पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज़
बच्चों की फटी कॉपियों का
चनाजोर गर्म के लिफ़ाफ़े बनाने के पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ़्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद!
सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स भरी हुई बस में!
भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के
दुख की तरह!
एक दिन हमने कहा
हम भी इंसान हैं—
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बीए के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन!
देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग!
सुनो हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा!
इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
एक अदृश्य टहनी से
टिड्डियां उड़ीं और रंगीन अफ़वाहें
चीख़ती हुई चीं-चीं
‘दुश्चरित्र महिलाएं, दुश्चरित्र
महिलाएं—
किन्हीं सरपरस्तों के दम पर फूलीं-फैलीं
अगरधत्त जंगली लताएं!
खाती-पीती, सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन, आवारा महिलाओं का ही
शग़ल हैं ये कहानियां और कविताएं….
फिर ये उन्होंने थोड़े ही लिखी हैं
(कनखियां, इशारे, फिर कनखी)
बाक़ी कहानी बस कनखी है.
हे परमपिताओ,
परमपुरुषो—
बख़्शो, बख़्शो, अब हमें बख़्शो!
अनामिका की यह कविता जाने कितनी बार पढ़ी है. लेकिन प्रत्येक पढ़ना क्या पढ़ना होता है? पढ़ना और देखना और सुनना परिचय स्थापित करने का तरीक़ा है. कौन-सा परिचय सतही है, किस परिचय में गहराई है, यह परिचय के पात्र को ही पता होता है. कौन मुझे कितना जानता है या जानना चाहता है, यह मैं अपने प्रति उसके रवैये से जान जाता हूं.
परिचय हम किसी से क्यों करते हैं? उसमें हमारी कितनी रुचि है? उसके प्रति हमारी उत्सुकता में कितनी सच्चाई है, यह तो दोनों ही जानते हैं. वह जो जानना चाहता है और वह जिसे जाना जाता है. छिछली उत्सुकता एक प्रकार से उत्सुकता के लक्ष्य का अपमान है. यह बात ईएम फ़ॉर्स्टर की किताब ‘आसपेक्ट्स ऑफ द नावेल’ पढ़ते वक्त बहुत पहले समझ में आई थी. कहानी को साहित्यिक रूपों में सबसे हीन ठहराने की एक वजह यह थी कि यह मनुष्य कीकौतूहल की वृत्ति को संतुष्ट करने का काम करती है.
आपका नाम क्या है? यह पूछकर रह जाने वाला दोबारा मिलने पर फिर नाम पूछेगा, यह तय है. उसकी मुझमें असली दिलचस्पी नहीं है. मेरी ज़िंदगी में, मेरे संघर्ष, मेरी ख़ुशी और मेरे दुख में शामिल होने की तैयारी तो और, उसकी इच्छा भी है या नहीं, यह कैसे जाना जाए?
वास्तविक मानवीय संबंध की गुणवत्ता इस सतही परिचय से आगे जाने की तैयारी, या किसी और की ज़िंदगी में अपना निवेश करने की इच्छा पर निर्भर है. औरत इस वास्तविक मानवीय संबंध के अभाव को सबसे तीव्रता से महसूस करती रही है. अपने व्यक्तिगत संबंधों के दायरे में और व्यापक सामाजिक संबंधों की दुनिया में भी. प्रायः उसका उपयोग एक साधन के तौर पर होता है
वह माध्यम है. उस रूप में वह कितनी कारगर है, यह अवश्य चिंता का विषय है लेकिन उससे आगे वह अपने आपमें कितनी महत्त्वपूर्ण है, यह सवाल औरतें यूरोप हो या अफ्रीका या एशिया, पूछती रही हैं. यह जनतांत्रिक रिश्ते के अभाव से उपजा सवाल है.
जनतांत्रिक संबंध कैसे होते हैं? जनतांत्रिक समाज में ख़ुद के होने का मतलब क्या होता है? यह ऐसा समाज है जिसमें मेरे होने, मेरी वक़्त का अंदाज होता है. मैं देख पाता हूं कि दूसरों के लिए भी मेरी क़ीमत है. लेकिन जनतंत्र को, और यह बात दुनिया भर के हर देश और समाज पर लागू होती है, औरत को पहचानने में, उन्हें समझने में काफ़ी लंबा वक्त लगा. औरत के साथ इंसानी रिश्ता क़ायम करने में समय लगा. उसकी वजह थी समाज की और तंत्र की उसमें दिलचस्पी का अभाव. लगता है कि वह देखता है लेकिन असल में देखता नहीं:
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है काग़ज़
बच्चों की फटी कॉपियों का
चनाजोर गर्म के लिफ़ाफ़े बनाने के पहले!
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ़्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद!
सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फ़िल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स भरी हुई बस में!
भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के
दुख की तरह!
समाज उसे उड़ती उड़ती निगाहों से देखता है.अनामिका से दशकों पहले महादेवी वर्मा ने लिखा था और क्या वह औरत के बारे में ही नहीं था?:
प्रिय! मैं हूं एक पहेली भी!
जितना मधु जितना मधुर हास
जितना मद तेरी चितवन में,
जितना क्रंदन जितना विषाद
जितना विष जग के स्पंदन में,
पी पी मैं चिर दुख-प्यास बनी
सुख-सरिता की रंगरेली भी!
मेरे प्रतिरोमों से अविरत
झरते हैं निर्झर और आग;
करतीं विरक्ति आसक्ति प्यार,
मेरे श्वासों में जाग-जाग;
प्रिय मैं सीमा की गोदपली
पर हूं असीम से खेली भी!
इस कविता की कई व्याख्याएं हुई हैं.लेकिन महादेवी की उत्तराधिकारियों में से एक अनामिका की इस कविता के आलोक में इसका एक और अर्थ खुलता है. इस प्रकृति, इस संसार के हास, क्रंदन, विषाद और विष, हर कुछ को आत्मसात् करने वाली मैं कौन हूं? क्यों मैं आज तक अदेखी हूं? मैं जिसके प्रतिरोमों से आग और निर्झर दोनों झरते हैं, जो विरक्ति, आसक्ति और प्यार, सारे भावों को धारण करती है, क्या कभी उसे जानने का प्रयास किसी ने कियाहै? क्या वह हमेशा निष्क्रिय पात्र बनी रहने को अभिशप्त है?
क्या इसका कारण यह है कि स्वयं उसने अपने परिचय की परवाह नहीं की यह सोच कर कि संपूर्ण उसमें प्रतिबिंबित हो रहा है?
तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या!
लेकिन अब वह अपना परिचय चाहती है, चाहती है कि संसार उससे सक्रिय परिचय प्राप्त करे. उसके बहिरंग और अंतरंग, दोनों को जानने की कोशिश करे. जनतंत्र में हरेक व्यक्ति यह चाहती है. यह कि वह प्राथमिक और बुनियादी इकाई के रूप में स्वीकृत हो.
इसलिए उसे गौर से, दिलचस्पी से पढ़ना ज़रूरी होगा. यह ऐसा पढ़ना है जिसमें पढ़नेवाले को श्रम करना है:
एक दिन हमने कहा
हम भी इंसान हैं—
हमें क़ायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बीए के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन!
देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग!
सुनो हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी हुई भाषा!
दुनिया का हर जनतंत्र अभी भी अधूरा है क्योंकि उसने औरत को पढ़ने का यह तरीक़ा पूरा सीखा नहीं और उसमें पूरी मेहनत नहीं की अभी तक. अनामिका के इस कविता के लिखे भी वक्त बीत गया लेकिन क्या वह वाक़ई बीत गया है?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)
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