नई दिल्ली: उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र के बागेश्वर जिले में दो दर्जन से अधिक गांवों के घरों की दीवारों और छतों पर दरारें देखी गई हैं, जो स्थानीय नागरिकों के बीच परेशानी का सबब बनी हुई हैं.
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, स्थानीय लोगों का आरोप है कि समय के साथ भूमि धंसने की समस्या और भी गंभीर हो गई है और इसका बड़ा कारण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर सोपस्टोन (खड़िया) खनन और ठेकेदारों द्वारा खोदी गई जगहों को बिना भरे छोड़ देना है.
लोगों का यह भी कहना है कि ठेकेदार अक्सर खुदाई के लिए विस्फोट और भारी मशीनरी का इस्तेमाल करते हैं, जो खनन मानदंडों का उल्लंघन है.
इस संबंध में जिला खनन अधिकारी जिज्ञासा बिष्ट ने कहा कि बीते दो सालों से क्षेत्र में खनन बंद है. हालांकि, उन्होंने कांडा गांव में कम से कम सात से आठ घरों की दीवारों और छातों में दरारें देखे जाने की बात कही है. तीन सितंबर को उन्होंने एक भूविज्ञानी और राजस्व अधिकारियों के साथ गांव का दौरा भी किया था.
टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, उत्तराखंड आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (यूडीएमए) ने जिले भर में 11 गांवों को संवेदनशील चिह्नित किया है, जिनमें कुल 450 घर खतरे में हैं. इनमें कुवारी और सेरी जैसे गांवों के 131 परिवार भूस्खलन से प्रभावित हैं. सोपस्टोन खदानों के पास के कई अन्य गांव- जैसे कंडे-कन्याल भी भूस्खलन की जद में हैं.
अख़बार के अनुसार, कंडा और रीमा घाटियों को सबसे अधिक नुकसान हुआ है, जहां घर, खेत और सड़कें खतरनाक तरह से धंस रही हैं. कंडे-कन्याल गांव में 70 में से लगभग 40 घर प्रभावित हुए हैं और कई ग्रामीणों ने सुरक्षा के डर से अपने घर छोड़ दिए हैं.
बागेश्वर में भूमि धंसने और दरारें देखे जाने का मामला प्रशासन के ध्यान में तब आया, जब स्थानीय लोगों ने बागेश्वर के कलक्ट्रेट में जनता दरबार के दौरान इस मुद्दे को उठाया.
जिला खनन अधिकारी जिज्ञासा बिष्ट के अनुसार, जिले के जिन इलाकों में अब भी खनन चल रहा है, उनसे सटे 25 से अधिक गांवों के घरों में भी दरारें आ गई हैं. इसमें ज्यादातर ऐसे गांव शामिल हैं, जिनके निवासियों ने खनन कार्यों के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) दिया था.
कंडे-कन्याल गांव में अधिकांश घर खाली हैं. बिष्ट ने कहा कि वहां केवल पांच परिवार रह रहे हैं.
स्थानीय लोग अपने घरों में बढ़ती दरारों के लिए बड़े पैमाने पर खनन कार्यों को दोषी मानते हैं. एक निवासी घनश्याम जोशी ने पीटीआई को बताया कि जिले के कुल 402 गांवों में से 100 से अधिक गांवों के धीरे-धीरे ढहने का खतरा है.
कंडेकन्याल निवासी हेमचंद्र कांडपाल ने टाइम्स ऑफ इंडिया से कहा, ‘इस क्षेत्र में सीजन में आधा दर्जन से ज्यादा खदानें चलती हैं, जिसमें कई भारी मशीनें एक साथ चलती हैं. नतीजा ये है कि हमारे घर में बड़ी-बड़ी दरारें आ गई हैं. हम रात में इस डर से सो नहीं पाते कि घर गिर न जाए.’ कांडपाल ने यह भी जोड़ा कि उनके कुछ परिजनों को उनके घर में खतरनाक दरारें आने के बाद हल्द्वानी जाना पड़ा. ‘
कंडे-कन्याल के एक रहवासी साधुराम ने अख़बार को बताया कि उनके घर, आंगन और खेत सभी धंस रहे हैं. ‘मैं अधिकारियों से कार्रवाई की गुहार में तहसील के चक्कर लगाते-लगाते अपनी चप्पलें घिस चुका हूं, लेकिन कुछ नहीं हुआ,’ उन्होंने जोड़ा.
बताया जा रहा है कि भू-धंसाव के चलते क्षेत्र में आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित प्राचीन कालिका मंदिर भी खतरे में है. स्थानीय लोगों ने कहा कि भूमि धंसने के कारण मंदिर का गर्भगृह धंस रहा है और मंदिर में हाल ही में कई दरारें देखी गई हैं.
उधर, बागेश्वर की जिला आपदा प्रबंधन अधिकारी शिखा सुयाल ने कहा कि इन 11 गांवों में 131 से अधिक परिवारों की पहचान पुनर्वास के लिए की गई है क्योंकि भूस्खलन के चलते इनकी बस्ती खतरे में पड़ रही है. उन्होंने कहा, ‘ऐसे गांवों का और सर्वेक्षण किया जा रहा है.’
शिकायतें मिलने के बाद संबंधित विभागों के अधिकारियों ने कपकोट ब्लॉक के कालिका मंदिर का दौरा किया, लेकिन यहां खनन नियमों का कोई उल्लंघन नहीं पाया गया.
टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, इसी तरह, गढ़वा सिरमौली गांव में 70 घरों में से लगभग 20 खनन से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं और 10 से अधिक परिवार अपने घर छोड़कर चले गए हैं. ग्रामीणों ने बताया कि पिछले हफ्ते बागेश्वर के पगाना में एक पूरी सड़क जमीन में धंस गई थी, जहां कई मीटर तक दरारें आ गई थीं.
उल्लेखनीय है कि कपकोट विधायक और वरिष्ठ भाजपा नेता बलवंत भौरियाल की बागेश्वर के सनेती क्षेत्र में सोपस्टोन की खदान है. उनका कहना है कि इस क्षेत्र में सोपस्टोन का खनन ग्रामीणों द्वारा खनन के लिए दिए गए खेतों में ही किया जाता है. इसलिए उनकी इच्छा के विरुद्ध खनन किए जाने का सवाल ही नहीं
उन्होंने यह भी जोड़ा कि किसी समय में जिले में सोपस्टोन की 121 खदानें हुआ करती थीं, पर अब केवल 50 ही चल रही हैं.
इस बीच, बागेश्वर के गांवों में सोपस्टोन खनन के प्रभावों का अध्ययन कर रहे चंद्र शेखर द्विवेदी का कहना है कि कपकोट और कांडा ब्लॉक के क्षेत्रों में सबसे ज्यादा खदानें हैं और आसपास की इन्हीं खनन गतिविधियों के चलते गांवों में लगभग हर मानसून में भूस्खलन की घटनाएं होती हैं और घरों में दरारें पड़ जाती हैं.
द्विवेदी ने कहा, ‘जब ठेकेदार विस्फोटों और जेसीबी मशीनें इस्तेमाल करके खनन के लिए तय मानदंडों का उल्लंघन करते हैं, तो ग्रामीणों को खामोश रखने और विरोध से रोकने के लिए विभिन्न तरीकों से मुआवजा देते हैं. कहीं न कहीं यह भी धंसाव की बढ़ती समस्या के लिए जिम्मेदार है.’
उन्होंने जोड़ा कि मुआवज़े के तौर पर अधिकांश ग्रामीणों को इन खदानों में नौकरी मिलती है, जिससे वे बेतहाशा खनन से अपने खेतों को हुए नुकसान की रिपोर्ट नहीं करते.
बागेश्वर जिमे काफी खड़िया भंडार हैं, जिसके चलते व्यापक खनन गतिविधियोन का केंद्र बना रहता है.बताया जाता है कि इस क्षेत्र में 130 से अधिक सोपस्टोन खदानें चालू हैं, मुख्य रूप से कांडा घाटी में. सोपस्टोन 7,000 रुपये प्रति टन तक के भाव में बिकता है और इसका इस्तेमाल कागज, पेंट और सौंदर्य प्रसाधन जैसे उद्योगों में किया जाता है.
हालांकि, स्थानीय लोगों का दावा है कि लगातार खनन से अस्थिर हो रही है, जिससे गांव के गांव खोखले हो रहे हैं.
बता दें कि बागेश्वर की प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशीलता लंबे समय से चिंता का विषय रही है, खासकर मानसून के मौसम में. करीब चार दशक पहले साल 1983 में भयाल टोक में भूस्खलन हुआ था, जिसमें 37 लोग मारे गए थे. इसके बाद साल 2010 में सुमगढ़ में हुए भूस्खलन में 18 स्कूली बच्चों की जान गई थी.
मालूम हो कि राज्य के ही जोशीमठ में साल 2023 की शुरुआत में लगभग 1,000 लोगों को जमीन धंसने और दीवारों पर पड़ी दरारों के चलते अपना घर छोड़ने को मजबूर होना पड़ा था.
इस संबंध में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने इस साल जून में उत्तराखंड के वन और पर्यावरण अतिरिक्त सचिव द्वारा दायर की गई रिपोर्ट को लेकर नाराज़गी भी जाहिर की थी. इसका कहना है कि इसमें कई ‘कमियां’ हैं. मसलन, इसमें उन एजेंसियों को सूचीबद्ध नहीं किया गया, जो नियमित भूवैज्ञानिक जांच की निगरानी करने के लिए जिम्मेदार हैं. एनजीटी ने इस मामले की अगली सुनवाई 1 अक्टूबर के लिए तय की है.