हिंदुओं को लगातार डराकर उनके बड़े हिस्से का सामाजिक विवेक छीन लिया गया है

जिस भी समाज में धर्मभीरुता बढ़ जाती है, उससे अपने धर्म के उदात्त मूल्यों की हिफाजत संभव नहीं हो पाती. पहले वह बर्बरता, बीमारी व असामाजिकता के सन्निपातों, फिर अनेक असली-नकली असुरक्षाओं से पीड़ित होने लग जाता है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

प्रो. अपूर्वानंद द्वारा गत चार सितंबर को ‘द वायर हिंदी’ के लिए लिखे गए ‘मुसलमानों के खिलाफ घृणा और हिंसा भारत में महामारी की तरह फैल गई है’ शीर्षक लेख में कही गई इस बात से असहमति की कोई गुंजाइश नहीं है कि अब इस देश में हिंदुओं में बहुलांश को मुसलमानों पर हिंसा से कोई फर्क नहीं पड़ता.

अलबत्ता, इस बात का थोड़ा विस्तार किया जाए तो कहा जा सकता है कि हिंदुओं के इस बहुलांश को और भी बहुत-सी चीजों से फर्क नहीं पड़ता. इससे भी नहीं कि इस तरह की घृणा व हिंसा की पहली चोट- हां, मुसलमानों से भी पहले- देश के लोकतंत्र, संविधान व उनकी संस्थाओं पर पड़ती है. दूसरे शब्दों में कहें तो संविधान, लोकतंत्र और उनकी संस्थाएं रसातल में चली जाएं तो भी उन्हें फर्क नहीं पड़ता. पड़ता तो उन्हें ‘अपने’ (हिंदुत्ववादी) नेताओं द्वारा भड़काई गई नफ़रत की आग की लपटें ‘सुनहरी’ नहीं दिखाई देतीं.

लेकिन उन्हें, और तो और, इससे भी फर्क नहीं पड़ता कि उनका और उनके धर्म का जितना अहित बार-बार उनका रट्टा लगाने वाले सत्ताधीश कर रहे हैं, उतना उन तत्वों की ‘निरंकुशता’ ने भी नहीं किया, जिन्हें वे सनातन शत्रु की तरह देखते आए हैं. पड़ता तो अब तक वे खुद ही उनके खिलाफ उठ खड़े हुए होते.

इस सबका कारण ढूंढ़ने के लिए भी कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है: हिंदुत्ववादी सत्ताधीश उन्हें रोज-रोज मुसलमानों (यानी देश के एक नागरिक को दूसरे) से डराकर कायर व क्रूर ही नहीं बना रहे, उनका सामाजिक-सांस्कृतिक सामूहिक विवेक भी छीन ले रहे हैं.

विवेक की छिनैती

बताने की जरूरत नहीं कि ऐसी छिनैतियों के सफल हो जाने के बाद कोई भी धर्म- वह कितना भी उदार और सहिष्णु होने का दावा क्यों न करता आया हो- सच्चा नहीं रह जाता, धर्मभीरुओं और धर्मपशुओं के शिकंजे में चला जाता है. गौरतलब है कि धर्मभीरुता का इतिहास धर्म (पढ़िए: अधर्म) के नाम पर डरने व डराने के खेल में रत रहने का है, जानें लेने और देने का भी, जबकि धर्मप्राणता का न सिर्फ स्वयं को धर्म से अनुप्राणित करने बल्कि दूसरों को भी प्राण बांटने का.

जिस भी समाज में धर्मभीरुता बढ़ जाती है, उससे अपने धर्म के उदात्त मूल्यों की हिफाजत संभव नहीं हो पाती. पहले वह बर्बरता, बीमारी व असामाजिकता के सन्निपातों, फिर अनेक असली-नकली असुरक्षाओं से पीड़ित होने लग जाता है. फिर ये असुरक्षाएं उसे ऐसी जगह ले जा पटकती हैं, जहां बुजदिली का शिकार होकर वह किसी भी तरह के सत्साहस से महरूम हो जाता है. दूसरी ओर, उसे बता रहे तरह-तरह के फोबिया उसके ‘दुश्मनों’ की संख्याएं व अनिष्ट की आशंकाएं बढ़ाते रहते हैं.

अनंतर, डर के मनोविज्ञान से उपजा नपुसंक किस्म का गुस्सा उसे उन अंधधारणाओं का गुलाम बना देता है, जिनके तहत कल्पित दुश्मनों के खिलाफ किसी भी तरह की क्रूरता या कदाचार उसे उसका ‘जरूरी कर्तव्य’ लगने लगता है- अधिकार भी. फिर कई तरह के कदाचार व क्रूरताएं उसे अपने शौर्य का पर्याय लगने लगती हैं और शेखचिल्लीपने में वह उनकी शेखी बघारता नहीं थकता. न सिर्फ हमारे बल्कि दुनिया के अन्य कई देशों का इतिहास भी ऐसे असामाजिक समाजों की कारस्तानियों और उनके पीड़ितों की कराहों से भरा पड़ा है.

लेकिन आज हिंदुओं के बहुलांश को मुसलमानों के खिलाफ घृणा या हिंसा से फर्क नहीं पड़ता तो इसके पीछे उसकी ‘मूंदहु आंखि कतहुं कछु नाहीं’ वाली प्रवृत्ति ही नहीं, जल में रहकर मगर से बैर न कर पाने की बेचारगी भी है. देश की प्रायः सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं इन दिनों उन्हें इस बेचारगी से निजात दिलाने के दृढ़संकल्प का जैसा अभाव प्रदर्शित कर रही हैं, उससे उनके बड़े हिस्से का यह विश्वास जाता रहा है कि सत्तासंरक्षित नफरती व हिंसक तत्व उनके धर्म का जो मुस्लिमविरोधी रूप गढ़ रहे हैं, उसके खिलाफ सिर उठाकर वे महफूज रह सकते हैं.

किसी उदारदृष्टि व चेतना से संपन्न धार्मिक सुधार के आंदोलन के अभाव में इस विश्वासहीनता ने उन्हें गहरे असुरक्षाबोध से भर रखा है. इस कदर कि वे सब कुछ देखकर कुछ भी नहीं देखते और उसके खिलाफ कुछ नहीं बोलते. उलटे मुस्लिमविरोधी नफरत व हिंसा के पैरोकारों व सूत्रधारों के साथ बने या दिखते रहने में सामाजिक सुरक्षा का अनुभव करते व ‘खुश’ रहते हैं. वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार के शब्दों में कहें, तो वे उस ‘बुजदिल इंडिया’ में रहने लगे हैं, जिसे सत्ताधीशों ने पिछले बरसों में बहुत जतन से गढ़ा है.

घृणा भी और डर भी

लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने पिछले दिनों यों ही नहीं कहा कि भय के कारोबारी हिंदुत्ववादी अपने दुश्मनों को ही नहीं डराते, अपनों को, अपने दोस्तों को भी डराए रखते हैं, ताकि वे उनके विरुद्ध जाने या उनका साथ छोड़ने की ‘हिमाकत’ न कर पाएं. प्रो. अपूर्वानंद अपने लेख में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा करने वालों को ‘हिंदुत्ववादी घृणा से पीड़ित हिंदू’ बताते हुए भी बिल्कुल दुरुस्त हैं. लेकिन इस हिंसा का तमाशा देखने और यह जताने वालों में कि उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, सत्तासंरक्षित व सत्तासीन हिंदुत्ववादियों से डरे हुए हिंदू भी हैं. गिरती लाशों व उन्हें गिराने वालों का धर्म जानकर सुविधानुसार खुश या नाखुश होने वालों में भी.

ये हिंदुत्ववादियों से डरे हुए हिंदू सड़क या फुटपाथ पर सिरफिरों को किसी निरीह को क्रूरतापूर्वक टुकड़ों में काटते, गोलियों से भूनकर मौत के घाट उतारते या उसका मानमर्दन करते देखते हैं तो उस निरीह से ज्यादा प्राणभय के शिकार हो जाते और हस्तक्षेप कर उसे बचाने के प्रयत्न करने के बजाय ‘बुद्धिमत्तापूर्वक’ वहां से टल जाते हैं. अभी कुछ ही दिनों पहले उज्जैन के एक खासी भीड़भाड़ वाले चौराहे के फुटपाथ पर दिनदहाड़े एक महिला से बलात्कार की जो वारदात हुई और जिस तरह उसका वीडियो बनाकर वायरल किया गया, उसे देखकर टल जाने वाले भी ऐसे ही ‘डरे हुए’ या ‘बुद्धिमान’ हिंदू थे. गत वर्ष सितंबर में इसी उज्जैन में हैवानियत की शिकार खून से लथपथ अधनंगी बच्ची मदद के लिए गिड़गिड़ाती व रिरियाती फिर रही थी तो उसे निराश करने वाले भी यही थे.

उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले के मोतीपुर थाना क्षेत्र के एक गांव में एक वहशी बाप का अपनी नाबालिग बेटी कोे मारकर उसकी लाश के छह टुकड़े कर देना तो वैसे भी किसी ‘बुद्धिमान’ हिंदू को नहीं दिखना था. इसलिए कि उसमें ‘हिंदू-मुसलमान’ की कोई गुंजाइश नहीं थी. बाप भी मुसलमान था और बेटी भी. कल्पना कीजिए कि इसका उल्टा होता तो? इस बेटी का कुसूर था कि वह बाप के बजाय अपनी मर्जी से प्यार करने लगी थी और इस ‘बेटी बचाओ’ के देश में कोई बेटी भला अपनी मर्जी से प्यार कैसे बच सकती है?

‘बुुद्धि’ व बुजदिली की सांठगांठ

वैसे अतीत में भी दुष्टों के सवाया-ड्योढ़ा हो जाने पर ‘बुद्धि’ के बुजदिली से सांठगांठ कर लेने के प्रसंग दुर्लभ नहीं हैं. तभी तो कहा जाता कि दुनिया को दुष्टों की कारस्तानियों से ज्यादा क्षति बुद्धिमानों (माफ कीजिए, सज्जनों) की चुप्पी से पहुंची है. अब तो ये ‘सज्जन’ अपनी चुप्पी से ही नहीं आशीर्वाद तक से दुष्टों ही नहीं, हत्यारों तक का काम बना रहे हैं. बकौल कवि चन्द्रेश्वर:

किसी शोकसभा की पहली कतार में
दिखते हैं हत्यारे
किसी प्रार्थना में होते हैं शामिल
सबसे ज्यादा
अब उनकी पीठ पर गोदाम नहीं होता
बारूद का
हाथों में लपलपातीं नहीं तलवारें
दिन-ब-दिन कठिन होती जा रही है
उनकी पहचान
वे अब अगले दरवाजे से
दाखिल होते हैं
हमारे आंगन में
दोस्त की तरह
हमें पता तक नहीं कि वे बैठे हैं छिपकर
स्कूली बच्चों की पीठ पर लदे बस्तों में
किसानों के खेत की हराई में पड़ी खाद में
बीज में/रोगियों की दवा में
मीठे पानी के सोते वाले कुएं में
अब वे फुदकने लगे हैं हर वक्त
हमारी दिनचर्या पर
गौरैये की शक्ल में
भरे बाजार में
नायक की तरह दिखते हैं हत्यारे
हत्यारों को प्राप्त है
सज्जनों का आशीर्वाद!

लोमड़ी से शिक्षा!

इन ‘सज्जनों’ की गिरावट की इंतिहा देखिये कि नृशंस यौन हमलों में भी-जिनकी किसी भी सम्य समाज में कोई माफी नहीं हो सकती- वे हमलावरों में धर्म के आधार पर फर्क कर उनके घरों पर बुलडोजर चलवाते या उन्हें बचाते हैं. हमलावर अपने धर्म के हों तो उनका कृत्य उनके लिए उतना निंदनीय या शर्मनाक नहीं होता, जितना दूसरे धर्म वाले हमलावरों का कृत्य. अपने वर्गचरित्र के अनुसार वे कुछ यौन हमलों के विरुद्ध आवाज भी उठाते हैं तो उन्हें पीड़िताओं के मानमर्दन से ज्यादा अपनी नाक का सवाल बनाकर. अपनी पसंद की पार्टी द्वारा शासित राज्यों में हुए ऐसे हमलों के खिलाफ उनके मुंह से बोल तक नहीं फूटते और पीड़िताओं के प्रति उनकी सारी सहानुभूति नापसंद पार्टियों द्वारा शासित राज्यों के लिए सुरक्षित होती है. तिस पर इस सहानुभूति में भी वे अपने पोच सोच को परे नहीं रख पाते. वे तो वे, इस सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ऐसा दुरंगापन प्रदर्शित करते है कि गुजरात में बलात्कारियों को रिहा करवा देते हैं तो बंगाल में उनके लिए फांसी चाहते हैं.

पूछा जाए कि इन विडंबनाओं का अंत कहां होगा, तो एक जवाब तुर्की की एक कहावत में भी है: धर्म की शिक्षा लोमड़ी से ली जाएगी तो मुर्गी चुराना पुण्य का ही काम माना जाएगा.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)