हिंदी को हिंदीवाद और राष्ट्रवाद से मुक्त किए बगैर भाषा का पुनर्वास असंभव

दुनिया में शायद हिंदी अकेली भाषा है जहां सेवक पाए जाते हैं. हिंदी में शिक्षक हो, पत्रकार हो या लेखक, हिंदी की सेवा करता है, उसमें काम नहीं करता.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Flickr/Stars Foundation)

14 सितंबर हिंदी दिवस है. पूरे देश में और संभवतः बाहर भी भारतीय दूतावासों में हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा, हिंदी माह आदि का आयोजन आरंभ हो चुका है. तक़रीबन सारे सरकारी उपक्रमों में, बैंकों, वैज्ञानिक संस्थानों में ये आयोजन हो रहे होंगे. इस दिवस, सप्ताह, पखवाड़े या मास में हिंदी के अध्यापकों का भाव काफ़ी बढ़ जाता है. जगह-जगह से उन्हें न्योता आता है. जैसे विशेष अवसरों पर ब्राह्मण देवताओं की बन आती है, वैसे ही सितंबर के महीने में हर किसी को हिंदी के अध्यापकों, कवियों, लेखकों की याद आने लगती है. उन्हें भारत की एकता में हिंदी का योगदान, हिंदी की वैश्विक भूमिका, वैश्विक परिदृश्य में हिंदी की चुनौतियां, हिंदी का शिक्षण जैसे विषयों पर व्याख्यान देने के आमंत्रित किया जाता है. इस समय ये सारे संस्थान जजमान हो जाते हैं और हिंदीवाले इस क्षण के ब्राह्मण. पहले दक्षिणा में शॉल और दीवार घड़ी देने का चलन था, आजकल कुछ तरक्की हुई है. इन सबको हिंदी के सेवक कहा जाता है.

मुझे लगता है, दुनिया में शायद हिंदी अकेली भाषा है जिसमें सेवक पाए जाते हैं. हिंदी में शिक्षक हो, पत्रकार हो या लेखक, हिंदी की सेवा करता है, उसमें काम नहीं करता.

बाहर का कोई हो तो इस मियादी राष्ट्रव्यापी हिंदी ज्वर को देखकर अचरज में पड़ जाए. आख़िर क्या तीर मारा था हिंदी ने 14 सितंबर को कि पूरा महीना ही उसके नाम कर दिया गया है? क्या बांग्लावालों की तरह अपनी भाषा के अधिकार के लिए कोई संघर्ष किया था, जान दी थी?

21 फ़रवरी का दिन भाषा दिवस इसीलिए है कि उस दिन 1952 में तब के पूर्वी पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोगों ने अपने ऊपर उर्दू लादने के विरुद्ध आंदोलन किया और 4 छात्र पाकिस्तान की पुलिस की गोलियों से मारे गए. इस संघर्ष के कारण 21 फ़रवरी सिर्फ़ बांग्लादेश में नहीं, पूरी दुनिया में भाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है.

हिंदीवालों को ऐसा कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा. हिंदीवालों को किसी दमन का सामना नहीं करना पड़ा. मालूम होता है कि 14 सितंबर ही वह तारीख़ है जब 1949 में हिंदी को भारत की राजभाषा घोषित किया था. यह ओहदा वह अंग्रेज़ी के साथ साझा करनेवाली थी. भारत चूंकि संघीय गणराज्य है, राज्यों की काम काज की भाषा तो वहीं की भाषाओं को होना था. लेकिन यह माना गया कि हिंदी को भारत में सबसे अधिक संख्या में बोला और इस्तेमाल किया जाता है, सो यही सरकारी या राजकीय कामकाज की भाषा होनी चाहिए.

हर साल 14 सितंबर को सरकारी पैसे से इसकी याद दिलाई जाती है. यह दिवस भी याद न रहे अगर सरकारी कोष इसके लिए बंद हो जाए. भारत में किसी और भाषा का दिवस इस प्रकार मनाया जाता हो, इसका प्रमाण नहीं. एक ही भाषा का गुणगान करने के लिए क्यों भारत के सारे करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल हो? इससे हिंदी का गौरव कैसे बढ़ता है?

इस वार्षिक रस्म अदायगी से यह उम्मीद की जाने लगी कि चूंकि संघीय स्तर पर हिंदी को राजभाषा घोषित कर दिया गया है, बांग्लाभाषियों या तमिल वा कन्नड़भाषियों को भी इसे अपनी भाषा के रूप में अपना लेना चाहिए. ऐसा हुआ नहीं. ख़ासकर तमिलनाडु से इस हिंदी विस्तारवाद का विरोध हुआ और उसके कारण हिंदी का विजय रथ रुक गया. इसकी नाराज़गी हिंदीवादियों में अब तक बनी हुई है. ‘हिंदी प्रदेशों’ में तमिलनाडु या केरल के विरुद्ध जो आसानी से घृणा प्रचार किया जा सकता है, उसकी पृष्ठभूमि यह भी है.

तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई का एक अनुभव याद आ गया. प्रेस क्लब से अपने होटल जाने को टैक्सी ली. ड्राइवर को अंग्रेज़ी में रास्ता बताने की कोशिश की तो हिंदी में जवाब मिला. आश्चर्य हुआ: आप हिंदी बोल लेते हैं? ड्राइवर ने कहा, वह उर्दू बोल रहा था. होटल पहुंचकर सोचता रहा कि तमिलनाडु में एक हिंदीवाले को उर्दू ने रास्ता पार कराया. यह भी सोचा कि भला हो मेरे कान अब तक उर्दू को ग्रहण करने लायक़ बने हुए हैं, वरना कोशिश तो यह की जा रही है कि हिंदी के कानों के लिए उर्दू भी फ़्रेंच हो जाए.

उर्दू द्वेष को हिंदी का स्वभाव बनाने में हिंदी के अध्यापकों की पीढ़ियां खप गई हैं. सालों पहले की बात याद आती है. इतिहासकार शाहिद अमीन ख़ासे ग़ुस्से में दिखे. बेटे के स्कूल से लौटे थे. स्कूल जाने की वजह थी हिंदी. बेटे की हिंदी की नोटबुक में लाल निशान देखा. अध्यापक ने आसान को काटकर सरल कर दिया था. पिता ने अध्यापक से पूछा कि आसान क्यों हिंदी शब्द नहीं है. प्रेमचंद तो ऐसी ही ज़बान लिखते थे. शाहिद अमीन की प्रोफ़ेसरी से अप्रभावित अध्यापक ने कहा उसका काम बच्चे को हिंदी सिखाना है, जब वह प्रेमचंद हो जाएगा, जो चाहे करे.

इसलिए हिंदीवालों को हिंदी नहीं, शुद्ध हिंदी सिखाई जाती है.

दो रोज़ पहले एक कॉलेज में गया. वहां भी इस शुद्ध हिंदी से सामना हुआ. शुद्ध हिंदी का मतलब है उर्दू से मुक्त हिंदी. जैसे चावल से कंकड़ निकाले जाते हैं, वैसे ही हिंदी से उर्दू को चुन-चुनकर बाहर किया जाता है और उसका परिष्कार किया जाता है. परिष्कृत करने के लिए संस्कृत के शब्द ठूंस-ठूंस कर भरे जाते हैं. हम सब जानते हैं कि यह हिंदी मंचीय हिंदी है, मंच से उतरने के बाद हम इसमें एक वाक्य भी नहीं बोलेंगे लेकिन आख़िर मंच पर उर्दू से प्रदूषित हिंदी कैसे बोली जा सकती है!

हिंदी की या उर्दू ग्रंथि पुरानी है. आलोक राय ने अपने अंदाज़ में ‘हिंदी राष्ट्रवाद’ किताब में बतलाया है कि कैसे अंग्रेज बहादुर की मदद से देवनागरी लिपि की हिंदी ने उर्दू को पटखनी दी. उर्दूवालों ने भी अंग्रेजों को क़ायल करने की जी तोड़ कोशिश की थी पर हिंदीवाले बीस ठहरे. लेकिन इतिहास का क्या करें! हिंदी और उर्दू का साथ छूटने का नाम नहीं लेता.

हिंदी के सबसे बड़े लेखक प्रेमचंद बुनियादी तौर पर उर्दू के ही ठहरे. फिर भी कुछ है हिंदी की हवा में कि पीढ़ी डर पीढ़ी स्कूल से अध्यापक आसान को सरल बनाते जा रहे हैं. स्कूल की हिंदी में दरख़्त को काटकर ही वृक्ष रोपा जा सकता है.

दूसरी तरफ़ पिछले 30 बरसों में हिंदी को स्मार्ट बनाने के लिए इसमें अंग्रेज़ी शब्दों के नगीने जड़े जाने लगे हैं. ‘नवभारत टाइम्स’ ने योजनापूर्वक इस हिंदी का निर्माण और प्रचार किया. और बाद में सभी शुद्ध हिंदीवादियों ने इसकी माला पहन ली. अख़बारों में ऐसी सुर्ख़ियां आम हो गईं: प्राइमिनिस्टर ने किया ब्रिज का इनॉगरेशन, या 1000 स्टूडेंट एग्जाम में हुए फेल. यह बीमारी इस कदर बढ़ गई है कि हिंदीवालों से हिंदी का एक साफ़ सुथरा वाक्य सुनने को कान तरस जाते हैं.

भाषाविद इसे भाषा के विकास की स्वाभाविक दिशा कहेंगे. जिस भाषा को प्रभु माना जाता है उससे निकटता से गौरव ही बढ़ता है. तो एक तरफ़ उर्दू ग्रंथि के कारण उससे परहेज़ है दूसरी तरफ़ अंग्रेज़ी कुंठा के कारण अंग्रेज़ी के प्रति ललक है. आप घोर हिंदीवादी राजनीतिक दल के सर्वोच्च नेता, भारत के आज के प्रधानमंत्री की हिंदी सुन लें: अंग्रेज़ी मणियों के बिना उनकी हिंदी जगमगा ही नहीं सकती.

पिछले कुछ सालों से हिंदी में एक और बीमारी ने घर कर लिया है. 2019 में हिंदी कवि मंगलेश डबराल ने लिखा था, ‘हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है. हालांकि ऐसी घोषणा नहीं हुई है और शायद होगी भी नहीं क्योंकि उन्हें ख़ूब लिखा जा रहा है. लेकिन हिंदी में अब सिर्फ़ ‘जय श्रीराम’ और ‘वंदेमातरम्’ और ‘मुसलमान का एक ही स्थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान’ जैसी चीज़ें जीवित हैं. इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है. काश, मैं इस भाषा में न जन्मा होता.’

मंगलेश डबराल जैसा हिंदी का एक कवि अगर अपनी भाषा के पतन पर ऐसा शोक व्यक्त कर रहा हो तो क़ायदे से इसपर पूरे हिंदी समाज को आत्मचिंतन करना चाहिए था. वह न हुआ. उल्टे मंगलेश पर चौतरफ़ा हमला हुआ.

मंगलेश के इस बयान के आसपास ही रुचिर जोशी का एक लेख ‘हिंदू ‘ अख़बार में छपा: ‘क्या हिंदी जर्मन की राह जा रही है?’ तब उस लेख को पढ़कर इस लेखक ने तब जो नोट किया था उसे दोहराना आज भी ज़रूरी है: अपने लेख में ‘ रुचिर उस नुक़सान की बात करते हैं जो राजनीतिक दुरुपयोग के चलते किसी भाषा को हो सकता है. 1945 के बाद सिर्फ़ जर्मन या जर्मनी ही नहीं जर्मन भाषा से भी यूरोप में विरक्ति-सी हो गई थी. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि वह रिल्के या गेटे की भाषा है या इसी में काफ़्का जैसे यहूदियों ने भी लिखा था. कहने को यह भी कह सकते हैं कि जो भाषा कार्ल मार्क्स की हो, उसपर कोई तोहमत कैसे लगाई जा सकती है. या भाषा को आख़िर कैसे दोषी ठहराया जाता सकता है? लेकिन रुचिर के मुताबिक़ 1925 से 1945 तक जर्मन जिस घिनौने जनसंहार और नस्लवादी विचार की वाहक हो गई थी, उसके कारण उसकी छवि भी बदल गई थी.’

जो प्रश्न तब किया था वह आज भी प्रासंगिक बना हुआ है: ‘… हिंदी जिस तरह बहुसंख्यकवाद और हिंसा के प्रचार का माध्यम बन गई है, जिस तरह वह मुसलमान विरोध और हत्या की संस्कृति की प्रचारक बन गई है, कहीं वह भी हिटलर की जर्मन की राह न जा रही हो?’

शक है कि हिंदी दिवस के पावन अवसर पर कोई यह विघ्नकारी प्रश्न पूछे. लेकिन हिंदीवालों का पहला कर्तव्य आज यही है: हिंदी को हिंदीवाद से मुक्त करना, राष्ट्रवाद के चंगुल से आज़ाद करना, उसे घृणा और हिंसा की जगह समझ, सद्भाव की भाषा बनाना.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. )