नई दिल्ली: डिजिटल जगत ने अन्य क्षेत्रों की तरह प्रकाशन पर भी गहरा असर डाला है. हर हाथ में स्मार्टफोन और हर स्क्रीन पर अनंत जानकारी के सागर ने प्रिंट के सामने बीहड़ प्रश्न खड़ा किया है. स्क्रीन पर त्वरित बदलती तस्वीरों के बीच क्या प्रिंट अपना कहीं मद्धिम स्वरूप बचाए रह सकता है? हिंदी पखवाड़े के अवसर पर हमने कुछ प्रकाशकों के सामने वे प्रश्न रखे जिनसे आज हिंदी के तमाम विद्यार्थी गुजर रहे हैं.
1. डिजिटल माध्यम के आने से प्रिंट प्रकाशन किस तरह प्रभावित हुआ है?
उदयन वाजपेयी (कवि-कथाकार और ‘समास’ पत्रिका के संपादक): डिजिटल माध्यम के आने के बाद मुद्रित पत्रिकाओं पर कम-से-कम एक दबाव बढ़ा है, वह है पत्रिका को जल्द-से-जल्द प्रकाशित करने का. पर अगर हम इस दबाव को स्वीकार कर लेते हैं, मुद्रित पत्रिकाएं निश्चय ही अपनी उत्कृष्टता को खो देंगी.
अशोक महेश्वरी (राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक): डिजिटल माध्यमों के आने से प्रिंट प्रकाशन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा है. प्रिंट किताबें अपनी जगह मजबूती से बरकरार हैं और पहले से बेहतर स्थिति में हैं. ई-बुक और ऑडियो बुक जैसे डिजिटल माध्यम उसके अलग-अलग रूप हैं. पाठक अपनी पसंद से किसी भी माध्यम में किताब लेकर पढ़-सुनकर अपना ज्ञानवर्धन कर सकता है. इनकी प्रिंट किताबों से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है.
प्रभात रंजन (कथाकार-अनुवादक और वेब पत्रिका ‘जानकी पुल’ के संस्थापक-संपादक): इस प्रश्न को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो डिजिटल के आने से प्रिंट माध्यम को विस्तार मिला है. आज चाहे वह कोई पत्रिका हो या पुस्तक प्रकाशन, इनको अपने प्रचार-प्रसार के लिए डिजिटल की बहुत आवश्यकता होती है. एक तरह से जिन पत्रिकाओं की डिजिटल उपस्थिति नहीं दिखती है उनकी प्रिंट उपस्थिति भी क्षीण हो जाती है. इस प्रभाव को एक और स्तर पर इस तरह से देखा जा सकता है कि डिजिटल ने प्रिंट की सामग्री के ऊपर दबाव डाला है. अब अख़बारों को या पत्रिकाओं पर भी ऐसी सामग्री प्रकाशित करने का दबाव रहता है जिससे पाठकों का ध्यान तत्काल उस दिशा में जाए. एक तरह से देखें तो डिजिटल ने प्रिंट की स्वायत्तता को समाप्त कर दिया. उनको क्षणजीवी बना दिया है.
शैलेश भारतवासी (हिंद युग्म के संस्थापक और प्रधान संपादक): मुझे लगता है कि डिजिटल के आने से प्रिंट कई स्तरों पर प्रभावित हुआ होगा. लेकिन एक बड़ा परिवर्तन जो मुझे दिखता है कि पहले हम प्रिंट को सूचना के लिए इस्तेमाल करते थे. किसी भी विषय, किसी भी क्षेत्र, किसी भी किस्म की जानकारी- विशेष तौर पर सूचना के रूप में- के लिए हमारे पास प्रिंट का ही विकल्प था.
लेकिन अब लोग प्रिंट को प्राथमिकता नहीं देते हैं क्योंकि प्रिंट में किसी चीज़ को ढूंढने या किसी चीज़ तक पहुंचने में जितनी मेहनत चाहिए या जितने संसाधन चाहिए या जितनी वो जगह घेरेगा,पुराने लोगों को तो उसकी आदत है, लेकिन नए लोग – विशेष तौर पर इंटरनेट की आमद के बाद जब इंटरनेट तक पहुंच आसान है और इंटरनेट सस्ता भी है – सूचना के लिए प्रिंट प्रकाशनों का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.
इसलिए आप देखेंगे कि कोविड के बाद भारत में इंटरनेट के विस्तार से प्रिंट का प्रसार कम हो गया. आप मान लीजिए किसी को कहीं घूमने जाना हो तो उसके लिए उस देश के बारे में जानकारी चाहिए, किसी खास क्षेत्र का खास डेटा चाहिए. वह सब इंटरनेट के माध्यम से ढूंढ़ पाना बहुत आसान है. जानकारी तक पहुंचना बहुत सरल है. सर्च इंजन बहुत सटीक तरीके से वहां तक पहुचांते हैं. इसलिए मुझे लगता है कि प्रिंट में इस तरह की जानकारी की मांग लगभग न के बराबर हो जाएगी.
हम जिस तरह की पुस्तकें प्रकाशित करते हैं वो सब साहित्यिक हैं और उसमें हमने बहुत बड़ा बदलाव नहीं देखा है. इसका एक बहुत बड़ा कारण ये भी है कि हम बहुत पुराने प्रकाशक नहीं है. 13-14 साल से ही प्रकाशन कर रहे हैं और हमारा जन्म ही डिजिटल समय में हुआ है. इसलिए डिजिटल की बढ़त से हमारी घटत तब दिखालाई पड़ती है जब हम डिजिटल से पहले से मौजूद होते हैं. शायद हम लोगों की सामग्री का प्रकार जो है लोग उसे अभी भी प्रिंट में पढ़ना करना पसंद करते है. लेकिन कई सारे क्षेत्रों में डिजिटल के आने से प्रिंट प्रकाशनों पर बहुत प्रतिघात हुआ है.
अविनाश मिश्र (कवि-लेखक और ‘सदानीरा’ पत्रिका के संपादक): डिजिटल माध्यम के आने से प्रिंट प्रकाशन इस तरह प्रभावित हुआ है कि प्रिंट प्रकाशनों को अपना रूप-विस्तार डिजिटल में भी करना पड़ा है. इस तरह प्रकाशन का संसार पहले की तुलना में अधिक व्यापक, गतिशील और सहज हुआ है. इस तरह देखें तो अब डिजिटल तो डिजिटल है ही, प्रिंट भी प्रिंट के साथ-साथ स्वयं को डिजिटल कैसे करे, इस पर सतत सोचता रहता है. कुल-मिलाकर यह वैकल्पिकता स्वागत-योग्य है.
2. डिजिटल माध्यम ने पाठकों के स्वभाव को तथा साहित्यिक विधाओं को किस तरह परिवर्तित किया है?
उदयन वाजपेयी: डिजिटल माध्यम पाठकों को चाहे-अनचाहे पढ़ने में हड़बड़ी करना सिखाते हैं. वे उसे एक कृति से दूसरी पर जल्द-से-जल्द फिसलना भी सिखाते हैं, चाहे-अनचाहे. इससे पाठकों में मुद्रित पत्रिकाएं पढ़ते समय भी कई बार एक किस्म की हड़बड़ी होती है, जिसके चलते वे किसी भी गहरी-से-गहरी, मुश्किल-से- मुश्किल कृति को सरसरी तौर पर पढ़ने की ओर मुड़ जाते हैं. इससे वे अपने अंजाने ही पढ़ते हुए भी दरअसल नहीं पढ़ रहे होते. इस माध्यम में अतिशय काम करने वाले लेखक अमूमन अपनी कृतियों की गहनता, गंभीरता (जिसका अर्थ अपठनीय हो जाना कतई नहीं है) आदि को चमकीले वाक्यों से सजे उथलेपन से विस्थापित कर लेते हैं. वे अमूमन ऐसा लिखने की कोशिश करते हैं, जो एक बार पढ़ने पर उद्धरणीय हो सके. इस रास्ते कभी कोई बड़ा साहित्य नहीं रचा जा सकता.
अशोक महेश्वरी: मुझे लगता है कि अब हमारे पाठक के पास समय की बहुत कमी है. उसकी बहुत सारी व्यस्तताएं और प्रतिबद्धताएं हैं. वह पहले से ज्यादा सजग है. उसके पास पहले से ज्यादा जानकारियां हैं; जानकारी पाने की इच्छाएं भी ज्यादा हैं. वह समय का सदुपयोग करते हुए अपनी सुविधा के अनुसार किताबें पढ़ना चाहता है. अब पाठक केवल आनंद के लिए किताबें नहीं पढ़ता, वह अपनी जानकारी बढ़ाने और दूसरों को प्रभावित करने के लिए भी किताबें पढ़ता है. पाठक गाड़ी चलाते हुए, ट्रेन या हवाईजहाज में सफर करते हुए भी किताब का साथ चाहता है. ऐसे में डिजिटल माध्यम उसे ज्यादा सुविधा देते हैं. पाठक उन्हें स्वीकार भी कर रहे हैं.
पाठकों की रूचियां भी बदल रही हैं. पाठक कल्पना से रची हुई कहानियों से हटकर यथार्थवादी साहित्य को ज्यादा पसंद कर रहे हैं. पाठक अब लेखक के व्यक्तिगत जीवन और अनुभवों के बारे में भी जानना चाहता है. उसकी रुचि पत्रों में, डायरी में, संस्मरणों में, जीवनी, आत्मकथा, यात्रा वृत्तांत जैसी वास्तविक जीवन की कहानियों की तरफ बढ़ रही है. इसे कमोबेश बदलते समय में पाठकों की जरूरत माना जा सकता है.
प्रभात रंजन: डिजिटल माध्यम एक तरह से पाठक केंद्रित माध्यम है. यह माध्यम लाइक-कमेंट की संख्या से प्रभावित होता है, इसलिए इसमें पाठकोन्मुखी सामग्री प्रकाशित करने का दबाव रहता है. डिजिटल पाठकों की रुचि के विस्तार पर उतना ध्यान नहीं देता है. जहां तक साहित्यिक विधाओं का प्रश्न है तो इसने हिंदी में विधाओं का विस्तार किया है. जिससे एक तरफ यात्रा-वृत्तांत, डायरी आदि विधाओं को महत्व प्रदान किया है तो दूसरी तरफ डिजिटल ने हिंदी में आलोचना विधा को अप्रासंगिक बना दिया. इस माध्यम के कारण मूल्यांकनपरकता के स्थान पर प्रचारपरकता को बल मिला है. डिजिटल ने पठनीयता को ही साहित्य के मूल्य की तरह से स्थापित कर दिया है.
शैलेश भारतवासी: आप पूछ रहे हैं कि प्रवृति कैसे बदली है. एक तो यही बदल गई है कि सूचना और डेटा के लिए लोग डिजिटल माध्यम का भरोसा करने लगे हैं. भरोसे से अधिक मतलब सुविधापूर्ण होने से है, आपको खाना बनाना है, आपको कपड़े खरीदने हैं, आपको किसी भी विषय पर शोध करना है, किसी भी विषय पर अधिक जानकारी चाहिए, या तुरंत जानकारी चाहिए, किसी शब्द का अर्थ देखना है, इस तरह की चीज़ों के लिए लोग डिजिटल पर जाने लगे हैं. एक इस किस्म की प्रवृत्ति विकसित हुई है. दूसरा यह कि डिजिटल माध्यम में तरह-तरह की सामग्री है.
सब लोग यह कहते ही हैं कि शॉर्ट्स और रील से ध्यान एकत्रित करने की अधिकतम समय सीमा में काफी संकुचन हुआ है. उस संकुचन की वजह से किसी भी तरह की साहित्य, सूचना या कोई जानकारी अगर आप अपने लक्षित पाठकों को देना चाहते है और उसे बहुत रूचिकर बनाने में सफल नहीं हैं तो डिजिटल जमाने के पाठक तक पहुंचना काफी मुश्किल है.
अविनाश मिश्र: डिजिटल माध्यम ने पाठकों को हड़बड़ग्रस्त, अति उत्तेजित और त्वरित प्रतिक्रियाशील बनाया है. इसने धैर्यशीलता, विचारोत्तेजकता और सहिष्णुता सरीखे मूल्यों को लगभग विदाई दे दी है. आज डिजिटल माध्यमों पर सक्रियता और इन मूल्यों का निर्वाह एक साथ असंभव है. निरर्थक किस्म की विवादमयता ने भी इस दृश्य को बहुत ख़राब अर्थों में असर-अंदाज़ किया है. अब कोई भी मुंह उठाकर हिंदी भाषा और साहित्य के बारे में निर्णायक राय दे सकता है. इसके लिए साहित्य-साधक होना तो छोड़िए, अब साहित्य-रसिक होना भी ज़रूरी नहीं रहा.
3. इस माध्यम ने रचनाकारों और प्रकाशकों के संबंध पर क्या असर डाला है? ऐसे कौन-से दवाब हैं जिनसे इस माध्यम को बरतने वाले रचनाकार गुजरते हैं?
उदयन वाजपेयी: सभी प्रकाशक एक-से नहीं हैं. मैं हिंदी के प्रकाशकों के विषय में यह पक्के तौर पर कह सकता हूं. लेकिन कई ऐसे प्रकाशक ज़रूर हैं, जिन पर डिजिटल माध्यम का दबाव पड़ा है. उनमें ऐसे साहित्य को प्रकाशित करने की रुचि बढ़ गई है, जो पठनीय तो हो, पर किसी गहरे मानवीय मूल्य को न तो उद्घाटित कर पाता हो और न प्रस्तुत. इसका अर्थ यह कतई नहीं कि जो भी पठनीय है वह अनिवार्यतः गहन मानवीय मूल्य और सौंदर्यबोध को उद्घाटित करने वाला साहित्य नहीं होगा. पर हम जिसे ‘पल्प’ साहित्य कहते हैं, उसमें ज़्यादातर पठनीयता के सिवा कुछ नहीं होता. यह एक ओछे किस्म की पठनीयता होती है, जिसके सहारे आप ब्रह्मांड में अपने होने के रहस्य की इबारतों को न तो पढ़ पाते हैं और न उस दिशा में आगे बढ़ पाते हैं.
अशोक महेश्वरी: सबसे बड़ी चीज जो इस समय में हुई है वो यह कि अब रचनाकार केवल साहित्य रचने वाला ही नहीं रह गया है, वह अब रचनाकार के साथ-साथ प्रकाशक भी बन गया है. स्व-प्रकाशन (सेल्फ पब्लिशिंग) का विस्तार बहुत तेजी से हो रहा है. बहुत सारे ऐसे प्रकाशन और संस्थाएं हैं जो केवल स्व-प्रकाशन पर ही जिंदा हैं. इस तरह के प्रकाशकों का काम भी बहुत सुविधाजनक हो गया है. वे लेखक से जैसी पांडुलिपि पाते हैं उसे वैसा ही छाप देते हैं, संपादन की जरूरत ही नहीं समझी जाती क्योंकि लेखक को भी अपने लिखे को संपादित करवाना पसंद नहीं. इससे लेखक और प्रकाशक दोनों संतुष्ट हैं, पाठक से उन्हें ज्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता. पाठकों तक पहुंचने की इच्छा शायद ऐसे लेखकों और प्रकाशनों में कम होती है. वो केवल अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए किताब पर अपना नाम देखना चाहते हैं. ऐसे लेखकों को पाठक तक पहुंचने और एक लेखक के रूप में स्थापित होने से ज्यादा किताब से अन्यान्य लाभ प्राप्त करने का इरादा अधिक रहता है. रचनाकारों की यह अलग ही श्रेणी है. जिन्हें हम साहित्यिक ‘लेखक’ के रूप में जानते हैं उनसे वे दूर ही रहते हैं. पारंपरिक प्रकाशन अब भी लेखक-प्रकाशक के आपसी संबंधों पर ही कायम है.
प्रभात रंजन: रचनाकारों और प्रकाशकों के संबंध को इसने बहुत हद तक बदला है. डिजिटल ने प्रकाशकों के ऊपर पारदर्शी होने का दबाव बनाया है. रचनाकारों को अब प्रकाशक पहले से अधिक महत्व देने लगे हैं. लेकिन दूसरी तरफ अभी भी प्रकाशन की दुनिया प्रकाशक केंद्रित है. लेखक भी सेकेंडरी है. प्राथमिक भूमिका में प्रकाशक ही है.
रचनाकारों के लिए अब यह दबाव रहता है कि वे नए से नए विषय उठाएं और उनको पठनीय तरीके से लिख भी पाएं. डिजिटल माध्यम ने अगर रचनाकारों को बड़ा मंच दिया है तो दूसरी तरफ़ उनके सामने बड़ी चुनौती भी उपस्थित कर दी है. इसके कारण साहित्य की गहराई ख़त्म हो रही है और एक तरह का सतही लेखन ही केंद्र में आ रहा है. अमूर्तन का स्थान कला से खत्म हो गया है.
शैलेश भारतवासी: सिर्फ प्रकाशन की बात है. किसी भी क्षेत्र में डिजिटल क्रांति के बाद संपर्क आसान हुआ है. बहुत सारी चीजों का लोकतांत्रिकरण हुआ है. इससे तो संबंध बेहतर ही हुए होंगे. डिजिटल की वजह से बतौर प्रकाशक मैं अपने लेखकों से जल्द से जल्द आसानी से जुड़ पाता हूं. इससे संबंध बेहतर हुए हैं.
अविनाश मिश्र: आज हिंदी में रचनाकारों और प्रकाशकों के बीच संबंध बिल्कुल भी सहज, सरल और स्वाभाविक नहीं रह गए हैं. एक सच्चे रचनाकार के ताप और आत्म-सम्मान का सामना, सच्चाई और ईमान के साथ कर सके: ऐसा एक भी प्रकाशक आज हिंदी में नहीं हैं, जबकि रचनाकार कम से कम 50 हैं. वहीं, दूसरी तरफ़ गैर-लेखक, सेलेब्रिटी, सांप्रदायिक, सत्तापरस्त, अवसरवादी, चरित्रवंचित और दोमुंहे व्यक्तित्वों के साथ हमारे प्रकाशक काफ़ी संलग्न, प्रसन्न और एकाग्र नजर आते है.
4. क्या भविष्य में ऐसी संभावना है कि प्रकाशन की दुनिया पर डिजिटल पूरी तरह काबिज़ हो जाए और प्रिंट लगभग न्यून हो जाए?
उदयन वाजपेयी: ऐसा कभी नहीं होगा. जब तक मनुष्य है, उसके हाथों में कमोबेश किताब ज़रूर होगी. ऐसे बहुत से लोगों को मैं जानता हूं, जो युवा हैं पर जिन्हें हाथ में छपी हुई किताब या पत्रिका लिए बगैर कुछ भी पढ़ने का आनंद नहीं आता. कहा जा सकता है कि यह एक तरह का रोमान है. पर क्या जीवन को यह रोमान ही जीने लायक नहीं बनाता.
अशोक महेश्वरी: मुझे ऐसी संभावना पहले भी नहीं लगती थी, अब भी ऐसा नहीं लगता. जब भी कोई नया माध्यम आता है तो हर बार यही आशंका जताई जाती है कि पुराने माध्यम चलन से बाहर हो जाएंगे. प्रिंट माध्यम के साथ ऐसा नहीं है. क्योंकि जब टीवी आया तो यह कहा जा रहा था कि अब किताबों को कोई नहीं पढ़ेगा. टीवी देखने के बाद पाठकों की जिज्ञासा बढ़ने लगी और उसके शमन के लिए किताबें ही साधन बनीं. अब भी ऐसा ही हो रहा है. जितने भी नए माध्यम आए वे किताब के ही अलग-अलग रूप बने, न कि प्रतिद्वंद्वी. प्रिंट हमेशा अपनी जगह रहेगा. गंभीर लेखन, गंभीर साहित्य की जगह हमेशा रहेगी. डिजिटल माध्यम के प्रिंट पर काबिज होने की कोई संभावना मुझे तो नहीं लगती.
प्रभात रंजन: यह आदर्श स्थिति होगी कि प्रकाशन की दुनिया पूरी तरह से डिजिटल केंद्रित हो जाए. क्योंकि आज भी हिंदी पट्टी में प्रिंट की उतनी पहुंच नहीं है जितनी विस्तृत यह पट्टी है, लेकिन डिजिटल की पहुंच हिंदी पट्टी के कोने-कोने तक है. आज कोई एक किताब लिखता है तो मुश्किल से हज़ार-दो हज़ार लोगों तक पहुंच पाता है लेकिन कोई अगर कोई एक फेसबुक पोस्ट लिखता है तो दूर-दराज बैठा कोई पाठक भी उसको पढ़ लेता है. प्रिंट आज भी न्यून ही है या अगर मज़बूत दिखाई देता है तो अपनी डिजिटल उपस्थिति के कारण ही. लेकिन हिंदी पट्टी में प्रिंट को अप्रासंगिक होने में अभी समय लगेगा क्योंकि अखबार आदि आज भी लोग प्रिंट में ही पढ़ना चाहते हैं.
शैलेश भारतवासी: मुझे ऐसा तो संभव नहीं दिखता. जाहिर है बदलाव तो होगा. काफी कुछ डिजिटल की ज़द में आ जाएगा. लेकिन सौ प्रतिशत शायद नहीं हो पाएगा. मनुष्य की मुद्रित चीजों को पढ़ने की आदत है, जो हजार या उससे अधिक वर्षों से है, आप जानते हैं कि कोई चीज जब लंबे समय तक चलती है तो वह हमारे आनुवांशिक व्यवहार में आ जाती है, ऐसे में इतनी जल्दी उसे परिवर्तित करना मुश्किल है. हां, हो सकता है कि तीन-चार सौ साल बाद ऐसा हो जाए.
अविनाश मिश्र: माफ़ कीजिएगा, ऐसी कोई संभावना/आशंका नहीं है. अगर हो भी तो इससे हिंदी भाषा और साहित्य पर कोई संकट नहीं आएगा.
5. डिजिटल और प्रिंट के बीच कैसे संतुलन बनाया जा सकता है? क्या बतौर प्रकाशक आप दोनों माध्यमों को समन्वित करने का प्रयास करते हैं?
उदयन वाजपेयी: यह संतुलन ज़रूर बनाना चाहिए. हम ‘समास’ का पहले मुद्रित संस्करण प्रकाश में लाते हैं. इसके कई हफ़्तों बाद हम अपनी वेबसाइट पर डिजिटल रूप में भी प्रकाशित करते हैं. मेरा अपना संपादक के रूप में यह अनुभव है कि ‘समास’ को जितने पाठक काग़ज़ पर मुद्रित रूप में पढ़ते हैं, उतने डिजिटल स्वरूप में नहीं पढ़ते. पत्रिका को हाथ में लेकर पढ़ते हुए, पलटते हुए, पन्नों की हल्की आवाज़ को सुनना शायद एक ऐसा सुख है, जिसे अनेक पाठक छोड़ना नहीं चाहते.
‘समास’ जैसी पत्रिका डिजिटल पत्रिकाओं के लिए निश्चय ही चुनौती होगी. इसका कारण यह है कि हमारे पास इसके प्रकाशन के लिए इतना पर्याप्त समय होता है कि हम उसमें प्रकाश्य एक-एक वाक्य ध्यान से पढ़कर, अगर आवश्यक है तो उसका संपादन कर सकते हैं. मैं सारी मुद्रित पत्रिकाओं की बात नहीं कर सकता, पर हम ‘समास’ में हर कहानी, कविता, उपन्यास अंश या बातचीत की भाषा पर पर्याप्त समय खर्च करते हैं. इससे एक तरफ उसकी पठनीयता बढ़ जाती है और दूसरी ओर हिंदी के सामर्थ्य और सौंदर्य भी किसी हद तक सामने आ पाते हैं. डिजिटल पत्रिकाओं की शक्ति उनके तुरंत प्रकाशित होकर पाठक तक पहुंच जाने में है. इनमें पत्रिका के प्रकाशन और उसके पठन के बीच कोई विशेष अंतराल नहीं होता. यह एक किस्म का फ़ायदा है, पर इससे एक नुक़सान भी है: पाठक किसी पत्रिका या कृति का इंतजार नहीं करता, वह उसे उस तन्मयता से ग्रहण नहीं करता जितनी कि उस पत्रिका या कृति को दरकार हुआ करती है.
अशोक महेश्वरी: वर्तमान में राजकमल प्रकाशन समूह ई-बुक भी प्रकाशित कर रहा है और ऑडियो बुक में भी हमारी उपस्थिति है. जब ई-बुक और ऑडियो बुक का प्रचलन शुरू हुआ तो हिंदी में सबसे पहले राजकमल प्रकाशन समूह ने ही इस तकनीक को अपनाया और इन रूपों में भी किताबों को उपलब्ध कराना शुरू किया. बतौर प्रकाशक हम आरंभ से ही नए प्रयोगों को बढ़ावा देते रहे हैं. हम हमेशा नई तकनीक को अपनाकर बढ़े हैं और आगे भी इसी तरह बढ़ते रहने का इरादा रखते हैं. भविष्य में भी यदि किताब का कोई और नया स्वरूप आएगा तो राजकमल प्रकाशन समूह उसके भी साथ रहेगा. हम समय और पाठक की जरूरत के अनुसार किताबें उपलब्ध कराना अपना ध्येय समझते हैं. हमारे पाठकों से ही हम हैं. पाठक की जरूरत हमारी पहली प्राथमिकता है.
प्रभात रंजन: देखिए, इनके बीच संतुलन होना चाहिए. प्रिंट की आवश्यकता भी है. जैसे शोध पुस्तकों के या शोध लेखों के प्रिंट माध्यम अधिक मुफीद हैं. दूसरे हिंदी पट्टी में आज भी साक्षरता दर कम है और धीरे-धीरे साक्षरता बढ़ रही है. नवसाक्षरों को प्रिंट माध्यम अधिक आकर्षित करता है और उनको प्रिंट ही पढ़ने- लिखने की दिशा में ले जाता है. इसलिए प्रिंट की प्रासंगिकता बनी हुई है. मैं तो दोनों माध्यमों को समन्वित करने की दिशा में कुछ नहीं करता लेकिन ‘हंस’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका इसका बहुत अच्छा उदाहरण है कि वह प्रिंट में भी मज़बूती से उपस्थित है और डिजिटल में भी उसने अपना अच्छा विस्तार किया है.
शैलेश भारतवासी: हां, समन्वित करने की कोशिश तो कर ही रहे हैं. लगातार अपने को बदल रहे हैं. उस तरह की सामग्री और मंच की तरफ ध्यान दे रहे हैं. कोशिश कर रहे हैं कि सामग्री को ऑडियो और वीडियो संस्करणों में प्रस्तुत किया जाए. मेरे ख्याल से सभी प्रकाशक यह कर रहे होंगे.
अविनाश मिश्र: प्रिंट की समूची सामग्री को डिजिटल में करके उसे सदा के लिए सुरक्षित मान लेना एक ख़ुशफ़हमी मात्र ही है. इस तरह डिजिटल को प्रिंट में लाकर अमर मान लेना भी मूढ़ता ही है. संतुलन बनाने वाले बना लेंगे. हिंदी के सामूहिक विवेक पर हमें अटूट विश्वास रखना ही होगा. इस यक़ीन के साथ ज़िम्मेदार लोगों को बेहतर और सही मायनों में उपयोगी सामग्री ही सार्वजनिक करने की तरफ़ ध्यान देना चाहिए.