बंगनामा: पक्के रास्तों की अहमियत

ग्रामीण विकास के लिए अच्छी सड़क की प्राथमिकता सर्वोपरि है. पर क्या ऐसा हमेशा संभव हो पाता है? बंगनामा स्तंभ की नवीं क़िस्त.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: यूट्यूब)

वर्षा ऋतु की विदाई के दौर में पिछले माह हमने देखा कि पूर्वी राज्यों के अलावा इस बार पश्चिम में गुजरात और राजस्थान में भी कुछ स्थानों पर बाढ़ आई. अहमदाबाद में नाव चल रही थीं और जयपुर में नौकाओं की कमी महसूस की जा रही थी. कई सड़कों पर अस्थाई रूप से यातायात अचल हो गया और रास्ते बंद हो गए. उन तस्वीरों को देख कर मुझे याद आया, जब मुझे पक्के रास्तों की अहमियत समझ में आई थी और वह भी पश्चिम बंगाल के एक छोटे-से गांव में.

ज़िला प्रशिक्षण के एक साल के दौरान प्रशासनिक सेवा के हर प्रशिक्षणार्थी को उन दिनों एक गांव का समाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण करना पड़ता था कि वे जान सकें कि जिस राज्य में वे काम करेंगे, वहां का ग्रामीण जीवन कैसा है, निवासी, किन परिस्थितियों में रहते हैं, उनकी समस्याएं क्या हैं, इत्यादि. मेरे सर्वेक्षण के लिए उत्तर 24 परगना के आमडांगा ब्लॉक में एक ऐसा गांव चुना गया जो पंचायत से न तो नज़दीक था, न ही दूर, परंतु किसी हाट के समीप था. उस गांव का नाम था कांचियारा.

1990 के अगस्त का पहला सप्ताह, बरसात का मौसम. 4 तारीख़ को मैं आमडांगा ब्लॉक दफ़्तर से ब्लॉक व गांव के कुछ बुनियादी आंकड़े बटोरता हुआ, एक लंबी प्रश्नावली से लैस दोपहर बाद कांचियारा पहुंचा. जीप को राष्ट्रमार्ग के किनारे छोड़ कर मैं अकेला गांव के रास्ते पर बढ़ गया. यह गांव का मुख्य मार्ग था जिसे कुछ दिनों पहले ही ‘ग्रामीण श्रमिक रोज़गार गारंटी योजना’ के तहत बनाया गया था. पुराने रास्ते की खुदाई कर, उसमें मिट्टी भरकर ऊपर से दो तह ईंटें बिछाई गई थीं. इस तरह के रास्तों के लिये बिहार और उत्तर प्रदेश में एक ख़ास शब्द प्रयुक्त होता है, पड़ंजा. यानी, वह रास्ता जो पड़ी हुई ईंटों से बनता है. यहां यह भी जोड़ देना चाहिए कि जो रास्ता खड़ी ईंटों से बनता है, उसे खड़ंजा कहते हैं. यह अधिक मज़बूत होता है, लेकिन इसकी निर्माण-राशि कहीं अधिक होती है.

आकाश में बादल घुमड़ रहे थे. सड़क के दोनों तरफ़ कुछ दूर तक मटमैले जल से भरे, हरे-हरे धान के खेत थे. सड़क के किनारे एक जगह दो लड़के बंसी से मछली मारने में जुटे थे. मैं उनसे गप्प करने लगा. उन्होंने बताया कि बरसात के समय अधिक बारिश में पोखरों के प्लावन से ढेरों छोटी मछलियां खेतों और खेत के किनारे बनी चौड़ी नालियों में आ जाती हैं. वहां मेरी मुलाक़ात छोटे क़द परंतु जानकार आंखों वाले निमाई चंद्र दास से हुई. वे वहां के ग्रामसेवक थे और मतदाता नामावली के काम से आए थे. उन्होंने मुझे ज़मीन पर एक टहनी से गांव का मानचित्र रेखांकित कर वहां के विभिन्न पाड़ाओं और उनमें बसने वाले लोगों के बारे में बताया और मुझे अपने साथ गांव दिखाने का प्रस्ताव दिया.

हम लोग बातचीत करते हुए गांव आ गए. गांव के अधिकतर घर मिट्टी और बांस द्वारा निर्मित थे. कभी-कभी मिट्टी और बांस के साथ कुछ ईंटों का भी व्यवहार किया गया था. मकानों की छतें लाल खपरों से बनी थीं जिन्हें शहर में रानिगंज टाइल्ज़ और यहां गांव में ‘टाली’ के नाम से जाना जाता था. ग़रीबों के घरों की छतें फूस या नारियल के सूखे पत्तों से बनी थीं. पक्के मकान बहुत कम दिख रहे थे.

बाद में मैंने पाया कि कांचियारा के कुल 392 मकानों में से मात्र 17 पक्के थे तथा इनमें से सिर्फ़ दो ऐसे थे जिनकी छतें कंक्रीट की थीं. कुछ देर में ही निमाई दास और मैं मुख्य रास्ते को छोड़कर एक कच्चे रास्ते पर उतर गए जिसका वर्षा के कारण बुरा हाल हो गया था. जैसा निमाई दास ने मुझसे बताया, ‘ऐइ ग्रामेर बेशि भाग रास्ता गूलो पांक होय रोयचे. (इस गांव के ज़्यादातर रास्ते कीचड़ बन गए हैं.)’

कांचियारा में पहला परिवार जिससे मैं मिला था, चालीस वर्षीय बैद्यनाथ रिशिदास का था. वे नारियल के लंबे-लंबे पेड़ों से घिरे ईंटों के खंभों और मिट्टी की दीवारों वाले मकान में रहते थे जिसकी छत लाल टाली की थी. घर के पीछे एक छोटा जल-कुंभी भरा पोखर था और सामने की खुली जगह में एक ओर हल रखा था और दूसरी तरफ़ एक बेंच. उन्होंने बेंच खींचकर हमें बिठाया और खुद ज़मीन पर बैठ गए. निताई दास के बारंबार किए गए हस्तक्षेपों और व्याख्याओं के बावजूद मैं उनसे प्रश्नावली के आधार पर बातचीत करने लगा.

बैद्यनाथ किसान थे और तभी खेत से लौटे थे. उनके परिवार में उनकी मां, पत्नी, तीन बेटियां और दो लड़के थे. अपनी दो एकड़ ज़मीन में वह डीज़ल पंपसेट की मदद से तीन फसलें उगा लेते थे. इस घर के चारों ओर ग्यारह नारियल के और चार आम के पेड़ थे. इसके अलावा उनके पास दो बैल, एक गाय और दो बत्तखें भी थीं जिन्हें वो अपने मकान के ही एक कमरे में रखते थे- उस गांव में यही रीति थी और शायद इसी में बुद्धिमानी भी थी.

इस दौरान अपने घर के दरवाज़े के पास खड़ी होकर उनकी पत्नी भी बीच-बीच में, हम लोगों की ओर न देख अपने पति की ओर देखते हुए, अपनी समस्याओं के बारे में बताती रहीं- बिजली की आपूर्ति, रास्तों की दुरावस्था और आवाजाही के साधनों की कमी. कुछ देर बाद उन्होंने अपने पति को याद दिलाया, ‘तुमी तो चाएर जोनयो जीगिश- इ कोरोनि’ (तुमने तो चाय के लिए पूछा ही नहीं). मैं न-न कर ही रहा था कि बैद्यनाथ झट से उठे और दो हरे नारियल काटकर हमें थमा दिए. नारियल पानी पीकर मन ताज़ा हो गया. पश्चिम बंगाल में हर जगह, विशेषतः ग्रामीण इलाक़ों में, मुझे ऐसी ही मेहमाननवाज़ी मिली.

अगली सुबह मैं फिर कांचियारा के लिए चल पड़ा. आमडांगा ब्लॉक ऑफ़िस के ठीक पहले ज़ोर की बारिश मिली. राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे जीप छोड़कर मैं पड़ंजे रास्ते पर आगे बढ़ा तो मेरी भेंट सफ़िउद्दीन से हुई. सफ़िउद्दीन आमडांगा बाज़ार की लॉन्ड्री से अपने कपड़े लेकर लौट रहे थे. हल्की बारिश फिर शुरू हो गई थी. जब पक्के रास्ते से हम सफ़िउद्दीन के घर के लिए पतले कच्चे रास्ते पर उतरे तो मैंने कुछ हैरत से देखा कि सफ़िउद्दीन ने अपनी चप्पलें हाथ में ले ली. मैं उनके साथ उनके पक्के मकान पर पहुंचा और बरामदे पर बैठकर उनके पिता, मोहम्मद हशमत अली से बातचीत करने लगा.

हशमत अली सात सदस्यों के परिवार के मुखिया और पांच एकड़ कृषि ज़मीन के मालिक थे जिसकी सिंचाई के लिए उनके पास डीज़ल पंप सेट था. एक बड़े पोखर में उनका हिस्सा था, पंद्रह मुर्गियां थीं और घर के पास क़रीब दस नारियल और पांच आम के पेड़ भी थे. गर्म मीठी चाय की चुस्की लेते हुए उनसे बात करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मेरे अनुरोध के बावजूद वो मुझसे खुलकर बात नहीं कर रहे हैं, अपनी ‘ग़रीबी’ को बढ़ा-चढ़ाकर बता रहे हैं.

मैंने शुरुआत में ही उन्हें कई बार समझाया था कि मेरा सर्वेक्षण सिर्फ़ मेरे प्रशिक्षण के लिए है, इसका कोई भी आधिकारिक उद्देश्य नहीं है पर मैं उन्हें इसका विश्वास नहीं दिला पाया था. जब उन्होंने मुझे बताया कि उनकी मासिक आय मात्र 1000 रुपये है तो यह बात पक्की हो गई. पांच एकड़ ज़मीन, पक्का मकान, लॉन्ड्री में धुले कपड़े- ये बातें ग़रीबी से मेल नहीं खा रही थीं.

बारिश थमी और मैं उठने लगा तो सफ़िउद्दीन ने कहा कि वो मुझे पास के घर तक छोड़ आएंगे. मैंने उनके पिता को धन्यवाद दिया और हम दोनों बातें करते हुए कच्चे रास्ते से आगे बढ़े. लगातार बरसात के कारण चिकनी लसदार मिट्टी से बना रास्ता दलदल में बदल चुका था. जहां कीचड़ नहीं था वहां फिसलन थी. सफ़िउद्दीन मुझे पच्चीसवीं बार सावधानी बरतने को कह रहे थे कि तभी ज़ोर से मेरा पैर फिसला और ‘फच्चाक’ की तेज ध्वनि के साथ मैंने अपने आप को कीचड़ में प्रतिष्ठित पाया.

कीचड़ में बैठे हुए मुझे तीन बातें तत्काल समझ में आ गईं. प्रथम, सफ़िउद्दीन ने कच्चे रास्ते पर उतरने से पहले अपनी चप्पलें हाथ में क्यों ले लीं थीं. द्वितीय, गांव में हर व्यक्ति क्यों रास्तों से पीड़ित है. और तृतीय, ग्रामीण विकास के लिए अच्छी सड़क की प्राथमिकता सर्वोपरि है.

(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)

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