यामिनी कृष्णमूर्ति: लय-लालित्य-लावण्य की त्रिमूर्ति

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यामिनी कृष्णमूर्ति देह और नृत्य की ज्यामिति को बहुत संतुलित ढंग और अचूक संयम से व्यक्त व अन्वेषित करती थीं. नर्तकी और नृत्य इस क़दर तदात्म हो जाते थे कि उनको अलगाकर देखना या सराहना संभव नहीं होता था.

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यामिनी कृष्णमूर्ति. ( (फोटो साभार: फेसबुक)

मुक्तिबोध सागर विश्वविद्यालय की कोर्ट की वार्षिक बैठक में आते थे. 1959 में भी वे आए थे और हमारी संस्था ‘रचना’ में उन्होंने ‘नई कविता का आत्मसंघर्ष’ शीर्षक निबंध पढ़ा था. हमारे आग्रह पर वह एक दिन अतकारा रुक गए थे. ठण्डा बदराया दिन था और उन्होंने अपनी एक लंबी कविता का शायद पहला प्रारूप सुनना शुरू किया. यह उनकी बाद में क्लासिक मानी गई कविता ‘अंधेरे में’ थी. कविता लंबी थी पर हम चार-पांच युवा कवि मंत्रमुग्ध सुन रहे थे. इतनी लंबी और कई अर्थों में अप्रत्याशित कविता सुनने का हमारा पहला अनुभव था. मुक्तिबोध रुके और बोले ‘पार्टनर, कुछ बोर लग रही है तो अब बंद करते हैं. चलिए चाय पीने चलते हैं.’ हम लोगों के इसरार पर उन्होंने बाक़ी अंश सुनाया.

यह बात हिंदी जगत जानता है कि अज्ञेय मुझसे लगभग अठारह वर्ष इस क़दर नाराज़ रहे कि भोपाल में सांस्कृतिक उत्कर्ष के दिनों में वे हमारे किसी आयोजन में नहीं आते थे. अंततः अपने जीवन के बिल्कुल अंतिम महीनों में वे आए. ‘कविभारती’ में भारत भवन में उन्हें कविता पाठ करना था. उन्हें आंखों की कुछ तकलीफ़ थी. उनका पाठ अगले दिन शाम को होना था. उसकी पिछली शाम उन्होंने आग्रह किया कि उनका पाठ सुबह के सत्र में रख दिया जाए क्योंकि रात रोशनियों में उन्हें पढ़ना कठिन होगा. हमने परिवर्तन कर दिया और उनके चाहे अनुसार घोषणा भी कर दी. सुबह उन्हें सुनने बहुत सारे श्रोता जुड़े और उस शाम दूसरे कवियों का पाठ फीका पड़ गया- श्रोता बहुत कम आए.

आंखों की कठिनाई शमशेर जी को भी होने लगी थी. उन्हें जब मध्य प्रदेश का कबीर सम्मान मिला और उन पर एक विशद आयोजन भारत भवन में हुआ तो शमशेर जी ने ख़ासी चकाचौंध करने वाली रोशनी में कविताएं पढ़ीं. उसी समय उनकी कविताओं का एक चयन ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ का प्रकाशन भी हुआ. शमशेर जी ने, कठिनाई से पढ़ पाते हुए भी, अपनी कविताएं अपनी हमेशा की तरह स्पष्ट पर कांपती हुई आवाज़ में पाठ किया.

भारत भवन में ‘वागर्थ’ नाम से आयोजित विश्व कविता समारोह को हुए अब 35 वर्ष हो गए. उसमें 27 विदेशी कवि आए थे. उनमें से एक थे हंगारी के फेरेंस युहाश. उनकी एक लंबी कविता का बहुत सुंदर अनुवाद रघुवीर सहाय ने किया था जो उन्होंने पढ़ा भी. अपना सत्र शुरू होने के पहले फेरेंस ने सहज भाव से यह बताया कि भारत रवाना होने के कुल चार दिनों पहले उनकी मां का देहावसान हो गया. यह भी उतनी सहजता से बताया कि उनकी मां पड़ोस के लोगों के कपड़े धोती थीं यानी धोबिन थीं. कविता प्रायः सारे संसार में हर जगह बहुत कठिनाइयों और अड़चनों में, अभावों में लिखी जाती थी. बहुत साधारण स्थिति में पले-बढ़े लोग बड़ी कविता लिखते हैं, लिख पाते हैं. यह रहस्य और आश्चर्य दोनों का विषय है.

लय-लालित्य-लावण्य

1960-61 में कभी दिल्ली के सप्रू हाउस के सभागार में मैंने उस समय भारतनाट्यम और कुचिपुड़ी के शीर्ष पर, इतनी कम वय में पहुंच चुकी, यामिनी कृष्णमूर्ति को पहली बार नाचते देखा था. उनकी उपस्थिति अदम्य थी, लगभग दबंग. जैसे कि वह दृश्य पर सब कुछ को रौंद देगीं, सिर्फ़ वही रहेंगी- अद्वितीय, अकेली, लय-लालित्य-लावण्य की त्रिमूर्ति.

यामिनी की ऊर्जा और स्फूर्ति असाधारण और असमाप्य थी: वह उनकी किसी भी प्रस्तुति में, भले उसकी अवधि दो घंटे से भी अधिक की क्यों न हो, सारे समय सक्रिय रहती थीं. ऊर्जा और उनका प्रभाव अजस्र होता था. वे पृथ्वी के जिस टुकड़े पर नाचती थीं वह मानो सारी पृथ्वी को आयत्त करने जैसा हो जाता था.

यामिनी अपनी देह और नृत्य की ज्यामिति को बहुत संतुलित ढंग और अचूक संयम से व्यक्त व अन्वेषित करती थीं. उसमें श्रृंगार का निष्कलंक सौंदर्य प्रगट होता था- उसकी शक्ति और व्याप्ति भी. नर्तकी और नृत्य इस क़दर तदात्म हो जाते थे कि उनको अलगाकर देखना या सराहना संभव नहीं होता था. याद करें अंगेज़ी कवि यीट्स ने कहा था: ‘हाऊ कैन वी नो द डांसर फ्रॉम द डांस?’ यामिनी नृत्य के वैभव और ऐन्द्रियता का लगभग पर्याय बन जाती थीं. उनकी नाचती देह मुक्त भी लगती थी, संयमित भी. उसमें ऐश्वर्य था, उत्कट विपुलता थी पर कोई अतिरेक नहीं, कोई फिजूलखर्ची नहीं. कुछ कहो, बहुत-सा उकसाओ. कुछ याद करो, बहुत सारे को याद करने की उत्कंठा जगाओ.

अगर यामिनी ने भरतनाट्यम को नई ऊंचाई दी, उसकी अंतर्मूत ऐन्द्रियता को किसी भक्ति या अध्यात्म में विलीन होने बचाया तो कुचिपुड़ी जैसी उस समय अल्पज्ञात शैली को उन्होंने लगभग राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित किया. हालांकि उस समय प्रकाश-व्यवस्था आज जैसी सूक्ष्म और सक्षम नहीं थी, पर मैंने कभी यामिनी के चेहरे पर या मंच पर कोई छाया देखी हो ऐसा याद नहीं आता. वे निश्छाय उज्ज्वलता थीं.

बाद में, विशेषतः मध्यप्रदेश में अपने लंबे सांस्कृतिक प्रयत्न के दौरान, उन्हें कई बार भोपाल और अन्य शहरों में आमंत्रित करने का सुयोग हुआ. मैं तब कहा करता था कि अगर दिल्ली-चेन्नई-भोपाल के रसिकों को अधिकार है कि वे श्रेष्ठ नर्तकी यामिनी कृष्णर्मूति का नृत्य देखें तो बैतूल या शहडोल के नागरिकों को यह अधिकार क्यों नहीं है? वे ऐसे अनेक स्थलों पर सहर्ष गईं और वहां जो असुविधाएं हुई होंगी उनकी शिकायत तो दूर, कभी भूले से ज़िक्र तक नहीं किया.

1976 में जब हमने उत्तर भारत में मंदिर और शास्त्रीय नृत्य को कम से कम एक सप्ताह के लिए साथ होने के उद्देश्य से खजुराहो नृत्य समारोह शुरू किया तो पहले ही समारोह में यामिनी थीं. 1982 में भारत भवन के पहले न्यास में कुमार गंधर्व, हबीब तनवीर, मणि कौल के साथ वे भी न्यासी थीं. आयु के कारण देह शिथिल पड़ते ही उन्होंने सार्वजनिक रूप से नाचना बंद करने की समझदारी बरती जबकि इन दिनों अनेक शिथिल गात नृत्यांगनाएं अपना ही विद्रूप नाचकर बनाने में संकोच नहीं करतीं.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)