कौन जात हो भाई?….नहीं, मतलब किसमें आते हो? …मुझे लगा, हिंदू में आते हो! …आता हूं न साब! पर आपके चुनाव में. …पर आपके चुनाव में….पर आपके चुनाव में.
दलित कवि बच्चालाल ‘उन्मेष’ की बहुचर्चित कविता की ये पंक्तियां उत्तर प्रदेश विधानसभा की दस सीटों के आसन्न उपचुनावों से पहले कई हल्कों में बार-बार याद की जा रही हैं- अलबत्ता, थोड़े बदले हुए संदर्भ में. वैसे भी, इस प्रदेश में जब भी कोई चुनाव होता है, जातियों को मैदान में लाकर उसे जातियुद्ध में बदलने की सफल या विफल कोशिशें होती ही हैं.
लेकिन जैसा कि कवि-कथाकार प्रियदर्शन इस कविता के सिलसिले में अरसा पहले अपनी एक टिप्पणी में लिख चुके हैं, किसी को नहीं मालूम कि इसकी पंक्तियां याद आना प्रदेशवासियों की सोई हुई शर्म को जगा पाएगा या नहीं-जगा भी पाएगा तो कितनी देर के लिए?
मारे जाने वालों की जाति
इस सिलसिले में सबसे गौरतलब यह कि ‘थोड़ा बदला हुआ संदर्भ’ ऐसे लोगों की जाति का नहीं है, जिनसे पूछा जा सके कि ‘किसमें आते हो’, तो वे उसका जवाब दे पाए. उनकी जाति का भी नही है, जो मर-मर कर जीने को अभिशप्त हैं. जिंदा रहने की जद्दोजहद में हर कदम पर सौ-सौ बार मरने को मजबूर हो रहे लोगों की जाति का भी नहीं ही है. उनकी जाति का है, जिन्हें उत्तर प्रदेश पुलिस ने पिछले सात सालों में असली या नकली मुठभेड़ों में मार गिराया है.
कई लोग उत्तर प्रदेश को यों ही ‘प्रश्न प्रदेश’ थोड़े कहते हैं. जरूरत महसूस हो तो वह मारे जा चुके लोगों की जाति के प्रश्नों में भी उलझ सकता है- हां, उन्हें उलझा भी सकता है- और जीवनमरण का प्रश्न बने उपचुनावों के वक्त ऐसी जरूरत नहीं होगी तो कब होगी?
ऐसे में आश्चर्य नहीं कि इस प्रश्न में वे भी उलझे हुए हैं जो जाति जनगणना चाहते हैं और वे भी जो जाति जनगणना नहीं चाहते. दूसरे शब्दों में कहें तो सत्तापक्ष भी और विपक्ष भी. यहां तक कि वे भी जो कहते आए हैं कि जो मारे गए, वे अपराधी थे और अपराधियों की कोई जाति या धर्म नहीं होता.
आरोपों-प्रत्यारोपों के लंबे सिलसिले में उनके द्वारा कहें या उनकी ओर से बाकायदा अलग-अलग संख्याएं देकर बताया जा रहा है कि जो मारे गए हैं, उनमें किस जाति के ज्यादा हैं- अगड़ी या सवर्ण कही जाने वाली जातियों के या दलित व पिछड़ी जातियों के? सत्तापक्ष की ओर से यह तक दावा करने में कोताही नहीं की जा रही कि इन मुठभेड़ों में उसकी पुलिस ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की खुद की जाति अथवा उनके हिंदू वोट बैंक के ‘शिकार’ में भी कोई रियायत नहीं बरती है.
हां, यह संदर्भ इस अर्थ में जातियों के साथ धर्मों या कि ‘हिंदू-मुसलमान’ का भी हो गया है कि संबंधित पक्षों द्वारा यह भी बताया जा रहा है कि मारे गए लोगों में कितने हिंदू और कितने मुसलमान हैं और किसकी संख्या कम या ज्यादा है.
उपचुनाव आसन्न हैं तो राजनीति से तो इस संदर्भ को यों भी जुड़ना ही था, मारे जाने वालों के परिजनों व प्रियजनों के प्रति सहानुभूति का जाति व धर्म आधारित हो जाना भी अवश्यंभावी ही था.
सबसे बड़ा सवाल
लेकिन इस जुगलबंदी में यह सबसे बड़ा और सबसे जरूरी सवाल हाशिये में चला गया है कि उक्त मुठभेड़ों अवर्ण-सवर्ण, अगड़े-पिछड़े या हिंदू-मुसलमान जो भी मारे गए, वे मारे ही क्यों गए?
मध्ययुगीन इंसाफ व नैतिकताओं के हामी स्वनामधन्यों (जो दाल-भात में मूसलचंद की तरह कह रहे हैं कि इसलिए कि वे खूंखार गुंडे, माफिया या अपराधी थे और पुलिस या दूसरों के लिए खतरा बन जाने के कारण अपने जीने का अधिकार खो चुके थे.) की मान लें तो भी सवाल है कि क्या इससे उन आम लोगों का जीवन किंचित भी ज्यादा सुरक्षित हुआ है, जिनकी आश्वस्ति के नाम पर 2017 से लोकतांत्रिक न्याय प्रणाली को मुंह चिढ़ाकर ‘ठोंक देने’ का निरंकुश पुलिसिया सिलसिला चलाया जा रहा है?
इसे यों समझ सकते हैं कि सात सालों में प्रदेश में अपराध उन्मूलन के अनेक बड़बोले दावों के बावजूद ऐसी पुलिस मुठभेड़ों की जरूरत खत्म नहीं हो रही और यह तर्क सर्वाधिक ‘पुलिसप्रिय’ बना हुआ है कि जो व्यक्ति मरा, उसको जवाबी फायरिंग में तब मारा, जब वह उस पर गोलियां चलाकर या रायफलें छीनकर भागने की कोशिश कर रहा था. उसकी गोली, जिसे वह जिंदा गिरफ्तार करना चाहती है, उसकी टांग में लगती है अन्यथा… ऐसे में कैसे कहा जा सकता है कि आम लोग ज्यादा सुरक्षित अनुभव कर रहे हैं?
यहां तो सत्ता की हनक में डूबे भाजपाई भी कानून-व्यवस्था से जुड़ी बंदिशें नहीं मान रहे. ये पंक्तियां लिखने तक इसकी ताजा मिसाल यह है कि सोशल मीडिया पर लखीमपुर खीरी में एक सहकारी समिति के चुनाव में भाजपा विधायक मंजू त्यागी द्वारा कथित रूप से एसडीएम के सामने ही विपक्षी उम्मीदवारों के परचे लूट लेने का वीडियो चल रहा है, जिसमें आला अधिकारी एक दूजे का मुंह ताकते दिखाई देते हैं.
प्रदेश के 2022 के विधानसभा चुनाव में प्रचार के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने दावा किया था कि योगी जी ने प्रदेश में ऐसा रामराज्य ला दिया है कि अब 16 साल की लड़की भी गहने पहनकर रात के 12 बजे बिना डर के सड़कों पर घूम सकती है, लेकिन उसके दो साल बाद भी ऐसा ‘रामराज्य’ है कि उन लड़कियों की लाशें भी फंदों से लटकी पाई जा रही हैं, जिनके पास पहनने को गहने होते ही नहीं.
दूसरी ओर गहने हैं कि भरे बाजारों और सर्राफों के प्रतिष्ठानों में भी सुरक्षित नहीं हैं. रात को कौन कहे, दिन में भी नहीं और सुरक्षा के एहतियाती इंतजामों के बावजूद. कम से कम सुल्तानपुर में हुई बहुचर्चित डकैती तो यही बताती है.
महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के राष्ट्रीय महिला आयोग के आंकड़ों में तो प्रदेश अभी भी टाॅप पर है ही, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भी कोई अलग बात नहीं कहते. भले ही प्रदेश सरकार ‘ऑपरेशन कन्विक्शन’ चलाकर पकड़े गए अपराधियों को सजा दिलाने का नया रिकॉर्ड बनाने का दावा करती है.
इस सबसे साफ जाहिर है कि सात साल से चला आ रहा ‘ठोंक दो’ कितना बेसबब या बेलज्जत गुनाह है. इस गुनाह का कोई ‘हासिल’ है तो बस यही कि इसने न सिर्फ प्रदेश की पुलिस बल्कि समूचे सत्तातंत्र को अपराध नियंत्रण व इंसाफ की सारी लोकतांत्रिक व न्यायिक मान्यताओं को आंख दिखाने का अभ्यस्त बना दिया है.
पुलिस का वर्गचरित्र
ऐसे में उन्हें यह बात ही भला क्योंकर याद रह सकती है कि चूंकि हर अपराधी अंततः व्यवस्था की उपज होता है, इसलिए उसके खूंखार हो जाने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी व्यवस्था पर ही आती है और प्रदेश की वर्तमान सत्ता व्यवस्था भी इसकी अपवाद नहीं है. उलटे उसका अपराध इस मायने में कहीं ज्यादा बड़ा है कि अपनी अहमन्यता में वह इतना स्वीकारना भी गवारा नहीं करती कि उसकी जो पुलिस उसकी शह पर इन दिनों ‘मुठभेड़ बहादुर’ बन गई है, उसका आजादी के पहले से एक खास तरह का सामंती व अभिजनवादी वर्गचरित्र है और पुलिस सुधार के अभाव में वह अभी भी इससे मुक्त नहीं हो पाई है.
तिस पर निर्दोषों से फर्जी मुठभेड़ों की उसकी ‘परंपरा’ इस सत्ता व्यवस्था से बहुत पुरानी है. इसी का कुफल है कि जो दलित, पीड़ित, वंचित व अल्पसंख्यक समुदाय नए-पुराने सामंतों, पुलिस और अपराधियों सबकी कारगुजारियों की सबसे ज्यादा कीमत चुकाते हैं, पुलिस द्वारा अपराधी करार देकर मुठभेड़ में मार दिए जाने वाले युवा भी सर्वाधिक उन्हीं के होते हैं. कई बार वे पुलिस के अत्याचारों के प्रतिरोध की भी कीमत चुकाते हैं. हालांकि उसका गठन उनके जान-माल की रक्षा के लिए हुआ था.
याद कीजिए, इससे पहले एक ऐसा भी समय था जब हम अपराधियों को सुधारने की बात करते थे- यहां तक कि जेलों को भी उनका सुधार गृह बनाने की और इंसाफ की कसौटी यह थी कि भले ही सौ गुनहगार छूट जाएं लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए. अब अगर सारा जोर उन्हें या उनके नाम पर किसी को भी ठोंक देने पर दिया जा रहा है- उनके संहार पर- और बात इस ‘तर्क’ तक पहुंचा दी गई है कि ठोंक न देते तो वे जानें किस-किसको ठोंक देते, तो कम से कम यह तो बताया जाना चाहिए कि पिछले बरसों में इस ‘ठोंक दो’ ने अपराधियों में कितना डर पैदा किया है?
‘अपनों’ पर सदय!
अगर मारे जाने वाले ‘अपराधियों’ की जगह लेने के लिए दूसरे अपराधी आगे आ जा रहे हैं तो क्या उन्हें मारने वाली व्यवस्था के अलावा कौन है, जिसको इसका जवाबदेह ठहराकर उससे कहा जाए कि अपराधों का उन्मूलन अपराधियों को मारकर या कठोरतम दंड देकर ही नहीं, उनके कारणों को दूर करके ही संभव है. शोषण, भेदभाव और गैरबराबरी पर आधारित समाज व्यवस्थाएं और सत्ताएं अपने गिरेबान में झांककर खुद को बदले बगैर अपराधों के खात्मे को लेकर क्योंकर आश्वस्त हो सकती हैं?
खासकर जब वोहरा कमेटी द्वारा दशकों पहले इंगित किया गया नेताओं, नौकरशाहों और अपराधियों का गठजोड़ अब और मजबूत हो गया है और ‘पराये’ अपराधियों पर निर्दय सरकारें व राजनीतिक पार्टियां ‘अपने’ अपराधियों पर इतनी सदय रहने लगी हैं कि वे प्रतिनिधि सदनों की भी ‘शोभा बढ़ाने’ लगे हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)