनीतिक समीकरणों का संकेत देता है, तो यह भी बताता है कि इस दरार के बीच वे अल्पसंख्यक जो हमलों पर मुखर होकर बयान दे रहे हैं, देश की राजनीति में अलग-थलग पड़ गए हैं, ख़ासकर जब अंतरिम सरकार भी इस्लामिक कट्टरपंथियों के साथ खड़ी दिखाई दे रही है.
28 अगस्त (बुधवार) को डॉ. मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार ने जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश, उसकी छात्र शाखा इस्लामी छात्र शिबिर और जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश से संबद्ध सभी संगठनों पर से प्रतिबंध हटा दिया .
जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश की स्थापना 26 अगस्त, 1941 को लाहौर में हुई थी. साल 2013 में हाईकोर्ट (बांग्लादेश) के न्यायाधीशों ने पाया था कि पार्टी का चार्टर बांग्लादेश के धर्मनिरपेक्ष संविधान का उल्लंघन करता है. अदालत ने पार्टी के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया था.
विभाजित राजनीति का आईना: क्रांतिकारी दासगुप्ता
पेशे से वकील राणा दासगुप्ता बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई में स्वतंत्रता सेनानी रह चुके हैं, आज़ादी के बाद कुछ समय के लिए पत्रकारिता कर चुके हैं. वह मानवाधिकार मसलों पर निरंतर लिखते-बोलते रहते हैं. आप उनके जीवन के आईने से बांग्लादेश की अल्पसंख्यक राजनीति को समझ सकते हैं.
भारत-पाकिस्तान विभाजन से दो वर्ष बाद जन्म लेने वाले द वायर हिंदी से बातचीत में राणा दासगुप्ता ने बताया, ‘मेरा जन्म 27 नवंबर, 1949 को चटगांव शहर में हुआ था. मैं ‘बंगाल की पहली महिला शहीद’ प्रीतिलता वादेदार दासगुप्ता के परिवार से ताल्लुक रखता हूं, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए अपना बलिदान (1932) दिया था.’
सूर्य सेन के नेतृत्व वाले क्रांतिकारी समूह इंडियन रिवोल्यूशनरी आर्मी की सदस्य रहीं प्रीतिलता वादेदार दासगुप्ता, राणा दासगुप्ता के दादा की बहन थीं.
भारत सरकार के आधिकारिक दस्तावेज़ों के मुताबिक़, ‘साल 1932 में, उन्होंने पहाड़तली यूरोपीयन क्लब (यूरोपीय लोगों के लिए एक सामाजिक क्लब) पर हमला करने का फैसला किया. क्रांतिकारियों ने इस क्लब को इसकी नस्लीय और भेदभावपूर्ण प्रथाओं के लिए चुना था. इसके सूचना-पट्ट पर लिखा था- कुत्तों और भारतीयों को (अंदर आने की) अनुमति नहीं है.’
21 वर्षीय प्रीतिलता वादेदार दासगुप्ता ने अपने सात-आठ साथियों के साथ इस क्लब पर धावा बोला. भीषण गोलीबारी के दौरान एक गोली उनके पैर में लग गई. लेकिन उन्होंने अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण करने बजाय सायनाइड की गोली खाकर जान देने का रास्ता चुना.
राणा दासगुप्ता के माता-पिता ने विभाजन के दौरान बांग्लादेश में रहना चुना था. अपनी पूर्वज प्रीतिलता वादेदार दासगुप्ता की तरह राणा दासगुप्ता भी आगे चलकर बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए. वह 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में सेक्टर कमांडरों में से एक थे. इसके बाद वह इसी मुक्ति आंदोलन के दौरान हुए नरसंहार और अत्याचार के आरोपियों की जांच को लेकर इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट में चले मुक़दमे में अभियोजक भी थे.
‘कॉलेज के दौरान मैं बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम से जुड़ गया था… कानून की डिग्री हासिल करने के बाद, मैं चटगांव अदालत में प्रैक्टिस करने लगा. 1977 से आज तक वकालत के पेशे में ही हूं.’
स्कूल में भारत का एजेंट कहते थे सहपाठी
क्रांतिकारी परिवार से आये राणा दासगुप्ता जब स्कूल में थे, तब कुछ छात्र उन्हें और उनके परिवार को भारत का एजेंट समझते थे. इस संदेह में राणा दासगुप्ता के पिता को गिरफ्तार भी किया गया था.
द स्क्रॉल को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया है कि साल 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान उनके पिता को गिरफ़्तार किया गया था. उस समय वे चायपत्ती बनाने वाली कंपनी में काम करते थे. उन्हें इसलिए गिरफ़्तार किया गया क्योंकि वे हिंदू थे और उन पर भारत का एजेंट होने का संदेह था.
कई बार जा चुके हैं जेल
राणा दासगुप्ता की जेल यात्राएं छात्र जीवन में ही शुरू हो गई थीं. वायर से बातचीत में उन्होंने बताया कि उन्हें पाकिस्तान की अय्यूब खान सरकार और याह्या ख़ान सरकार, दोनों ने जेल में डाला. पहली बार वह 1962 में कुछ दिन के लिए जेल में गए. तब अविभाजित पाकिस्तान की कमान अय्यूब खान के हाथों में थी. राणा दासगुप्ता की गिरफ़्तारी अय्यूब खान के खिलाफ़ आंदोलन में भाग लेने की वजह से हुई थी.
दूसरी बार 1968 में उन्हें घर से गिरफ्तार कर लिया गया था. कई महीने क़ैद में कटे थे. द स्क्रॉल को दिए इंटरव्यू में वह गिरफ़्तारी के एक तीसरे प्रयास के बारे में भी बताते हैं, जो पुलिस ने 1977 में किया था. हालांकि, घर पर पुलिस का छापा पड़ने से पहले ही वह फ़रार हो चुके थे.
बांग्लादेश के निर्माण के बाद भी राणा दासगुप्ता को सरकारी दमन का सामना करना पड़ा. खालिदा जिया के शासन में, 2001 से 2006 के बीच उनके खिलाफ दो मामले दर्ज किए गए थे- एक आतंकवाद विरोधी अधिनियम के तहत और दूसरा राज्य विरोधी गतिविधियों के लिए.
बांग्लादेश हिंदू बुद्धिस्ट क्रिश्चियन यूनिटी काउंसिल
द वायर हिंदी को अपने संगठन की जानकारी देते हुए राणा दासगुप्ता ने कहा, ‘यह बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों का संयुक्त मंच है. संगठन की स्थापना इस्लाम को बांग्लादेश का राष्ट्रीय धर्म बनाने के बाद, 20 मई, 1988 को सेवानिवृत्त मेजर जनरल सीएफ दत्ता बिरुटोंग ने की थी, जो हमारे मुक्ति संग्राम के सेक्टर कमांडरों में से एक थे. संगठन का उद्देश्य धर्म के आधार पर होने वाले सभी तरह के भेदभाव को खत्म करना और समानता, निष्पक्षता और सामाजिक न्याय के लिए लड़ना है, जो स्वतंत्रता की घोषणा में निहित था. मूल रूप से यह एक मानवाधिकार संगठन है.’
आज राणा दासगुप्ता की आशंका है कि अगर आने वाले समय में हिंदुओं के भीतर असुरक्षा की भावना और अधिक बढ़ती है, तो अगले दो दशक में मुल्क में एक भी हिंदू नागरिक नहीं बचेगा.