श्रीनगर/बड़गाम/पुलवामा: जम्मू और कश्मीर के विधानसभा चुनावों में कौन-किसका ‘प्रॉक्सी’ है, यह बहस रोज़ रोचक मोड़ लेती दिख रही है. सबसे मज़ेदार यह कि इस बहस को सबसे पहले छेड़ने वाले पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ही इसमें घिर गए हैं. 20 सितंबर की शाम, बड़गाम सीट से ‘अपनी पार्टी’ के उम्मीदवार मुंतज़िर मोहिउद्दीन ने उमर अब्दुल्ला के खिलाफ अपना नामांकन वापस ले लिया.
‘कश्मीर को एक सशक्त नेतृत्व की जरूरत है इस वक्त. मुझे लगता है कि उमर अब्दुल्ला ही वह नेतृत्व कर सकते हैं. इसीलिए अपने शुभचिंतकों से सलाह-मशविरा करने के बाद मैंने बड़गाम सीट से अपना नामंकन वापस लेने का फैसला किया है,’ मुंतज़िर ने बताया.
मुंतज़िर से जब पूछा कि यह ‘विचार’ उन्हें दूसरे चरण की वोटिंग से चार दिन पहले आया है, क्या इसे किसी तरह का राजनीतिक दबाव समझा जाए? मुंतज़िर का जवाब था, ‘यह मेरी राजनीतिक परिपक्वता है.’
दिलचस्प है कि मुंतज़िर मोहिउद्दीन अपनी पार्टी के मुख्य प्रवक्ता है. जहां एक तरफ पार्टी ने मुंतज़िर को कारण बताओ नोटिस जारी किया है, वहीं उमर अब्दुल्ला ने मुंतज़िर के फैसले का ‘स्वागत’ किया है. पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने मुंतज़िर मोहिउद्दीन के हृदय परिवर्तन को चुनाव में हेरफेर करने की कोशिश बताया है.
पीडीपी के बड़गाम उम्मीदवार मुंतज़िर मेहदी ने कहा, ‘अपनी पार्टी भाजपा की बी टीम रही है. उनके उम्मीदवार ने नेशनल कॉनफ्रेंस के उमर अब्दुल्ला के खिलाफ चुनाव लड़ने से मना कर दिया है. इस ‘रिश्ते’ को क्या समझा जाए?’
गौरतलब कि अपनी पार्टी का गठन अल्ताफ बुखारी ने वर्ष 2020 में, जम्मू और कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद किया. उस दौर में पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत मुख्यधारा के कई नेताओं को सरकार ने नज़रबंद रखा था. तभी अपनी पार्टी का भाजपा की प्रॉक्सी होने का दावा किया गया था. अपनी पार्टी के अध्यक्ष अल्ताफ़ बुखारी की प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के साथ करीबियों के कारण भी इन दावों को बल मिलता रहा है.
दरअसल, बड़गाम उमर अब्दुल्ला के नामांकन के बाद से ही सुर्खियों में रहा है. यह दूसरी सीट है जहां से उमर अब्दुल्ला चुनाव लड़ रहे हैं. उनकी पहली सीट गांदरबल है. उनके दो सीटों पर चुनाव लड़ने को लेकर कई धारणाओं के बीच एक आम धारणा है कि लोकसभा चुनावों में अवामी इत्तेहाद पार्टी के इंजीनियर राशिद से चुनाव हारने के बाद से उनका आत्मविश्वास हिल गया है.
उधर, नेशनल कॉन्फ्रेंस के कार्यकर्ताओं का कहना है, ‘उमर अब्दुल्ला को हराने की तरह-तरह की साजिश रची जा रही है. जानबूझकर ज्यादा से ज्यादा निर्दलीय उम्मीदवारों को उनके खिलाफ उतारा जा रहा है जिससे वोट बंटे. लड़ाई कड़ी हो जाए.’
कार्यकर्ता अपने तर्क को वजन देने के लिए अलगाववादी नेता सरजन बरकती के गांदरबल से नामंकन का जिक्र करते हैं. ‘दक्षिण कश्मीर के सरजन बरकती उत्तरी कश्मीर से और वह भी उमर अब्दुल्ला के खिलाफ चुनाव क्यों लड़ना चाहते हैं,’ नेशनल कॉन्फ्रेंस के बड़गाम जिला यूनिट से जुड़े जावेद मीर पूछते हैं.
‘एक-एक सीट पर पंद्रह-पंद्रह निर्दलीय उम्मीदवार खड़े हैं. कहीं तो कुछ साजिश है कि उमर अब्दुल्ला के खिलाफ वोट बंटे.’
‘बी-टीम’ और ‘प्रॉक्सी’ की बहस वोटरों के लिए नई चुनौती बन गई है. अकेले बड़गाम सीट से चौदह उम्मीदवारों ने नामांकन दायर किया था. जिसमें से 21 सितंबर की शाम तक चार उम्मीदवारों ने अपने नामांकन वापस ले लिए हैं. इनमें से तीन निर्दलीय और एक अपनी पार्टी के उम्मीदवार थे. दो नामांकन चुनाव आयोग ने रद्द कर दिए. बचे सिर्फ़ आठ उम्मीदवार.
‘नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस कश्मीर में मजबूत है लेकिन उमर अब्दुल्ला बहुत डरे हुए हैं. चाहे उनका लोगों से वोट की भीख मांगना हो या दूसरे उम्मीदवारों को प्रॉक्सी बताना- यह उनका डर ही है. सच कहूं तो नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के खिलाफ लोगों में बहुत गुस्सा है. इन्होंने हमारे (कश्मीरियों) के लिए कुछ भी ठोस नहीं किया. आज नेशनल कॉन्फ्रेंस हमें भाजपा का डर दिखाकर वोट लेगी लेकिन क्या मालूम कल को ये उनके साथ गठबंधन में सरकार बना ले,’ सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ कश्मीर में राजनीति विज्ञान के छात्र शाह तौक़ीर ने इस रिपोर्टर्स से कहा. तौक़ीर इन चुनावों में पहली बार वोट करेंगे.
उनके साथी इमरान अली भी पहली बार मत देंगे, पर उनके भीतर उत्साह नहीं दिखता. ‘किसको वोट दें? क्यों दें? कहते ये (राजनीतिक दल) एक-दूसरे को प्रॉक्सी हैं लेकिन जम्मू और कश्मीर में कौन प्रॉक्सी नहीं है,’ वह तंज़ भरी मुस्कुान लिए कहते हैं.
‘सब (सारे राजनीतिक दल) दिल्ली के प्रॉक्सी हैं. दिल्ली भी छोड़िए, सब भाजपा के प्रॉक्सी हैं. क्या नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए के साथ मलाई नहीं काटी? पीडीपी ने भाजपा के साथ सरकार चलाई. अपनी पार्टी के संस्थापक अल्ताफ बुखारी को गृह मंत्री अमित शाह से मिलने के कई मौके मिलते हैं. पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के सज्जाद लोन प्रधानमंत्री मोदी के मुरीद रहे हैं. हमारी नई-नवेली क्रांतिकारी नेता शेहला राशिद प्रधानमंत्री और भाजपा की सबसे बड़ी प्रशंसक हो चुकी हैं. हमारे यहां के आईएएस टॉपर जो एक रोल मॉडल थे, उन्होंने कश्मीरियों को न्याय दिलाने के लिए पार्टी बनाई, जेल गए और जब कुछ महीने ही जेल रहकर लौटे तो उनके सुर बदल गए. आज वापस आईएएस की नौकरी कर रहे हैं. तो कौन नहीं है प्रॉक्सी दिल्ली का?’
आईएएस टॉपर से उनका इशारा शाह फैसल की तरफ है, जिन्होंने जनवरी 2019 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सरकारी सेवा से इस्तीफा देकर दो महीने बाद मार्च महीने में जम्मू कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट पार्टी का गठन किया था. अगस्त 2019 में जम्मू कश्मीर राज्य का विशेष दर्जा समाप्त किए जाने के बाद फैसल को हिरासत में लेकर जन सुरक्षा कानून (पीएसए) के तहत मामला दर्ज किया गया था. जून 2020 में जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने उसी साल अगस्त महीने में अपनी ही बनाई पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था.
‘शाह फैसल जिस जेल में रखे गए थे अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद, वह जेल जैसा भी नहीं था. वह आलिशान शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कंवेन्शन सेंटर था,’ इमरान जोड़ते हैं.
‘प्रॉक्सियों’ की बहस की सबसे बड़ी गाज़ प्रतिबंधित संगठन जमात-ए-इस्लामी पर गिरी. जब ख़बर आई कि 37 वर्षों बाद जमात वापस चुनावी राजनीति का रुख करने वाला है, उनके फैसले पर तरह-तरह के कयास लगाए जाते रहे. ‘जमात को एजेंसियां चुनाव लड़वा रही हैं.’ ‘चुनावों के जरिये जमात-ए-इस्लामी अपनी राजनीतिक ज़मीन तलाश रहा है.’ ‘अगर चुनाव लड़ना ही था तो पहले क्यों नहीं लड़े, उग्रवाद को बढ़ावा क्यों दिया.’
इस तरह के कई सवालों और कयासों के बावजूद जमात-ए-इस्लामी ने दस सीटों पर स्वतंत्र उम्मीदवारों को अपना समर्थन दिया और इंजीनियर राशिद की आवामी इत्तेहाद पार्टी के साथ गठबंधन का ऐलान किया. पहले चरण का प्रचार थमने के कुछ घंटे बाद ही जमात-ए-इस्लामी ने एक और दांव खेला. प्रेस विज्ञप्ति जारी कर सभी स्वतंत्र उम्मीदवारों को भाजपा-आरएसएस का एजेंट बता दिया. (जमात-ए-इस्लामी और कश्मीर में राजनीतिक असमंजस की स्थिति पर हमारी विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ें.)
इन्हीं विषयों पर हमने जमात समर्थित स्वतंत्र उम्मीदवार डॉ. तलत मज़ीद से हमने बात की. वह एग्रीकल्चर और हॉर्टिकल्चर में पीएचडी हैं, पुलवामा की विधासभा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. पुलवामा स्थित उनके आवास पर उनसे हुई बातचीत के अंश:
वोटिंग हो चुकी है. क्या उम्मीदें हैं?
मैं नैरेटिव बनाने में सफल रहा. यह मेरी सबसे बड़ी जीत है. बाकी सबकुछ अब डिब्बे (ईवीएम) में बंद है. आठ अक्टूबर तक का इंतज़ार करते हैं.
कल शाम बड़गाम सीट से अपनी पार्टी के उम्मीदवार ने उमर अब्दुल्ला को समर्थन दे दिया. पर इससे पहले आप लोगों पर प्रॉक्सी होने के आरोप लगे हैं…
उमर अब्दुल्ला को बताना चाहिए कि मुंतज़िर पर उन्होंने कैसे जादू किया. बहरहाल मैंने पहले भी कहा था आपसे कि नेशनल कॉन्फ्रेंस अपने हिसाब से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को ‘हलाल’ और ‘हराम’ बनाती है. शेख अब्दुल्ला के वक्त से यही कर रहे हैं ये लोग. कभी कांग्रेस इनके लिए हलाल थी, फिर हराम हो गई. अभी फिर हलाल हो गई है कांग्रेस. जमात-ए-इस्लामी ने जब फारूक अब्दुल्ला का साथ दिया, तब जमात-ए-इस्लामी हलाल थी, आज उनके खिलाफ़ लड़ रहे हैं तो हराम हो गए हैं. जम्मू और कश्मीर की जनता बेहतर समझती है कौन किसका प्रॉक्सी है.
जमात-ए-इस्लामी ने आपका समर्थन किया, तब भी हमने आपसे बात की थी. अब जमात-ए-इस्लामी की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि आप सभी स्वतंत्र उम्मीदवार भाजपा-आरएसएस के प्यादे हैं. कैसे समझें इसे?
यह एक एज़ाज है. जमात-ए-इस्लामी समर्थन कर रही है, इससे बड़ी इज्ज़त किसी के लिए और क्या हो सकती है. जहां तक बात है प्रेस विज्ञप्ति की, वह बॉर्डर पार (पाकिस्तान) से जारी की गई थी. मैं उस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा. आप जियो-पॉलिटिक्स और कश्मीर बेहतर समझते हैं. कश्मीर में बहुत सारी बातें कही नहीं जातीं, महसूस की जाती हैं.
चुनावों में वापसी की प्रेरणा कहां से मिली?
2024 (लोकसभा) चुनावों के जो नतीजे आए, उससे हमें लगा कि हमें जम्हूरियत में हिस्सा लेना चाहिए. जहां-जहां भी उन्होंने (भाजपा ने) हेट स्पीच दी, वहां-वहां वे हारे. भारत एक लोकतांत्रिक और सेकुलर देश है. जीत के तमाम दावों के बीच जो नतीजे आए, उनसे हमारा हौसला बढ़ा. चूंकि जमात-ए-इस्लामी प्रतिबंधित है इसीलिए जमात ने फैसला किया कि वे स्वतंत्र उम्मीदवारों को समर्थन देंगे.
कश्मीरियों में एक आम धारणा है कि भारतीय राज्य आपको चुनाव लड़वा रहा है. मुख्यधारा की पार्टियां भी यह कह रही हैं.
यह आम कश्मीरी नहीं कह रहे. सियासी पार्टियों का इल्ज़ाम है हम पर. दरअसल ये सियासी पार्टियां सियासत को विरासत समझती हैं. इन दो पार्टियों (एनसी और पीडीपी) को लगता है कि वही यहां राज कर सकती हैं. भारत जम्हूरी मुल्क है. कोई भी चुनाव लड़ सकता है. रिवायती पार्टियों का ये पुराना पैंतरा है. जो भी चुनाव लड़े उसे ‘बी’ टीम कह दो. जनता इन पैंतरों को समझ चुकी है. इंजीनियर राशिद को भी इन्होंने बी टीम कहा. इस बार जनता उम्मीदवारों को देखकर वोट करेंगी, पार्टियों को देखकर नहीं.
जमात ने कश्मीर में सशस्त्र विद्रोह का समर्थन किया था. क्या जमात का रुख अब बदला है?
जमात-ए-इस्लामी के साथ-साथ मैं भी कहूंगा कि हमें राजनीतिक और लोकतांत्रिक चीज़ों का समाधान देखना चाहिए था.
मतलब आप मानते हैं कि जिस तरह लड़कों ने बंदूकें उठाईं और जमात ने जो समर्थन उन्हें दिया, वह गलत था?
इसको आप जियो-पॉलिटिकल परिप्रेक्ष्य में देख लीजिए. उस वक्त और आज के हालात में अंतर हैं. जब आप तुलना करेंगे तो पाएंगें कि उस वक्त क्या हुआ और क्यों हुआ. आज हर कश्मीरी को पता है कि क्या सही था, क्या गलत है.
अगर आप चुनाव जीतकर आते हैं, तो किस गठबंधन की तरफ खुद को ज्यादा महफूज़ पाएंगें? या स्वतंत्र ही रहेंगे?
यह सवाल मेरे लिए नहीं है. यह जमात-ए-इस्लामी तय करेगी कि हमें किस तरफ जाना है. वैसे मैं मानता हूं कि पॉलिटिक्स इज़ एन आर्ट ऑफ पॉसिब्लिटिज़. हमारे दरवाज़े सबके लिए खुले होंगे.
कई लोगों को यह मानने में मुश्किल हो रही है कि एक प्रतिबंधित संगठन के उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं. कश्मीर में मुख्यधारा की पार्टियों को नेस्तोनाबूद करने की कोशिश हो रही है. कहीं न कहीं भारत सरकार चाहती है कि कश्मीर में नया नेतृत्व तैयार हो जिसके साथ बाद में काम किया जा सके?
देखिए मैं एक स्वतंत्र उम्मीदवार हूं. मेरा जम्हूरी हक है चुनाव लड़ना. पारंपरिक पार्टियां नहीं चाहती कि इन्हें किसी तरह की कोई चुनौती मिले. इसीलिए ये लोगों में भ्रम फैलाते रहते हैं. कभी बी टीम, कभी भारत सरकार की साजिश. जम्हूरियत में सबको हक है चुनाव लड़ने का.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)