भारतीय समाज में हिंसा के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पांचेक दशक पहले गुंडई को अनैतिक माना जाता था और समाज में उसकी स्वीकृति नहीं थी. आज हम जिस मुक़ाम पर हैं उसमें गुंडई को लगभग वैध माना जाने लगा है- उस पर न तो ज़्यादातर राजनीतिक दल आपत्ति करते हैं, न ही मीडिया.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

मैं जिस छोटे शहर सागर में पला-बढ़ा उसमें उस समय यानी पिछली शताब्दी के चालीस-पचास के दशकों में कुछ गुंडों की समांतर सत्ता चलती थी. उन्हें गुंडा नहीं रंगदार कहा जाता था जैसे इन दिनों कई गुंडों को राजनेता, गोरक्षक, कई बार सांसद और मंत्री तक कहा और देखा जाता है. पता नहीं यह कब हुआ कि गुंडा होना कोई बाधा नहीं रहा.

बल्कि अब तो यह साफ़ देखा जा सकता है कि गुंडई ने बहुतों की राजनीतिक उन्नयन में बहुत मदद की है. यह भी देखा जा सकता है कि अनेक राजनीतिक दलों के पास गुंडों की फ़ौज है- उनके गुंडे, हमारे गुंडे. पता नहीं इसमें कितनी सचाई है पर बंगाल के अनेक मित्र बताते रहे हैं कि जो पहले सीपीएम के गुंडे थे, वे अब तृणमूल कांग्रेस के गुंडे हो गए हैं!

गुंडे अक्सर हिंसा, आक्रमण-प्रहार, झगड़े-झड़प, दंगे-फ़साद उकसाने और करने में बहुत सहायक होते हैं. इस पर विवाद हो सकता है पर गोदी मीडिया के बहुत सारे स्वामिभक्त पत्रकार और एंकर कई तरह की बारीक या भदेस गुंडई करते हर दिन देखे-सुने जा सकते हैं. टेलीविजन पर जितनी वाग्हिंसा हेाती है वह अभूतपूर्व है और हिंसा तो गुंडई का अनिवार्य पक्ष है.

भारतीय समाज की व्यापक मानवीय सहानुभूति और संवेदनशीलता में जो लगभग रोज़ीना कटौती हो रही है वह अभूतपूर्व हैं. यह तथाकथित अमृतकाल में हो रही है, इसे याद रखना चाहिए. यह भी कि भारतीय समाज में हिंसा के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है: हमारे बारे में यह मिथक अब ध्वस्त हो चुका है कि हम एक शांतिप्रिय और अहिंसक समाज है.

बीते दिनों ख़बर आई कि अयोध्या के बहुचर्चित राम मंदिर में सफ़ाई करने वाली एक युवती के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया है. धर्मस्थल इस अनैतिक अत्याचार से अछूते नहीं है. बल्कि वे, लगता है, हिंसा और अनाचार के केंद्र बनते जा रहे हैं. यह विडंबना है कि इस सबको लेकर हिंदू समाज में कोई उद्वेलन नहीं है. उसके ज़्यादातर विद्वत्ताहीन धर्मनेता गुंडई की कार्रवाइयों की मुखर होकर निंदा नहीं करते.

स्पष्ट है कि हिंदू धर्माचार नैतिक संकट में है और उसमें इतना साहस नहीं बचा है कि वह इन अनाचारों का विरोध करे जो उसका धार्मिक और हिंदू कर्तव्य है. इसका एक अभागा आशय यह है कि गुंडई को न सिर्फ़ व्यापक राजनीति में जगह मिल गई है बल्कि उसे हिंदू धर्म में भी मान्यता और जगह मिल रही है.

अगर वापस मैं अपने लड़कपन में लौटूं तो याद आता है कि उस समय की गुंडई को, उसके व्यापक प्रभाव के बावजूद, अनैतिक माना जाता था और समाज में उसकी स्वीकृति नहीं थी. उससे उलट अब हम जिस मुक़ाम पर हैं उसमें गुंडई को लगभग वैध माना जाने लगा है- उस पर न तो ज़्यादातर राजनीतिक दल आपत्ति करते हैं, न ही मीडिया.

हमारे संविधान-निर्माताओं ने यह कतई नहीं सोचा था कि अमृतकाल में गुंडई का हमारे लोकतंत्र में ऐसा वर्चस्व, ऐसी निर्णायक भूमिका होगी. हमारा लोकतंत्र एक कुतरी जा रही व्यवस्था है: एक ओर चोर-उचक्के उसे कुतर रहे हैं तो दूसरी ओर गुंडे उसे, उसके कुछ हिस्से को भयानक लालसा से भकोस रहे हैं.

विचार-पुनर्विचार

साहित्य में, विशेषतः उसके अकादमिक अंग में, विचार और वर्गीकरण की रूढ़ियां बनती रहती हैं और एक बार बन जाएं तो उनका विचार पर शिकंजा काफ़ी सख़्त और मजबूत हो जाता है. विचार उनमें ऐसे बंध जाता है कि वह फिर स्वतंत्र विचार होना बंद कर देता है और पुनर्विचार की संभावना और आवश्यकता दोनों ही समाप्त या स्थगित हो जाती हैं.

अक्सर यह होता है कि आरंभिक विचार कोई और करते हैं और अपनी रुचि और दृष्टि के अनुसार कुछ वर्गीकरण और विश्लेषण आदि करते हैं. अगर ऐसा करने वाले सुप्रतिष्ठित हुए तो उनका प्रभाव तो पड़ता ही है, यह भी होता है कि दूसरे लेखक फिर अपना स्वतंत्र विचार करने की ज़हमत नहीं उठाते और उन्हीं, दूसरों के विचारों से काम चला लेते हैं.

पुनर्विचार के अवसर आते रहते हैं. किसी लेखक या कृति के पचास या सौ साल पूरे होने पर उस पर पुनर्विचार किया जाए यह लगभग अनिवार्य लगता है. कुछ आयोजन और मुद्राएं भी ऐसे-ऐसी होती हैं, कि पुनर्विचार हो रहा है. अवसर यह तथाकथित पुनर्विचार विचार तक नहीं होता, न ही वह उस लेखक या कृति को नये सिरे से पढ़ने का कोई साक्ष्य होता है. अक्सर यह विचार पहले के विचार पर फिर विचार होता है, कृति या लेखक पर नहीं. कई बार ऐसा प्रभाव पड़ता है कि बदली हुई परिस्थिति में किसी लेखक या कृति को फिर से ब्योरेवार पढ़ा ही नहीं गया. जो पहले की पढ़तें दर्ज है उन्हीं से काम चलाया जा रहा होता है.

हिंदी में किसी कृति या लेखक को उसके सामाजिक आशयों में बलात् घटाकर उसी आधार पर उसे देखने-परखने की रूढ़ि इतनी गहरी धंस गई है कि उससे अलग ‘कोई पाठ लगभग असंभव हो गया लगता है. हर कृति या लेखक में समाज पढ़ने का उद्यम इतना सर्वग्रासी है कि भाषा, संरचना, उससे निकलने वाले संकेतों और आशयों को पकड़ने-समझने की न कोई कोशिश होती है, न कोई रसास्वादन.

हिंदी आलोचना के इस क़दर रसहीन और निष्प्राण होने की एक वजह यह है कि उसमें रचना को उसकी स्वायत्तता, जटिलता, सूक्ष्मता में पढ़ने की संभावना ही नहीं बची है. हर रचना अपने में निहित विचार से अधिक बड़ी, जटिल और अतिक्रामक होती है. विचार में कथ्य की लगभग तानाशाही है, कुछ ऐसे जैसे कि रचना भाषा और शिल्प में नहीं विचार में रची गई है. दृष्टि में रची गई है, जीवन-प्रसंगों, बिंबों-छबियों, मुखरता और मौन में नहीं. यह कटूक्ति करने का मन होता है कि यह सब साहित्य का अवमूल्यन करना है, उसके साथ अन्याय और अत्याचार करने के बराबर है.

इस प्रसंग में यह भी याद रचना चाहिए कि विचार एक कठिन-जटिल मामला है और जिसे हम विचार कहकर-मानकर चलते हैं वह दरअसल विचार नहीं, सिर्फ़ कथ्य का सरलीकरण होता है.

गुल्लकों का ख़जांची

कुछ दिनों पहले एक आयोजन में विनोद कुमार शुक्ल की चुनी हुई कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद की पुस्तक ‘ट्रेजरर ऑफ पिगी बैंक्स’ लोकार्पित हुई. अनुवाद किया है सुप्रतिष्ठित अंग्रेज़ी कवि अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा ने. वे अनुवादक के रूप में भी बहुत विख्यात हैं और उनके कबीर और रही के अनुवाद बहुप्रशंसित हैं.

विनोद जी की एक कविता का उनका अंग्रेज़ी अनुवाद विश्व-प्रसिद्ध पत्रिका ‘ग्रांटा’ में कुछ वर्ष पहले प्रकाशित हुआ था जो इस नई पुस्तक में शामिल है. कुछ और अनुवाद ‘मॉडर्न पोएट्री इन ट्रांसलेशन’, ‘मेटामार्फ्रेसेज़’, ‘ऑलमोस्ट आइलैंड’ आदि में भी प्रकाशित हो चुके हैं. इस पुस्तक के नाम ने मुझे कुछ उलझन में डाला.

दरअसल यह नाम विनोद जी की एक कविता से लिया गया है जिस पर पहले मेरा ध्यान नहीं गया था. पुस्तक में अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ मूल हिंदी कविताएं भी दी गई हैं. वह कविता इस तरह है:

जन्म के साथ एक न एक दिन मृत्यु–
एक जुड़वां जन्म है.
मैं जन्मजात मृत्यु लिए फिरता हूं.
जितने दिन जीवित रहूंगा
अपनी मृत्यु को बचाकर रखूंगा.
परंतु मृत्यु के बाद
गुल्लक में कहीं जीवन जमा रहता है.
गुल्लकों का खजांची बना फिरता हूं
उनके भी गुल्लक का.

पुस्तक वेस्टलैंड ने अशोक विश्वविद्यालय की एक सीरीज़ के अंतर्गत प्रकाशित की है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)