हिंदी दिवस और राजकीय पाखंड

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बोलने वालों की संख्या के आधार पर हिंदी संसार की पांच बड़ी भाषाओं में एक है. पर ज्ञान, परिष्कार, विपुलता आदि के कोण से देखें तो तथ्य यह है कि हिंदी, चीनी या जापानी या कोरियाई की तरह ज्ञान-विज्ञान की भाषा नहीं है, न उस ओर अग्रसर ही है.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: behance.net)

हिंदी को लेकर इस पखवारे अनेक आयोजन होंगे जिनमें उसे लेकर बहुत सारे दावे किए जाएंगे; उसके माध्यम से भारत की एकता की संभावना का गुणगान किया जाएगा और उसके विश्व-भाषा बन जाने का राग अलापा जाएगा. हिंदी को लेकर राजकीय स्तर पर जो पाखंड है, वह एक बार फिर, सामने आने से रुक जाएगा. लाखों रुपये ख़र्च कर हिंदी पखवारा हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी मनाया जाएगा.

इस सबके बरक़्स ज़रा सचाई पर नज़र डाल लें. सचाई यह है कि दो-तीन अपवादों को छोड़कर भारत भर में विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग हिंदी साहित्य की समझ बनाने, प्रासंगिक शोध कराने, साहित्य का रसास्वादन कराने की क्षमता बढ़ाने में सर्वथा विफल और अक्षम हो चुके हैं. विश्व तो छोड़ें, हिंदी अंचल का कोई भी विश्वविद्यालय भारत के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में स्थान नहीं पाता.

हिंदी में, सामाजिक विज्ञान को छोड़कर ज्ञानोत्पादन बेहद क्षीण और शिथिल है. हिंदी मध्यवर्ग अपनी मातृभाषा से, भारत में, सबसे तेज़ी से दूर जाता वर्ग है. हिंदी में एमए और शोध करने वाले छात्र साफ़-सुथरी हिंदी न बोल पाते हैं, न लिख. हिंदी औपचारिक रूप से भले राजभाषा कहलाती है वह राजभाषा नहीं बन पाई, न केंद्र में, न हिंदी भाषी राज्यों में जहां पहले हिंदी का प्रयोग अच्छा-ख़ासा था पर इधर कम हुआ है. हिंदी में उसके साहित्य के अलावा कोई और उपलब्धि संभव नहीं हुई है.

हिंदी अंचल की राजनीति इस समय हिंदुत्व, धर्मांधता, सांप्रदायिकता, जातिवाद की चपेट में है और राजनीति-धर्म-मीडिया के गठबंधन ने हिंदी को झगड़ों-झांसों, हिंसा, घृणा और झूठ की मातृभाषा बना दिया है. हिंदी मीडिया ने सदल-बल हिंदी को अपार उत्साह से विकृत-प्रदूषित किया है. दक्षिण में उसकी स्वीकार्यता, लगता है, घटी है.

हिंदी में शिक्षा और साक्षरता का प्रसार हुआ है. लेकिन देश के सबसे धर्मांध, हिंसक जातिग्रस्त लोग हिंदी में हैं और ज़्यादातर पढ़े-लिखे हैं. स्त्रियों-बच्चों-दलितों-अल्पसंख्यकों-आदिवासियों के विरुद्ध जो जघन्य अपराध देश भर में होते हैं उनका 68 प्रतिशत, प्रमाणित सरकारी आंकड़े बताते हैं, हिंदी अंचल में होता है. रही विश्वभाषा बनने की बात सो बोलने वालों की संख्या के आधार पर हिंदी संसार की पांच बड़ी भाषाओं में एक है. पर ज्ञान, परिष्कार, विपुलता आदि के कोण से देखें तो तथ्य यह है कि हिंदी, चीनी या जापानी या कोरियाई की तरह ज्ञान-विज्ञान की भाषा नहीं है, न उस ओर अग्रसर ही है.

हिंदी पखवारे को स्थिति का आत्मालोचक आकलन करने का अवसर होना चाहिए, न कि पाखंड छुपाने और निराधार दावे करने और ढोल बजाने का, जो वह इस बार भी हस्बेमामूल होगा ही.

अप्रत्याशित और अपूर्ण

इन दिनों दिल्ली के किरण नादर कला संग्रहालय में अमिताव दास की कलाकृतियों की अब तक की सबसे बड़ी प्रदर्शनी चल रही है जिसे देखने हर दिन काफ़ी लोग, युवा छात्र आदि आ रहे हैं. इस प्रदर्शनी ने अमिताव दास को हमारे समय के एक महत्वपूर्ण और ज़्यादातर अमूर्त चित्रकार के रूप में प्रतिष्ठित और लोकप्रिय कर दिया है. इसी प्रदर्शनी में एक शाम संग्राहक रूबीना करोड़े ने अमिताव दास से एक लंबी बातचीत की. अमिताव अल्पभाषी हैं. कम बोलते हैं और संक्षेप में ही बोलते हैं.

उन्होंने यह बताया कि उनकी दिलचस्पी सिनेमा, संगीत, कविता आदि में रही है और ‘ये दूसरी कलाएं’ उनकी प्रेरणा के स्रोत रहे हैं. उन्होंने कवि लोर्का, कुरोसावा, बीथोवन की नवीं सिम्फ़नी आदि का ज़िक्र किया. एकाध उक्ति पिकासो की भी बताई. यह उल्लेखनीय था कि उन्होंने कला जगत में अपने किसी पूर्वज का नाम नहीं लिया. हिंदी आलोचना में प्रचलित पदावली में उन्हें एक कलावादी कलाकार क़रार दिया जा सकता है!

रूबीना करोड़े ने जब इसका ज़िक्र किया कि अमिताव की कलाकृतियों में कई तरह की कलासामग्री का उपयोग अप्रत्याशित ढंग से होता है तो मुझे लगा इन कृतियों का लक्ष्य अपने से बाहर नहीं है, और उनमें अप्रत्याशित की रमणीयता है. यह रमणीयता उन्हें संगीत के बहुत निकट ले आती है. इसका भी उल्लेख हुआ कि कृतियों में एक तरह की स्पष्ट लयात्मकता है: रंग-रेखाओं-आकारों से जो लय बनी है वह एक तरह के वृंदवाद में पर्यवसित हो जाती है. अमिताव ने स्वयं कहा कि जब-तब किसी कृति को देखना नहीं, सुनना चाहिए.

कृतियों की पूर्णता-अपूर्णता की चर्चा के दौरान अमिताव ने कहा कि उनके पास कहने का चित्रित करने को कोई कथा या आख्यान नहीं होता. जब कलाकृति पूरी हो जाती है तब कहानी शुरू होती है. ज़ाहिर है कि तब कहानी कृति में नहीं दर्शक या रसिक में मन में शुरू होती है. मुझे याद आया कि याज्ञवल्क्य ने कहा है कि यह संसार कथा समाप्त होने के बाद बचे रह गए प्रभाव की तरह है. संसार हो न हो, अमिताव का कला-संसार ऐसा ही है.

यह सोचना रोचक है कि कृति में जो होता है, उससे क़ाफी अलग और आवश्यक कुछ और उसके बाहर होता है. अगर इस बाहर का एहसास, कुछ समझ-पकड़ न हो तो कला का रसास्वादन अधूरा रहता है. फिर यह भी दिलचस्प है कि कोई कृति अपने अंदर क्या समाहित कराती उसका तो महत्व और भूमिका होते ही हैं, वह अपने बाहर क्या छोड़ती है यह भी जानना ज़रूरी होता है.

ऐसा जानना आसान नहीं होता क्योंकि अक्सर हम ऐसे ब्योरों में जाए बिना सरसरी तौर पर कृति देखने के आदी होते हैं. कला देखने-समझने के लिए सिर्फ़ भौतिक रूप से उसके सामने होना और देखना काफ़ी नहीं है: कुछ और कोशिश ज़रूरी है जिसके लिए हमारे पास अक्सर फुरसत, धीरज नहीं होते. हम देखते हुए भी कम देखते हैं, समझते हुए भी कम समझते हैं.

टेक्नोलॉजी और समाज

इस समय संसार के विभिन्न समाजों में जो हो रहा है उसका एक पक्ष इन सभी में टेक्नोलॉजी की लगातार बढ़ती हुई उपस्थिति और भूमिका है. सभी समाज देर-सबेर ‘टेक्नोलॉजिकल’ समाज बन रहे हैं. टेक्नोलॉजी विकास का माध्यम है और उसका पैमाना भी. भारत में भी हमारी टेक्नोलॉजी पर निर्भरता, उससे अपेक्षाएं, उस पर भरोसा लगातार बढ़ रहे हैं. अब हम टेक्नोलॉजी से संयमित-नियमित समाज हैं.

साथ-साथ संसार भर में समाज अधिकाधिक ‘ब्यूरोक्रेटिक’ समाज हो रहे हैं: नियमों-उपनियमों, प्रक्रियाओं, मनाहियों का जाल सा फैल गया है. इस वर्गीकृत समाज में नई गै़र-बराबरी, नए अन्याय, नई चूकें और अपराध, नए दंड विकसित हो रहे हैं और मानवीय व्यवस्था, मानवीय संचालन और संचार, यहां तक कि मानवीय विचार भी इससे प्रभावित और नियमित किए जा रहे हैं. ज़्यादातर समाज ऐसे विकसित हो रहे हैं कि उनमें पूंजी और सत्ता का एकाधिपत्य, नियमन-नियंत्रण, निगरानी और चौकसी, स्वतंत्रता और निजता में कटौती फल-फूल रहे हैं.

टेक्नोलॉजी ने आवागमन, संचार, सम्प्रेषण, सूचना, ज्ञान, अनुसंधान, संवाद आदि को निश्चय ही सुगम, सुलभ और किसी हद तक लोकतांत्रिक किया है. पर वही टेक्नोलॉजी, जो यह सब करती है झूठ, अपसूचना, फ़ेक न्यूज़, नफ़रत, अफ़वाह, दुर्व्‍याख्या, तरह-तरह की वाग्हिंसा और अन्य तरह की हिंसा फैलाने में बड़ी सक्रिय रही है. असल में टेक्नोलॉजी ने अब ऐसी स्वायत्तता पाली है कि अब टेक्नोलॉजी और टेक्नोलॉजी को जन्म दे रही है. वह अपने को ही बहुत तेज़ी से आउटडेट कर रही है.

अब वह मुक़ाम आ चुका है जब टेक्नोलॉजी मानवीय सर्जनात्मकता, मानवीय कल्पनाशीलता, मानवीय बुद्धि के क्षेत्र में घुसपैठ कर उन्हें अपदस्थ करने के लिए, उनका स्थानापन्न बनने की ओर अग्रसर है. अब तक तो टेक्नोलॉजी ने हमारी इंद्रियों की सहायता करने, उन्हें अधिक कुशल और सक्षम बनाया था: अब वह मनुष्य के ज्ञान-संज्ञान के अहाते में दाखि़ल हो रही है. मनुष्य का अंतर्जगत टेक्नोलॉजी के कब्ज़े में आने वाला है.

अभी तक मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग इसलिए माना जाता रहा है कि वह अमूर्तन, कल्पना, समय-बोध, ज्ञान आदि रच सकता है. कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) के युग में मनुष्य के ये सभी काम उससे छिन जाएंगे और वे कृत्रिम बुद्धिमत्ता द्वारा किए जाने लगेंगे. साहित्य और कलाओं में रचना, मौलिकता, प्रतिभा, लेखकत्व, रचयिता, अद्वितीयता आदि सभी संदिग्ध हो जाएंगे: जो काम मनुष्य करता था वह मशीनें करने लगेंगी, शायद अधिक तेज़ी और फुर्ती से. हम मनुष्य कम, मानवीय कम, ‘टेक्नोलॉजिकल’ अधिक हो जाएंगे. यह स्वप्न है कि दुस्स्वप्न, आकांक्षा है कि आत्महन्ता मानवीय प्रयत्न, हम इसकी ओर बढ़ रहे हैं.

इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता कि जिस समय में अनेक समाज टेक्नोलॉजी के प्रभुत्व में आ रहे हैं उसी समय उनमें लोकतांत्रिकता घट रही है; नस्ली हिंसा और नफ़रत बढ़ रही हैं; धार्मिक और साम्प्रदायिक कट्टरताएं उफान पर हैं; राजकीय और सामाजिक हिंसा तीख़ी और व्यापक हो रही है; निजता की लगातार हानि हो रही है; एकरूपता बढ़ती जा रही है; कई अपराधों की जघन्यता उरूज पर है; नई सक्षम टेक्नोलॉजी का उपयोग कर गाज़ा और यूक्रेन में हज़ारों लोग-बच्चे-स्त्रियां मारे जा रहे हैं; अस्पताल-स्कूल मिसमार हो रहे हैं और दुनिया लाचार देख रही है.

टेक्नोलॉजी की तथाकथित तटस्थता, निष्पक्षता बेहद संदिग्ध हो चुकी है और वह इन सबमें अपनी सक्रिय हिस्सेदारी से इनकार नहीं कर सकती. इस सबकी कितनी ख़बर हमें साहित्य और कलाओं में मिल रही है? क्या वे हमें सजग रूप से टेक्नोलॉजी द्वारा लाए जा रहे स्वर्ग और सत्यानास से अवगत करा रहे हैं? क्या वे हमें अपनी मानवीयता में संभाव्य कटौती से आगाह कर रहे हैं?

ये सब बातें ध्यान में आईं जब सितंबर 2024 के पहले सप्ताह में एसोसिएशन ऑफ क्रिएटिव थ्योरी, हर्बर्ट मार्क्‍यूज सोसायटी, रज़ा फाउंडेशन द्वारा आयोजित 11 वें ‘क्रिएटिव थ्योरी कोलोकियम’ में ‘टेक्नोलॉजी एंड सोसाइटी’ विषय पर एक लंबा परिसंवाद शुरू हुआ. उसमें जिन विषयों पर विचार हो रहा है उनमें टेक्नोलॉजी का दर्शन, कॉस्मिक चेतना और टेक्नोलॉजी, औषधि और टेक्नोलॉजी, विज्ञान-टेक्नोलॉजी और समाज, टेक्नोलॉजी और लोकतंत्र, श्रम-क़ानून और टेक्नोलॉजी, साहित्य और टेक्नोलॉजी आदि शामिल हैं. बड़ी संख्या में युवा अध्येताओं, शोधकर्ताओं, छात्रों की उपस्थिति ने आश्वस्त किया कि युवाओं में अभी बौद्धिक जिज्ञासा और बेचैनी बची हुई है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)