2 सितंबर. पटना में हूं. आलोचक नंदकिशोर नवल के जन्मदिन के मौक़े पर. उनके शिष्य और मित्र, अभिनेता जावेद अख़्तर ख़ान आज पटना कॉलेज में उनकी स्मृति में शुरू की गई व्याख्यानमाला का चौथा व्याख्यान देंगे. उनकी अनुपस्थिति में यह उनका पांचवां जन्मदिन है. वरना उसके पहले तक वे ख़ुद अपना जन्मदिन मनाया करते थे. अपने कुछ ख़ास साहित्यिक मित्रों के साथ अपने घर पर. उनका घर क्या था, उनके बेटे-बहू चिंतन और सुनीता ने बुद्ध कॉलोनी में एक फ्लैट ले लिया था. यह मोहल्ला पटना के केंद्र के क़रीब है. इनकम टैक्स गोलंबर, वीमेंस कॉलेज, एमएलए क्वार्टर्स के आसपास.
नवलजी से ज़्यादा उनकी पत्नी रागिनी शर्मा के लिए अपने पुराने ठिकाने से उखड़कर यहां आना सदमे से कम न था. मुझे लगता रहा कि दोनों को ही इस विस्थापन ने कहीं गहरे विचलित कर दिया था. आख़िर नवलजी 1950 के दशक से यानी विद्यार्थी जीवन से पटना विश्वविद्यालय के आसपास ही रहते आए थे. गंगा से पुकार का जवाब देने तक की दूरी पर. पहले हॉस्टल में, फिर रानीघाट और दशकों वहां गुज़ारने के बाद गुलबी घाट, फिर घाघा घाट के पास मकान बदलते हुए.
परिचय के बाद रानीघाटवाले उनके मकान में हमारा आना-जाना शुरू हुआ था. यहीं हमने नागार्जुन, त्रिलोचन, अमृतलाल नागर, नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, सबको अड्डा लगाते और रागिनी शर्मा के हाथ का ख़ाना खाते देखा है. उनकी पतली, तंग बैठक में. इसी मकान में हम नौजवानों की मंडली जमती थी. इप्टा, एआईएसएफ के नौजवानों की. ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी आया ही आया था. दरवाज़े वाला. और इसी में हमने ‘हमलोग’, ‘बुनियाद’, ‘नुक्कड़’, ‘भारत की खोज’ जैसे सीरियल देखे. शाम दर शाम.
अब सोचकर कुछ संकोच होता है कि हम सब आगा-पीछा सोचे बिना शाम से वहां जम जाते थे. चाय पीते जाते थे और रागिनीजी से कमरे में लगे टीवी के सामने कुर्सियों पर घंटों जमे रहते थे. पीछे की बात नहीं जानते, सामने हमने कभी उनकी पेशानी पर बल पड़ते नहीं देखा. हां! आज किसी को ‘भारत की छाप’ टीवी सीरियल की याद न होगी. वह भी हमने देखा. और ‘तमस’ भी.
नवलजी का कमरा ऊपर की मंज़िल पर था. किताबें, उनकी नोटबुक. गर्मियों में उससे लगी छत पर ही उनकी मसहरी लगा करती थी. ठीक जमाया हुआ टेबल फैन कि हवा जाली पार कर उनको ठंडक पहुंचा सके. एक छोटा तौलिया.
आज जब नवलजी की किताबों की संख्या देखता हूं तो हैरानी होती है कि वे लिखी कब गईं. क्योंकि अड्डा लगाने में, सैर करने में, विभाग में क्लास के बाद अपने सहकर्मियों से गप लड़ाने में कभी उन्होंने कटौती की हो, याद नहीं. वे ख़ासे गोष्ठीबाज़ थे. प्रगतिशील लेखक संघ की जान कितनी गोष्ठियां उन्होंने आयोजित कीं. उनकी योजना बनाना, निमंत्रण पत्र छपाना और गोष्ठी के पहले पहुंचकर मेज़पोश के किनारे सीधे करना, बैनर को क़ायदे से लगाना, किसी ब्योरे को वे कभी नहीं चूकते थे. उनके रहते कोई बैनर तिरछा नहीं लग सकता था, न उस पर शिकन वे बर्दाश्त करते थे.
किसी को उन्होंने यह न कहा होगा कि मेरे पास आपके लिए वक्त नहीं, अभी लिखने में व्यस्त हूं. शायद ही कभी किसी को वक्त देने में कोताही की हो. नए से नए लेखक के लिए उनके पास समय था. और पूरे भारत में ऐसे लेखक कई पीढ़ियों में होंगे जिनके पास उनके लिखे पोस्टकार्ड हैं उनकी रचना पर प्रतिक्रिया के या उनके ख़तों के जवाब के. उनकी टेबल पर पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय पत्र और डाक टिकट ज़रूर रहा करते थे. किताब लिखने के लिए कोई ‘सबैटिकल’ उन्होंने लिया नहीं.
नवलजी उस दौर के अध्यापक थे जब लिखना कोई अलग काम नहीं हुआ करता था. लिखने के लिए कोई अनुदान भी लेने का रिवाज न था. लेकिन जो लिखा गया, उसे देखकर जाना जा सकता है कि उसमें समय का पर्याप्त निवेश है. और श्रम का भी. हालांकि लिखे की देह पर उस श्रम का कोई चिह्न नहीं. लेख या किताब लिखने की उनकी तैयारी में अधूरापन उनके जानते नहीं होता. विषय के इर्द गिर्द के सारे संदर्भ जुटाए जाते और जमकर नोट्स लिए जाते. अगर उसके लिए किसी दूसरे विषय के विशेषज्ञ की ज़रूरत हो तो नवलजी ज़रूर उनके सामने अपनी समस्या रखते. संस्कृत, उर्दू, फारसी, अंग्रेज़ी, इतिहास, भूगोल, विज्ञान, मनोविज्ञान: मैंने हरेक के अध्यापक या विद्वान से किसी न किसी मौक़े पर उन्हें मिलते देखा है अपनी शंका के निवारण के लिए.
स्मरण शक्ति उनकी विलक्षण थी. वे उस दौर के छात्र थे जब कंठस्थ करना और शिक्षा ग्रहण करना तक़रीबन समानार्थी था. लेकिन लिखते वक्त कभी स्मृति के सहारे वे नहीं रहे. उद्धरण देते वक्त एक एक शब्द मूल से मिलाया जाना और जहां तक मुमकिन हो, पहले संस्करण से मिलान करना अनिवार्य था. याददाश्त से बड़ी धोखेबाज़ मित्र कोई नहीं, वे बराबर सावधान करते थे.
लेखक पत्रिका निकाले बिना पूरा लेखक नहीं होता. इसलिए ‘ध्वजभंग’,’सिर्फ़’, ’धरातल’, ‘उत्तरशती’ से होते हुए अंत में ‘कसौटी’ पत्रिकाएं नवलजी ने निकालीं और संपादित कीं. कई वर्षों तक ‘आलोचना’ का संपादन किया. और इसमें भी कभी कामचलाऊपन की जगह न थी. रचनाओं का संपादन, कई बार तक़रीबन पुनर्लेखन. हिंदी के कई मान्य लेखकों की रचनाओं को दुरुस्त करके उन्होंने छापा. जो लेख आते थे, उनमें दिए उद्धरणों को भी वे मूल से ज़रूर मिलाया करते थे. कभी कभी हमें झुंझलाहट होती थी, लेकिन इस मामले में उन्हें ढील देते कभी नहीं देखा.
प्रूफ देखना लिखने का अंग है, नवलजी हमेशा कहा करते थे. अपनी किताबों के आख़िरी प्रूफ वे सावधानी से देखते थे. और पत्रिकाओं के भी. इसलिए नवलजी की किताबों और उनके द्वारा संपादित पत्रिकाओं में छापे की भूल खोजे ही मिलती है. जैसे गेहुंअन सांप का काटा, वैसे ही छापेखाने का काटा कभी पानी नहीं मांगता, वे पटना कॉलेज के सामने वैशाली प्रेस में जाते हुए कहा करते थे. गेली से लेकर मशीन प्रूफ तक अक्षर-अक्षर देखना अनिवार्य था. उनकी इस लगन के चलते ही मशीन पर चढ़े फ़र्मे को भी प्रेसवाले उतारकर प्रूफ दुरुस्त करते थे.
हमने उनसे सीखा कि चिमटी से एक-एक लेड उठाने वाले कंपोज़िटर की पूरी इज्जत करते हुए भी उस पर भरोसा नहीं करना है. प्रकाशन गृहों में जो प्रूफ देखते हैं, उनपर तो क़तई ख़ुद को छोड़ना नहीं चाहिए. वे निराला और दिनकर तक को ठीक कर देते हैं, आपकी क्या बिसात! नवलजी के साथ हमने प्रूफ के संकेत-चिह्न समझे. अब तो न कंपोजिटर उन्हें समझते हैं, न प्रूफ रीडर. फिर भी छपी हुई प्रति आने पर कहीं न कहीं भूल पहली नज़र में ही दिख जाती थी. इसे डिठौना मानिए, कहकर तसल्ली वे देते थे.
लेखकों को खोजना, नए और प्रतिभाशाली लेखक मिल जाने पर उन्हें उत्साहित करते रहना, यह नवलजी का स्वभाव था. जिनमें कुछ भी संभावना है उन्हें धकेलते रहना कि वे लिखें. जब तक वह पूरी तरह निराश न कर दे जो कि वे किसी के मामले में कभी नहीं हुए.
पूर्ववर्ती लेखकों के प्रति ज़िम्मेदारी के उनके एहसास का सबूत है उनके द्वारा संपादित रचनावलियां या संग्रह. मैंने निराला रचनावली का संपादन देखा है. हरेक रचना को बारीकी से देखना, किताबों के पहले संस्करण की खोज में इलाहाबाद, बनारस, दिल्ली, कलकत्ता तक अपने भाई भारत भारद्वाज या अन्य मित्रों को बेरहमी से जोतना और एक एक रचना की प्रामाणिकता की बारीकी से जांच करना. निराला की दी हुई तिथियों में विसंगति को ठीक करने के लिए ज्योतिषियों से मिलकर निराला के समय का पंचाग निकलवाना. निराला के पत्रों के लिए रामविलास शर्मा हों या जानकीवल्लभ शास्त्री, सबको धीरज से मनाना.
रचनावलियों के मामले में ‘निराला रचनावली’ मानक है, यह निःसंकोच कहा जा सकता है. अफ़सोस कि हिंदी में उसके बाद दर्जनों रचावलियां निकलीं, लेकिन उनके संपादकों ने उससे सीखा नहीं. अगर आप ‘मुक्तिबोध रचनावली’ का अपवाद छोड़ दें.
नवलजी कविता के आलोचक थे, हालांकि कथा साहित्य पर भी उन्होंने लिखा है. उनकी रुचि का रेंज बड़ा है: तुलसीदास से लेकर राकेश रंजन तक. रुचियां उनकी जड़ नहीं रहीं. मुक्तिबोध पर उन्होंने विशद लिखा, लेकिन अज्ञेय पर भी. वे रामधारी सिंह दिनकर का महत्त्व भी जानते थे और नरेंद्र शर्मा का भी. इसीलिए उन्होंने ‘उत्तर छायावाद’ पर गोष्ठियां आयोजित कीं और युवा लेखकों से बच्चन, सुमन, नरेंद्र शर्मा आदि पर लिखवाया. ख़ुद रामगोपाल शर्मा रुद्र पर पूरी किताब लिखी. अपनी रुचि की सीमा को स्वीकार करने में और ख़ुद को संशोधित करने में उन्हें हिचक न हुई. यह सिर्फ़ अज्ञेय पर उनकी किताब से नहीं, धूमिल पर लिखे उनके पहले और बाद के लेखों की तुलना से भी जाना जा सकता है.
नवलजी लंबे अरसे तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे. वहां भी कार्यकर्ता की तरह चंदा करने से लेकर चुनाव में वोटर स्लिप बनाना और बूथ की ड्यूटी करना, किसी में उनकी प्रोफेसरशिप आड़े नहीं आई. किसी से बहस में उनका लेखक या अध्यापकवाला ओहदा भी बाधा नहीं बना. पसंद और नापसंद सख़्त थी. नाराज़ होने पर उन्होंने एकाधिक से अनबोला किया है.
सभा, गोष्ठी, राजनीति सब करते हुए नवलजी प्रथमतः और अंततः साहित्य की दुनिया के वासी थे. वही उनका ओढ़ना-बिछौना था. हमारी दूसरी दिलचस्पियों को अस्वीकार न करते हुए भी वे कहते थे कि आप किसी के क़रीब जाने पर उसकी गंध से जान सकते हैं कि वह साहित्य का आदमी है या नहीं. आज उनको याद करते हुए साहित्य की इस गंध को ज़रूर महसूस कर सकता हूं.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)