मुक्तिबोध की उपस्थिति के तीन क्षण

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध मनुष्य के विरुद्ध हो रहे विराट् षड्यंत्र के शिकार के रूप में ही नहीं लिखते, बल्कि वे उस षड्यंत्र में अपनी हिस्सेदारी की भी खोज कर उसे बेझिझक ज़ाहिर करते हैं. इसीलिए उनकी कविता निरा तटस्थ बखान नहीं, बल्कि निजी प्रामाणिकता की कविता है.

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गजानन माधव मुक्तिबोध (13 नवंबर 1917 – 11 सितंबर 1964)

यह वर्ष मुक्तिबोध की मृत्यु के साठ वर्ष, उनके पहले कवितासग्रह ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ और उनकी क्लासिक मानी जाने वाली लंबी कविता ‘अंधेरे में’ के प्रकाशन के साठ वर्ष पूरे होने का वर्ष है. बहुत बिरले कवि हैं जो अपने देहावसान के साठ वर्षों बाद और उसके दौरान इतनी सजीव उपस्थिति रहे हैं जैसे कि मुक्तिबोध. मैं भी समय-समय पर उन पर लिखता रहा हूं और उसमें से तीन अंश प्रस्तुत हैं जिनमें से पहला उनकी मृत्यु के एक महीने बाद ही लिखा गया था. एक तरह से ये मुक्तिबोध के मेरे लेखकीय जीवन में उपस्थिति के तीन क्षण हैं.

भयानक ख़बर की कविता, 1964

सौभाग्य से मुक्तिबोध मनुष्य की संपूर्ण हालत के कवि थे. उन्होंने मानवीय अंतःकरण को पक्षाघात-ग्रस्त देखा, पर यह नहीं माना कि वह मर चुका है. बल्कि पूरी गहराई के साथ उन्होंने उम्मीद की और विश्वास किया कि वह होश में लाया जा सकता है और उसका पुनर्वास किया जा सकता है. अपनी कविता में उन्होंने, जहां तक बन पड़ा, इस पुनरुज्जीवन और पुनर्वास की चेष्टा की है. मुक्तिबोध ने समकालीन मनुष्य के अंतःकरण की धारणा की, किसी भावुकता के अर्थ में नहीं बल्कि नैतिक विवेक और करुणा के अर्थ में पुनर्रचना करने और उसे काव्यात्मक ढंग से परिभाषित करने का प्रयत्न किया, और यहीं वे मार्क्‍सवाद या नितांत समसामयिकता की सीमाओं से मुक्त होकर आगे बढ़ गए. ऊपर से भले ऐसा कहने में अंतर्विरोध जान पड़े, लेकिन यह सच है कि जहां मुक्तिबोध की कविता में घोर भय और हिंसा है, वहां साथ-ही-साथ उसमें उम्मीद, सहानुभूति और करुणा भी मानवीय बिरादरीपन के दृढ़ कथन के साथ व्याप्त है. इनके बीच तनाव, जो किसी सहज अनुष्ठान द्वारा लांघा नहीं जाता, बल्कि असंभाव्यता और संभाव्यता के उलझे हुए गणित से बार-बार जुड़ता है, मुक्तिबोध की कविता का संभवतः केंद्रीय तनाव है.

मुक्तिबोध मनुष्य के विरुद्ध हो रहे विराट् षड्यंत्र के शिकार के रूप में ही नहीं लिखते, बल्कि वे उस षड्यंत्र में अपनी हिस्सेदारी की भी खोज करते और उसे बेझिझक जाहिर करते हैं. इसीलिए उनकी कविता निरा तटस्थ बखान नहीं, बल्कि निजी प्रामाणिकता और ‘इन्‍वॉल्वमेंट’ की कविता है. उनकी आवाज़ एक दोस्ताना आवाज़ है और उनके शब्द मित्रता में भीगे और करुणा भरे शब्द हैं.

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सूर्य को छूने उड़ा पक्षी, 2004

मुक्तिबोध कविता में मार्क्‍सवाद की आज़माइश या उसका सत्यापन करने का यत्न नहीं कर रहे थे. वे मुख्यतः कविता लिख रहे थे और सचाई को समझने में मार्क्‍सवाद उनकी मदद ज़रूर कर रहा था. पर वह अकेला नहीं था. इस मामले में मुक्तिबोध कभी अकेले नहीं है- बहुत सारी चीज़ें उनके साथ हैं. मनुष्य की मुक्ति के महान स्वप्न को लेकर चलने वाले मुक्तिबोध उसके लिए किए जाने वाले संघर्षों से और आड़े आने वाली बाधाओं से बखूबी परिचित थे. उनके प्रति चौकन्ने रहकर उन्होंने एक तरह से हिंदी में प्रचलित और उसमें रूढ़ हुई मार्क्‍सवादी कट्टरताओं का गहरा और लगातार प्रतिरोध भी किया.

यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने हिंदी में उस समय सक्रिय प्रगतिशीलता की अवधारणा में दो मौलिक और रैडिकल परिवर्द्धन या संशोधन किए: उन्होंने अंतःकरण की सजगता-सक्रियता की अवधारणा और व्यवस्था में अपनी आत्मभियोगी हिस्सेदारी का बोध जोड़ा. यह एक सुव्यवस्थित विचारधारा में की गई कविवृद्धि भर नहीं है बल्कि एक विचारशील परिवर्द्धन भी है.

अब जब मार्क्‍सवाद से प्रेरित एक राजव्यवस्था प्रायः समूचे संसार में अपने ही अंतर्विरोधों और कमज़ोरियों से ध्वस्त हो गई, यह देखा जा सकता है कि मुक्तिबोध में यह चौकन्नापन हमेशा बना रहा है और इसीलिए उनकी मार्क्‍सवादी उम्मीद के भोलेपन के बावजूद उनकी कविता अंतःकरण का दस्तावेज़ बनी रहती है. मुक्तिबोध की कविता ‘अपने सत्य को गोद में बंद’ नहीं हुई और किसी विचारधारा के आश्रम में भी उसने पनाह नहीं ली. वह हमेशा वेध्य बनी रही. इसलिए भी उसमें सचाई सिर्फ़ विचार के आलोक में नहीं बल्कि ‘अपने ही भीतर की लौ के उजाले में’ देखी-विन्यस्त की गई है. 

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मुक्तिबोध के साथ साठ साल, 2015 

शायद हिंदी में किसी और कवि ने अंधेरे को इतना अधिक नहीं लिखा जितना मुक्तिबोध ने. उनकी पूरी कविता-यात्रा को अंधेरे के बीच जोखिम उठाती चलती यात्रा कहा जा सकता है. इस पर कम ध्यान गया है कि मुक्तिबोध की कविता में अपार चित्रमयता, बिंबमालाएं हैं.

‘अंधेरे में’ कविता के पहले की कविताओं में अंधेरे के इर्द-गिर्द अनेक बिंब हैं: ‘घने साये स्याह’, ‘बेमालूम दर्रों के इलाके’, ‘सबके मन का… अग्निव्यूह’, ‘सघन झाड़ी के कंटीले तमविवर में मरे पक्षी सा’, ‘कोठे के सांवले गुहान्धकार में’, ‘कुहासे के भूतों की सांवली चूनरी’, ‘भुसभुसे उजाले का फुसफुसाता षड्यंत्र’, ‘प्रकाश के चीथड़े’, ‘करुणा के रोंगटों में सन्नाटा’, ‘दार्शनिक दुखों की गिद्ध-सभा’, ‘एक कुहरे की मेह, एक धूमैला भूत, एक देहहीन पुकार’, विराट् झूठ के अनंत छंद सी’, ‘विराट् शून्यता अशांत कांपती’, ‘प्रश्नों की दानव-आंखों में’, ‘अंधकार के भूसे सा’, ‘चिलचिला रहा बेशर्म दलिद्दर भीतर का’, ‘प्रश्नों की दानव-आंखों में’, ‘वीरान चिलचिलाहट में फटे चीथड़े चमके’, ‘तिमिर में समय झरता है’, ‘स्पर्श के पापगुच्छ से’, ‘श्यामल भस्मीला ध्वंसदृश्य’, ‘गुहाओं में जाने के बियाबान’, ‘ज्योति की कोई कटी उंगली’, ‘शून्य गगन में ब्रह्मांड-धूल के परदे सा’, ‘घावों में सचाई की किरकिरी’ आदि.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)