बांग्लादेश: ‘दूसरी आज़ादी’ का कट्टर और धर्मांध सवेरा?

तख्तापलट के बाद मुहम्मद यूनुस ने कहा था कि बांग्लादेश को दूसरी आज़ादी मिली है, लेकिन इसके असल लाभार्थी तमाम कट्टरपंथी संगठन बन रहे हैं.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

नई दिल्लीः राजनीतिक अस्थिरता से गुजर रहा बांग्लादेश अब धार्मिक कट्टरता की चपेट में भी आ रहा है. शेख हसीना के नेतृत्व वाली अवामी सरकार के पतन के बाद सिर्फ राजनीतिक हमलों का सिलसिला नहीं शुरू हुआ है. चपेट में वो लोग भी आ रहे हैं, जो धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के साथ जीवन बता रहे थे. मसलन, ढाका विश्वविद्यालय में कला संकाय के डीन प्रोफेसर अब्दुल बशीर. 

19 अगस्त को प्रोफेसर अब्दुल बशीर को छात्रों द्वारा इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया. छात्रों का आरोप था कि उन्होंने रमजान के दौरान विश्वविद्यालय में कुरान नहीं पढ़ने दी थी और अरबी विभाग के अध्यक्ष को कारण बताओ नोटिस जारी किया था.

छात्रों ने न सिर्फ प्रोफेसर का जबरदस्ती इस्तीफा लिया, बल्कि उनके सामने ही कुरान पढ़ी और इस पूरे घटनाक्रम की वीडियो रिकॉर्डिंग सोशल मीडिया पर भी डाला. 

मुस्लिम शिक्षकों को धर्मनिरपेक्ष या अवामी लीग का करीबी होने की वजह से खामियाजा भुगतना पड़ रहा है, वहीं अल्पसंख्यकों को भी निशाने पर लिया जा रहा है. ‘बांग्लादेश हिंदू बुद्धिस्ट क्रिश्चियन यूनिटी काउंसिल’ की छात्र शाखा के अनुसार, अब तक देश भर में गैर मुस्लिम 49 शिक्षकों को मजबूरन इस्तीफा देना पड़ा है. 

दूसरी आज़ादी में घुटता लोकतंत्र

आरक्षण को लेकर शुरू हुए छात्र आंदोलन ने जब शेख हसीना को सत्ता से उखाड़ फेंका और अंतरिम सरकार की कमान नोबेल विजेता मुहम्मद यूनुस को सौंप दी, तो उन्होंने कहा– बांग्लादेश को दूसरी आज़ादी मिली है. 

लेकिन ‘दूसरी आज़ादी’ के असल लाभार्थी तमाम कट्टरपंथी संगठन बन रहे हैं. मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने 28 अगस्त को जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश, उसकी छात्र शाखा इस्लामी छात्र शिबिर और जमात-ए-इस्लामी से संबंधित सभी संगठनों से प्रतिबंध हटा दिया. 

जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश की स्थापना 26 अगस्त, 1941 को लाहौर में हुई थी. साल 2013 में हाईकोर्ट (बांग्लादेश) के न्यायाधीशों ने पाया था कि पार्टी का चार्टर बांग्लादेश के धर्मनिरपेक्ष संविधान का उल्लंघन करता है. अदालत ने पार्टी के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया था.

मामला सिर्फ जमात तक सीमित नहीं है. वर्तमान अस्थिरता के बीच बांग्लादेश एक और चुनौती का सामना कर रहा है, जिसका नाम है हिज्ब उत तहरीर. इस्लामिक स्टेटस (आईएस) से प्रेरित इस कट्टरपंथी संगठन का प्रभाव तेज़ी से बढ़ रहा है.

9 अगस्त को प्रतिबंधित हिज्ब उत तहरीर के समर्थकों ने ढाका में एक रैली आयोजित की. उनकी मांग है कि शरिया कानून के आधार पर बांग्लादेश में खलीफा की स्थापना हो. साथ ही विदेशी कंपनियों को देश से बाहर निकालने और गैर-मुस्लिम राज्यों के साथ रणनीतिक समझौतों को रद्द करने का भी आह्वान किया. 

दरअसल, यह संगठन बांग्लादेश ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में शरिया लागू करने की इच्छा रखता है. संगठन की इसी विचारधारा के कारण अक्टूबर 2009 में बांग्लादेश में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. हिज्ब उत तहरीर पर अरब देशों के भी कई देशों ने प्रतिबंधित लगा रखा है. लेकिन आज इसके समर्थकों का हौसला बुलंद है. वे ढाका समेत अनेक जगहों पर रैली निकाल रहे हैं.

आतंकियों को मिल रही आज़ादी

प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन अंसारुल्लाह बांग्ला टीम के प्रमुख मुफ्ती जशीमुद्दीन रहमानी को 26 अगस्त की सुबह गाजीपुर के काशिमपुर जेल से जमानत पर रिहा कर दिया गया. रहमानी को राजीब नाम के एक ब्लॉगर की हत्या के मामले में साल 2013 में सजा सुनाई गई थी. राजीब उस समय धर्मनिरपेक्ष लेखकों और ब्लॉगरों पर घातक हमलों की श्रृंखला के पहले शिकार थे. 

ब्रिगेडियर जनरल अब्दुल्लाहिल अमान आज़मी को अंतरिम सरकार द्वारा देश की बागडोर संभालने के पहले ही रिहा कर दिया गया था. उनके कथित तौर पर पाकिस्तान की एजेंसी आईएसआई के साथ घनिष्ठ संबंध हैं. आज़मी पूर्व जमात-ए-इस्लामी प्रमुख, गुलाम आज़म के बेटे हैं, जिसने साल 1971 में मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सेना के साथ सहयोग किया था. 

आज़म ने साल 2000 तक जमात-ए-इस्लामी बांग्लादेश का नेतृत्व किया, बाद में उन पर युद्ध अपराधों के लिए मुकदमा चलाया गया. आजम पर स्वतंत्रता आंदोलन का विरोध करने और पाकिस्तानी सेना के लिए अर्धसैनिक समूह बनाने का आरोप लगाया गया था. आजम ने एक बार यहां तक ​​कहा था कि बांग्लादेश की आज़ादी का आंदोलन भारत द्वारा रची गई एक साजिश थी.

म्यूजियम और मूर्तियों को लगातार पहुंचाया जा रहा है नुकसान

5 अगस्त को अवामी लीग सरकार के पतन के बाद से ही पूरे देश में कई मूर्तियां तोड़ी गई हैं. नष्ट की गई मूर्तियों में से ज़्यादातर बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान की थीं और 1971 के मुक्ति संग्राम की याद में बनाई गई थीं.

इसके अलावा ऐसी मूर्तियों को भी नुकसान पहुंचाया जा रहा है, जो आतंकवाद के खिलाफ लड़ते हुए जान गंवाने वाले सिपाहियों की याद में निर्मित हुई थीं. मसलन, 2016 के एक आतंकवादी हमले में शहीद हुए पुलिस अधिकारियों की याद में बनाई गई ‘दीपतो शोपोथ’ मूर्ति को 29 अगस्त को ध्वस्त कर दिया गय, और उसकी जगह हिज्ब उत-तहरीर का पोस्टर लगा दिया गया. 

1 जुलाई 2016 को इस्लामी आतंकवादियों के एक समूह ने ढाका की गुलशन स्थित होली आर्टिसन बेकरी पर हमला किया था, जिसमें 18 विदेशी नागरिक समेत 20 लोग मारे गए थे.  इस हमले में दो पुलिस अधिकारी भी मारे गए थे. 

देश के संग्रहालयों को भी लगातार नुकसान पहुंचाया जा रहा है. हालत इतनी खराब है कि इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ म्यूजियम ने चिंता व्यक्त करते हुए बांग्लादेश के लोगों से अपने अमूल्य संग्रहालयों को बचाने का अनुरोध किया है.

इस संगठन ने अपने बयान में कहा है ‘बंगबंधु मेमोरियल संग्रहालय, नरसंहार संग्रहालय, शशि लॉज और विभिन्न विरासतें आगजनी और व्यापक बर्बरता से नष्ट हो रही हैं.’

जाकिर नाईक के पीस टीवी का प्रसारण फिर शुरू होने वाला है

इसी बीच, कट्टरपंथी उपदेशक डॉ. जाकिर नाइक ने यह घोषणा की है कि उनके टीवी चैनल- पीस टीवी बांग्ला का प्रसारण जल्द ही बांग्लादेश में फिर से शुरू होने वाला है. बांग्लादेश और भारत में पीस टीवी के प्रसारण को केबल ऑपरेटरों द्वारा बंद कर दिया गया था. 

उन्होंने बताया कि केबल प्रसारण फिर से शुरू करने के प्रयास चल रहे हैं और अगर बांग्लादेश की अंतरिम सरकार अनुमति दे देती है, तो चैनल फिर से प्रसारित हो सकता है. 

ध्यान रहे जुलाई 2016 में ढाका में होली आर्टिसन बेकरी पर हुए हमले के बाद यह आरोप लगाया गया था कि हमलावरों में से एक ज़ाकिर नाइक से प्रेरित था, जिसके कारण पीस टीवी के प्रसारण को बांग्लादेश में रोक दिया गया था.

 नेताओं, जजों और पत्रकारों पर हत्या के मुकदमे

शेख हसीना सरकार के पतन के बाद से पत्रकारों के खिलाफ कई मामले दर्ज किए गए हैं.  29 अगस्त को एक बांग्लादेशी वकील ने मानवता के खिलाफ अपराध और नरसंहार के आरोप में हसीना और 27 प्रमुख पत्रकारों सहित 52 लोगों के खिलाफ इंटरनेशनल क्रिमिनल ट्रिब्यूनल में मामला दर्ज कराया है.

पत्रकारों में मोजम्मेल बाबू, नबनिता चौधरी, सुभाष सिंह रॉय, अहमद जोबैर, तुषार अब्दुल्ला अजय दास, तथा अन्य शामिल हैं. वकील द्वारा दर्ज शिकायत में आरोप लगाया गया है कि आरोपी छात्र आंदोलन के दौरान मानवता के खिलाफ अपराध और नरसंहार में शामिल थे. इससे पहले एक पत्रकार दंपत्ति शकील अहमद और फरजाना रूपा पर प्रदर्शनकारियों की हत्या का आरोप लगाया गया था और वे फिलहाल जेल में हैं.

पत्रकारों की गिरफ़्तारी पर पेरिस स्थित रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने शुक्रवार (30 अगस्त) को जारी एक बयान में कहा, ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) उनकी तत्काल रिहाई और इन बेबुनियाद आरोपों को वापस लेने की मांग करता है. पत्रकारों का यह व्यवस्थित न्यायिक उत्पीड़न बंद होना चाहिए.’ 

शिक्षकों को किया जा रहा है प्रताड़ित 

5 अगस्त को बांग्लादेश में अवामी लीग सरकार गिरने के बाद से विभिन्न विश्वविद्यालयों में वीसी, प्रो-वीसी सहित प्रशासनिक कामों में लगे शिक्षकों ने एक-एक कर इस्तीफा देना शुरू कर दिया था. इसी बीच विभिन्न विश्वविद्यालयों से खबरें आने लगीं कि कुछ शिक्षकों को परेशान किया जा रहा है तथा उन्हें इस्तीफ़े के लिए मजबूर किया जा रहा है. 

बीबीसी बांग्ला को दिए गए साक्षात्कार में कुछ शिक्षकों ने अपनी आपबीती सुनाई है. 

एक शिक्षक ने बीबीसी को बताया कि उपद्रवियों के डर से उन्होंने कार्यालय जाना बंद कर दिया था. लेकिन एक दिन उपद्रवियों का झुंड उनके घर की ओर आने लगा, जिसके बाद शिक्षक को परिवार समेत अपना घर छोड़कर भागना पड़ा. वह कहते हैं कि इस हादसे के बाद से उनका परिवार सदमे में है. 

शिक्षक ने बताया कि वह अवामी लीग के समर्थक हैं और उन्होंने छात्र आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया था, इसलिए उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है. उन्होंने बीबीसी को बताया कि डर के कारण उन्होंने इस्तीफा दे दिया है. 

लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ, खलीफा शासन की वकालत में निकल रही हैं रैलियां 

बांग्लादेश में नफरती घटनाओं पर नज़र रखने वाली कई सोशल मीडिया एकाउंट्स को खंगालने के बाद यह पता चला कि 5 अगस्त के बाद से देश में आए दिन ऐसी रैलियां निकाली जा रहीं हैं जिसमे लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ, खलीफा शासन की स्थापना के लिए लोगों का समर्थन जुटाने की कोशिश की जा रही है.

इन रैलियों पर कोई रोक टोक नहीं है और प्रशासन इन्हें होने दे रहा है. 

ढाका यूनिवर्सिटी के कैंपस में तालिबान शासन के समर्थन में भी रैलियां निकाली जा रही हैं. 

सूफी दरगाहों पर कट्टरपंथियों का हमला

बदलते राजनीतिक घटनाक्रम के दौरान, बांग्लादेश में सूफी दरगाहों पर हमले की भी घटनाएं सामने आ रहीं हैं. कट्टरपंथियों ने सिलहट, कोमिला और चट्टोग्राम में कई सूफ़ी दरगाहों में तोड़फोड़ की और आग लगा दी. मीडिया कवरेज न मिलने और नागरिक समाज द्वारा निंदा न किए जाने के कारण, ये चरमपंथी अपना उत्पात जारी रखने में कामयाब हो रहे हैं. 

बांग्लादेश में अधिकांश सूफी दरगाह सैकड़ों साल पुराने हैं.

बांग्लादेश वॉच नाम के एक एक्स एकाउंट ने एक वीडियो शेयर किया है जिसमे कुछ लोग एक दरगाह को तोड़ते हुए दिख रहे हैं. 

बांग्लादेश वॉच ने लिखा है, ‘कट्टरपंथियों ने सिराजगंज के काजीपुर में बाबा अली पगला की सूफी दरगाह को नष्ट कर दिया. किसी भी प्रिंट या टीवी  मीडिया ने इसे कवर नहीं किया. कोई पुलिस कार्रवाई भी नहीं की गई. अंतरिम सरकार ने इस घटना की निंदा नहीं की. यह वास्तव में एक ‘नया’ बांग्लादेश है. 

क्या कहते हैं विश्लेषक ?

द वायर हिंदी से बातचीत में एक वरिष्ठ पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि बांग्लादेश में धर्म के आधार पर हमले इसलिए बढ़ रहे हैं क्यूंकि अभी पूरी दुनिया में ऐसा ट्रेंड चल रहा है. 

इसका दूसरा कारण उन्होंने बताया कि अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है, जिसके कारण बांग्लादेश में लोग अन्य धर्मों के लोगों पर बदले की कार्रवाई के रूप में अत्याचार कर रहे हैं. 

‘बांग्लादेश में रहना वहां की अल्पसंख्यक आबादी के सामने बड़ी चुनौती है… जब भी ऐसे राजनीतिक संकट आए हैं, अल्पसंख्यकों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है,’ वह कहते हैं.  

बांग्लादेश के मुसलमानों में बढ़ती कट्टरता पर वह कहते हैं कि बहुत से लोग मिडिल ईस्ट देशों में काम करने जाते हैं और वहां की शासन व्यवस्था, शरिया क़ानून का पालन होने हुए देखते हैं, महिलाओं को पर्दे में देखते हैं, जिसके बाद वह वापस अपने देश लौटकर इन चीज़ों को बढ़ावा देते हैं. राजनीतिक दल अपने वोट बैंक के लिए इन मुद्दों को हवा देते हैं. 

शरिया क़ानून और खलीफा शासन के पक्ष में निकाले जानी वाली रैलियों के बारे में उन्होंने कहा कि इसकी वकालत करने वाले कट्टरपंथी हमेशा मौजूद थे, लेकिन अवामी लीग की सरकार गिरने के बाद ये लोग खु कर इसका समर्थन कर रहे हैं.

उन्होंने जोड़ा कि हालांकि ऐसे लोगों की संख्या देश भर में बहुत कम है, और वो आबादी के बहुत बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं.