बंगनामा: कलकत्ते पर दस्तक देती फीकी दुर्गा पूजा

दुर्गा पूजा को अब तीन सप्ताह भी नहीं रह गए हैं लेकिन कलकत्ता के बाज़ार लगभग ख़ाली हैं. एक जूनियर डॉक्टर के सामूहिक बलात्कार और हत्या का जन आक्रोश रास्तों पर बह रहा है, चौराहों पर उमड़ रहा है. बंगनामा स्तंभ की दसवीं क़िस्त.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia Commons/Goutam1962/CC BY-SA 4.0)

दुर्गा पूजा को अब तीन सप्ताह भी नहीं रह गए हैं लेकिन कलकत्ता शहर के बाज़ार, जहां हर वर्ष हर तबके के लोग त्योहार की ख़रीदारी के लिए जाते हैं, आजकल लगभग ख़ाली हैं. शहर के अख़बारों की तस्वीरों और लेखों में भी यह ख़ालीपन प्रतिबिंबित है. दिन में जाएं या शाम को, बीते सालों में इन दिनों जिन रास्तों और गलियों में तिल रखने की जगह नहीं होती थी, अब वहीं से हाथी गुजर जाए तो विस्मय न होगा.  शॉपिंग मॉल की ऊंची दुकानें भी सामान सजाए बैठी हैं लेकिन क्रेता नदारद हैं.

पूछने पर दुकानदार कहते हैं, ‘जब लोग प्रदर्शनों में या जुलूस में शामिल होकर सड़क पर  प्रतिवाद करने में व्यस्त रहेंगे तो वो पूजा की ख़रीदारी कैसे करेंगे?’ बड़े-बूढ़ों का मत है कि उन्होंने बाज़ारों को दुर्गा पूजा से पूर्व इतना ख़ाली कभी नहीं देखा है.

पश्चिम बंगाल में सेवारत होने के साथ ही मुझे राज्य के जीवन में दुर्गा पूजा का महत्व समझ में आने लगा था. सबसे पहले 1990 में ज़िला प्रशिक्षण के दौरान उत्तर 24 परगना ज़िले में तो मैंने इस त्योहार को एक सामाजिक तथा सांस्कृतिक उत्सव के रूप में ही देखा था.

पश्चिम बंगाल का जग प्रसिद्ध दुर्गोत्सव अपने भव्य, कलात्मक और सौंदर्यपूर्ण सजावट वाले पंडालों के लिए जाना जाता रहा  है. सच पूछिए तो शुरू में तो मुझे बहुत खीज होती थी कि लाखों-लाख रुपये पूजा पंडालों के निर्माण और सजावट में खर्च कर दिए जाते हैं जिनका विसर्जन भी लगभग मां दुर्गा की प्रतिमा के साथ ही हो जाता है. इससे तो कहीं अच्छा होता अगर इतनी बड़ी राशि से दर्जनों स्कूलों के नए भवन का निर्माण किया जाता!

किंतु जब मुझे विभिन्न ज़िलों और फिर कलकत्ता में काम करने का अवसर मिला तो इसके आर्थिक पक्ष की गंभीरता समझ में आई. तब जान पाया कि राज्य की अर्थव्यवस्था के कितने सारे क्षेत्रों में इसका प्रभाव पड़ता है- चाहे वह  फुटकर व्यापार हो या खाद्य उद्योग, हस्तशिल्प हो या तांत शिल्प, कला एवं सज्जा हो या मूर्ति कला. इस उत्सव के इन कई अलग-अलग पहलुओं से जुड़े क़रीब तीन लाख लोग रोज़गार पाते हैं.  2019 में की गई एक समीक्षा ने पाया था कि पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा के समय लगभग 33,000 करोड़ रुपयों के आर्थिक मूल्य का सृजन होता है जो कि राज्य के कुल घरेलू उत्पाद का 2.6 % है. 2023 में अनुमानित तौर पर यह राशि 50,000 करोड़ रुपयों से ज़्यादा हो गई थी.

जिस तरह बंगाल में लोग दुर्गा पूजा, या शरदोत्सव की प्रतीक्षा करते हैं उसी तरह पूजा की ख़रीदारी के लिए भी इंतज़ार रहता है. पैंतीस साल पहले जब मैं इस राज्य में काम करने के लिए पहुंचा तो पाया कि  हर तरह की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए लोग अपने शहर के बाज़ार पर ही निर्भर थे, लेकिन पूजा के ख़रीद-फ़रोख़्त के लिए सामर्थ्य वाले परिवार क्षेत्र के बड़े शहर जाना पसंद करते थे. जो उससे संतुष्ट नहीं होते थे वो फिर कलकत्ता पहुंचते थे.

दक्षिण बंगाल में राजधानी के आसपास के ज़िलों से तो संपन्न लोग ही नहीं बल्कि मध्य श्रेणी के परिवार भी बड़ी तादाद में पूजा से पहले विशेष ख़रीदारी के लिए कलकत्ता के बाज़ारों का भ्रमण करना पसंद करते थे- और कुछ हद तक अब भी करते हैं. इसलिए कलकत्ता के नामी-गिरामी पुराने बाज़ारों में दुर्गा पूजा से दो-तीन महीने पहले से ही चहल पहल आरंभ हो जाती है. उत्तर कलकत्ता में बड़ा बाज़ार, श्याम बाज़ार, हाती बागान, मध्य कलकत्ता में न्यू मार्केट और दक्षिण में गरियाहाट के बाज़ार सज-धजकर क्रेताओं के स्वागत के लिए तैयार हो जाते हैं.

1990 में दुर्गा पूजा अक्तूबर के दूसरे सप्ताह में मनाया जाने वाला था. लेकिन अगस्त के मध्य से ही  कलकत्ता के समाचार पत्रों में निजी क्षेत्र के व्यवसायों और उद्योगों के मालिकों और मज़दूर यूनियनों के बीच पूजा बोनस को लेकर रस्साकशी की खबरें उभरने लगीं. बारासात कलेक्टेरट, जहां मेरा ज़िला प्रशिक्षण हो रहा था, में सितंबर की शुरुआत से ही सरगर्मी दिखी- लगता था कि अफ़सरों और कर्मचारियों के पास चर्चा के बस दो ही विषय रह गए थे, एक तो पूजा की ख़रीदारी की बात और दूसरी पूजा बोनस या एडवांस. कम तनख़्वाह पाने वाले सरकारी कर्मचारियों को हर साल इस समय एक रक़म बोनस के तौर पर मिलती है. बाक़ी कर्मचारी अपने माहवार का एक निर्धारित भाग बतौर अग्रिम राशि ले सकते हैं जिसे कुछ किस्तों में आने वाले महीनों में सरकार बिना सूद उनके वेतन से काट लिया करती है.

ज़ाहिर है कि ये दो विषय ज़ंजीर की कड़ियों की तरह एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. सभी जानना चाहते थे कि उन्हें इस बार पूजा बोनस या एडवांस कितना और कब मिलेगा क्योंकि उनकी ख़रीदारी सूची की लंबाई उस पर आश्रित थी. यूं तो मैं पास के राज्य बिहार, अब झारखंड, में पलकर बड़ा हुआ था और हमारे शहर में भी दुर्गा पूजा धूमधाम से मनाई जाती थी, परंतु त्योहार की तैयारी में ख़रीदारी की इतनी बड़ी भूमिका मैंने नहीं देखी थी. कलेक्टरेट में पूछने पर कुछ बातें पता चलीं.

नब्बे के दशक में जब न तो शॉपिंग मॉल थे, न ही ऐमज़ॉन तथा फ्लिपकार्ट जैसे ई-वाणिज्य की विशाल दुकानें आप अपने मोबाइल में क़ैद कर अपनी जेब में लिए घूमते थे, जब आम लोगों की जेब में पैसे भी कम थे और बाज़ार में विकल्प भी सीमित, और जब बात बात पर हर दुकान ‘सेल’ का शोर नहीं मचाता थी तब मध्य और निम्न वर्ग के लोग रह-रहकर साल भर ख़रीदारी नहीं करते थे. तब बंगाल में ही नहीं हर राज्य में लोग विशेष पर्वों और अनुष्ठानों के उपलक्ष्य में ही नए कपड़े, घर का सामान इत्यादि ख़रीदते थे.

पश्चिम बंगाल में, विशेष रूप से दुर्गा पूजा के समय ही पूर्व कल्पित रूप से परिवार के सदस्यों के लिए साल भर के कपड़े और अन्य भेंट ख़रीदी जाती थीं. सभी बंगाली परिवारों की चाहत होती थी, और अब भी है, कि दुर्गा पूजा में कम से कम तीन दिन- सप्तमी, अष्टमी और नवमी  को परिवार के सदस्य नए कपड़े पहन कर मां दुर्गा के दर्शन करें, पंडालों को देखने जाएं. इसलिए बच्चों से लेकर युवक-युवतियों तथा कई वयस्कों का भी न्यूनतम लक्ष्य होता था तीन या चार जोड़े कपड़े. अब तो इतने कम कपड़ों से लोगों का काम न चले परंतु तीस-पैंतीस साल पहले इन तीन जोड़े कपड़ों का साधारण परिवारों में बहुत महत्व था क्योंकि इनके अलावा अगली दुर्गा पूजा तक फिर पहनावे ख़रीदे जाने की गुंजाइश शायद ही रहती थी.

दफ़्तर में मैं लोगों को बाजार जाने की योजना बनाते हुआ सुनता रहता था, ‘गोतो शनिबार-रब्बारो गिएछिलाम, किंतु आमार पूजोर केना-काटा होय नी. आर दु-तीन दिन जेते होबे ना होले होबे ना’ (पिछले शनिवार और रविवार को भी मैं गया था किंतु पूरी ख़रीदारी नहीं हो पाई. मुझे और दो-तीन दिन जाना होगा, नहीं तो हो नहीं पाएगा). एक अफ़सर, जिन्होंने मुझे बताया था कि उनकी एक ही पुत्री है, से मैंने पूछा कि आप का परिवार तो छोटा है फिर भी आपको इतनी ख़रीदारी करनी पड़ रही है? उन्होंने मुझे गिनवाया- माता-पिता, पत्नी और बेटी के अलावा जेठू-जेठी, काका-काकी, उनके बेटे, बेटियों और दामादों के लिए तो कपड़े लेने ही हैं. ‘… शोशुर बाड़ी तेओ जन दशेक आचे’ (ससुराल में भी दस लोग हैं).’ तब मुझे उन महाशय के माथे पर पड़े बल का कारण समझ में आया.

दरअसल बंगाल में संयुक्त परिवार के टूट जाने के बावजूद दुर्गा पूजा विस्तृत परिवार के रिश्तों का नवीकरण करने का एक अवसर भी होता है. यही समय है पारिवारिक पुनर्मिलन का, दोस्तों और स्वजनों से मिलने-जुलने का, रिश्तों को ताज़ा करने का- और संबंधों को सींचने के लिए सुंदर सौगात से ज़्यादा सिद्ध साधक क्या हो सकता है?

इस साल दुर्गा पूजा के पूर्व कलकत्ता के बाज़ारों को देखकर लग रहा है कि लोगों ने यह स्थिर लिया है कि यह भेंट देने-लेने का वक्त नहीं है. छोटे-बड़े सभी दुकानदार निराश हैं और क्रेता उदासीन. हस्तशिल्प और तांत शिल्प के कारीगर- जिनके लिए पूजा का बाज़ार वार्षिक रोज़गार का एक बड़ा अंश  होता है-  हताश हो रहे हैं. क्यों न हों?

9 अगस्त 2024 की रात को आरजी कर मेडिकल कॉलेज में एक जूनियर डॉक्टर के सामूहिक बलात्कार और हत्या पर जन आक्रोश अब भी रास्तों पर बह रहा है, चौराहों पर उमड़ रहा है. शहर के भिन्न इलाक़ों में अब भी आए दिन जुलूस निकल रहे हैं और जन सभाएं हो रही हैं. एक-सवा महीने के बाद भी एक ही मांग सुनाई दे रही है, ‘हमें न्याय चाहिए.’

मां दुर्गा की पूजा की तैयारी हो रही है, पर उत्सव की नहीं.

(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)

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