बिना अनुभवों की साझेदारी के जनतांत्रिकता मुमकिन नहीं

अंतरराष्ट्रीयता का मेल हुए बिना राष्ट्रवाद एक संकरी ज़हनीयत का दूसरा नाम होगा जिसमें हम अपने दड़बों में बंद दूसरों को ईर्ष्या और प्रतियोगिता की भावना के साथ ही देखेंगे. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 34वीं और अंतिम क़िस्त.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

सच्चाइयां
जो गंगा के गोमुख से मोती की तरह बिखरती रहती हैं
हिमालय की बर्फ़ीली चोटी पर चांदी के उन्मुक्त नाचते
परों में झिलमिलाती रहती हैं
जो एक हज़ार रंगों के मोतियों का खिलखिलाता समंदर है
उमंगों से भरी फूलों की जवान कश्तियां
कि वसंत के नए प्रभात सागर में छोड़ दी गई हैं.
ये पूरब पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द
लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आंच की धूप-छांव
पर
बहुत हौले-हौले नाच रहा हूं
सब संस्कृतियां मेरे सरगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूं
बहुत आदिम, बहुत अभिनव.
हम एक साथ उषा के मधुर अधर बन उठे
सुलग उठे हैं
सब एक साथ ढाई अरब धड़कनों में बज उठे हैं
सिम्फ़ोनिक आनंद की तरह
यह हमारी गाती हुई एकता
संसार के पंच परमेश्वर का मुकुट पहन
अमरता के सिंहासन पर आज हमारा अखिल लोक-प्रेसिडेंट
बन उठी है.
देखो न हक़ीक़त हमारे समय की कि जिसमें
होमर एक हिंदी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ ख़ां बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊंचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूं
और कालिदास को वैमर के कुंजों में विहार करते
और आज तो मेरा टैगोर मेरा हाफ़िज़ मेरा तुलसी मेरा
ग़ालिब
एक-एक मेरे दिल के जगमग पावर हाउस का
कुशल आपरेटर है.
आज सब तुम्हारे ही लिए शांति का युग चाहते हैं
मेरी कुटूबुटू
तुम्हारे ही लिए मेरे प्रतिभाशाली भाई तेजबहादुर
मेरे गुलाब की कलियों से हंसते-खेलते बच्चों
तुम्हारे ही लिए, तुम्हारे ही लिए
मेरे दोस्तो, जिनसे ज़िंदगी में मानी पैदा होते हैं
और उस निश्छल प्रेम के लिए
जो मां की मूर्ति है
और उस अमर परमशक्ति के लिए जो पिता का रूप है.
हर घर में सुख
शांति का युग
हर छोटा-बड़ा हर नया-पुराना आज-कल-परसों के
आगे और पीछे का युग
शांति की स्निग्ध कला में डूबा हुआ
क्योंकि इसी कला का नाम जीवन की भरी-पूरी गति है.
मुझे अमरीका का लिबर्टी स्टैचू उतना ही प्यारा है
जितना मास्को का लाल तारा
और मेरे दिल में पेकिंग का स्वर्गीय महल
मक्का मदीना से कम पवित्र नहीं
मैं काशी में उन आर्यों का शंखनाद सुनता हूं
जो वोल्गा से आए
मेरी देहली में प्रह्लाद की तपस्याएं दोनों दुनियाओं की
चौखट पर
युद्ध के हिरण्यकश्यप को चीर रही हैं.
यह कौन मेरी धरती की शांति की आत्मा पर क़ुरबान हो गया है
अभी सत्य की खोज तो बाक़ी ही थी
यह एक विशाल अनुभव की चीनी दीवार
उठती ही बढ़ती आ रही है
उसकी ईंटें धड़कते हुए सुर्ख़ दिल हैं
यह सच्चाइयां बहुत गहरी नींवों में जाग रही हैं
वह इतिहास की अनुभूतियां हैं
मैंने सोवियत यूसुफ़ के सीने पर कान रखकर सुना है.
आज मैंने गोर्की को होरी के आंगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और तालस्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागां की आंखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्ख़ी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूं जो नेरुदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूं
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आंसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ़ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आंख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है.
पच्छिम में काले और सफ़ेद फूल हैं और पूरब में पीले
और लाल
उत्तर में नीले कई रंग के और हमारे यहां चंपई-साँवले
और दुनिया में हरियाली कहां नहीं
जहां भी आसमान बादलों से ज़रा भी पोंछे जाते हों
और आज गुलदस्तों में रंग-रंग के फूल सजे हुए हैं
और आसमान इन ख़ुशियों का आईना है.
आज न्यूयार्क के स्काईस्क्रेपरों पर
शांति के ‘डवों’ और उसके राजहंसों ने
एक मीठे उजले सुख का हलका-सा अँधेरा
और शोर पैदा कर दिया है.
और अब वो आर्जंटीना की सिम्त अतलांतिक को पार
कर
रहे हैं
पाल राब्सन ने नई दिल्ली से नए अमरीका की
एक विशाल सिम्फ़नी ब्राडकास्ट की है
और उदयशंकर ने दक्षिणी अफ़्रीका में नई अजंता को
स्टेज पर उतारा है
यह महान नृत्य वह महान स्वर कला और संगीत
मेरा है यानी हर अदना से अदना इंसान का
बिल्कुल अपना निजी.
युद्ध के नक़्शों को क़ैंची से काटकर कोरियाई बच्चों ने
झिलमिली फूलपत्तों की रौशन फ़ानूसें बना ली हैं
और हथियारों का स्टील और लोहा हज़ारों
देशों को एक-दूसरे से मिलाने वाली रेलों के जाल में बिछ
गया है
और ये बच्चे उन पर दौड़ती हुई रेलों के डिब्बों की
खिड़कियों से
हमारी ओर झांक रहे हैं
यह फ़ौलाद और लोहा खिलौनों मिठाइयों और किताबों
से लदे स्टीमरों के रूप में
नदियों की सार्थक सजावट बन गया है
या विशाल ट्रैक्टर-कम्बाईन और फैक्ट्री-मशीनों के
हृदय में
नवीन छंद और लय का प्रयोग कर रहा है.
यह सुख का भविष्य शांति की आंखों में ही वर्तमान है
इन आंखों से हम सब अपनी उम्मीदों की आंखें सेंक
रहे हैं
ये आंखें हमारे दिल में रौशन और हमारी पूजा का
फूल हैं
ये आंखें हमारे क़ानून का सही चमकता हुआ मतलब
और हमारे अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति हैं
ये आंखें हमारे माता-पिता की आत्मा और हमारे बच्चों
का दिल हैं
ये आंखें हमारे इतिहास की वाणी
और हमारी कला का सच्चा सपना हैं
ये आंखें हमारा अपना नूर और पवित्रता हैं
ये आंखें ही अमर सपनों की हक़ीक़त और
हक़ीक़त का अमर सपना हैं
इनको देख पाना ही अपने आपको देख पाना है, समझ
पाना है.
हम मनाते हैं कि हमारे नेता इनको देख रहे हों.

 

‘अम्न का राग’ हिंदी की क्लासिक कविताओं में एक है. शमशेर बहादुर सिंह की इस कविता की ताक़त अभिधा की सरलता में है. सरलता के साथ इसकी उदात्तता इसे बड़ी कविता बना देती है. यह शताब्दियों के पार परस्परता की कल्पना है जो विश्व मानवता को जन्म देती है. होमर अली सरदार जाफ़री को इशारा करते दिखे, कालिदास जब वैमर के कुंजों में विहार करते मिलें, शेक्सपीयर का माथा उज्जैन की घाटियों में झलकता हुआ दिखलाई पड़े, फैयाज ख़ान और बीथोवन एक दूसरे से गप लड़ाते मिल जाएं: यह समय और संस्कृतियों के आर पार ऐसी मानवीय संवेदना की कल्पना है जो हर नई भाषा को अपनी आत्मा की एक नई परत मानती है.

यह बात ज़रूर है कि आज हमारा ध्यान इस बात पर जाता है कि शमशेर की इस कविता में कोई मीराबाई किसी वर्जीनिया वुल्फ से गप लड़ाती नहीं मिलती. ऐसी अनुपस्थिति से हमें आज असुविधा हो रही है, यह इसका प्रमाण है कि ख़ुद हमारी जनतांत्रिक चेतना का विस्तार और परिष्कार हुआ है. लेकिन असल सवाल यह है कि प्रेम, मित्रता, आशंका, दुविधा, घृणा, छल को व्यक्त करने के लिए हमारे पास क्या सिर्फ़ ‘हमारे’ कवि, लेखक हैं? यह हमारा कितना संकुचित और कितना विस्तृत हमारा है? हैमलेट या ऑथेलो या वांका या आन्ना कारनीना उतने ही अपने हैं जितने शक्ति के अन्याय के समर्थन से लड़ते राम या अपनी नियति की तरफ़ बढ़ता होरी?

क्या ‘टु बी ऑर नॉट टु बी!’ अपनी भाषा का वाक्य मालूम पड़ता है? शमशेर इस विश्व संवेदना के निर्माण की कामना करते हैं जैसे उनके प्रिय कवि मुक्तिबोध:

बहुत दूर मीलों के पार वहां
गिरता हूं चुपचाप पत्र के रूप में
किसी एक जेब में
वह जेब…
किसी एक फटे हुए मन की.

समस्वर, समताल,
सहानुभूति की सनसनी कोमल!!
हम कहां नहीं हैं
सभी जगह हम.

शमशेर को सुनिए:

ये पूरब पश्चिम मेरी आत्मा के ताने-बाने हैं
मैंने एशिया की सतरंगी किरनों को अपनी दिशाओं के गिर्द
लपेट लिया
और मैं यूरोप और अमरीका की नर्म आंच की धूप-छांव
पर
बहुत हौले-हौले नाच रहा हूं
सब संस्कृतियां मेरे सरगम में विभोर हैं

मुक्तिबोध की बेचैनी शमशेर से कितनी मिलती है:

मुझको तो बेचैन बिजली की नीली
ज्वलंत बांहों में बांहों को उलझा
करनी है उतनी ही प्रदीप्त लीला
आकाश-भर में साथ-साथ उसके घूमना है मुझको

शमशेर या मुक्तिबोध जिस संवेदना के निर्माण की कल्पना कर रहे हैं वह जनतांत्रिक संवेदना ही है. जनतंत्र और राष्ट्र राज्य का रिश्ता जाना हुआ है. लेकिन वह है एक अंतरराष्ट्रीय भावना. राष्ट्र और राज्य की सरहदें ज़रूर हमें शक्ल देती हैं, लेकिन वह शक्ल हम किनकी आंखों में देखें? वे आंखें दूसरों की ही हो सकती हैं जिनमें हम अपनी सूरत देख सकते हैं.

भारत की स्वाधीनता का संघर्ष भारतीय जनतंत्र के निर्माण का संघर्ष भी था. उस संघर्ष का उद्देश्य क्या था? महात्मा गांधी ने कहा,

‘मेरा मक़सद सिर्फ़ भारतीय बंधुत्व क़ायम करना नहीं है. मेरा उद्देश्य सिर्फ़ भारत के लिए आज़ादी हासिल करना नहीं…बल्कि भारत की आज़ादी हासिल करके मैं मनुष्य मात्र के बीच बंधुत्व हासिल करने के उद्देश्य को हासिल करने की उम्मीद करता हूं. मेरी देशभक्ति अपने आप में कोई अलग-थलग चीज़ नहीं. …मेरी देशभक्ति का ख़याल और कुछ नहीं अगर यह निरपवाद रूप से मानवता के व्यापक हित के मेल में न हो.

गांधी ने कहा कि विधाता ने एक ही कूची से हम सबको रंगा है. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि मैं भारतीयों के लिए किसी श्रेष्ठता का दावा नहीं करता. मानवता बंद कमरों में नहीं बंटी हुई है. उसमें हज़ार कमरे हो सकते हैं, लेकिन वे सब एक दूसरे में खुलते हैं.

‘भारत की खोज’ में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा कि हम ऐसे वक्त की तरफ़ बढ़ रहे हैं जिसमें तमाम राष्ट्रीय संस्कृतियां मानव जाति की अंतरराष्ट्रीय संस्कृति में घुल मिल जाएंगी. हमें जहां से भी ज्ञान, समझ और मित्रता मिलेगी, हम लेंगे और एक दूसरे के साथ साझा मक़सद के लिए मिल-जुलकर काम करेंगे.

इस अंतरराष्ट्रीयता का मेल हुए बिना राष्ट्रवाद एक संकरी जहनीयत का दूसरा नाम होगा जिसमें हम अपने दड़बों में बंद दूसरों को ईर्ष्या और प्रतियोगिता की भावना के साथ ही देखेंगे.

जनतांत्रिकता का मतलब है समानता. वह समानता बिना अनुभवों की साझेदारी के मुमकिन नहीं. इस मामले में शमशेर वॉल्ट ह्विटमैन के हमख़याल मालूम होते हैं जो जनतांत्रिक संवेदना के लिए एक ऐसे आत्म की कल्पना करते हैं जो लगातार दूसरे तजुर्बों को जज़्ब करता चले, किसी क़िस्म का भेदभाव न करे और जो बुनियादी तौर पर मोहब्बतपरस्त हो. ऐसी शख़्सियत जो अपना विस्तार करती रहे, जिसमें वैयक्तिकता का दूसरा मतलब पारस्परिकता हो.

विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर ‘मनुष्य का धर्म’ शीर्षक निबंध में इसी बात को दूसरे ढंग से कहते हैं. ज़मीन पर सीधे खड़े मनुष्य और शेष बाक़ी प्राणियों में फ़र्क क्या है?

वे कहते हैं कि मनुष्य को यह सुविधा मिली कि वह अनेकानेक समकेंद्रिक वृत्तों का निर्माण कर सके. और ख़ुद को सबके भीतर महसूस भी कर सके. उसकी दृष्टि भी स्वतंत्र हो जाती है. उसके साथ ही उसका दिमाग़ भी उसके शरीर का क़ैदी नहीं है. इसके चलते वह अनेक प्रकार के संबंध बना सकता है. वे संबंध उसकी भौगोलिक सीमा का अतिक्रमण करते हैं. कल्पना के सहारे जो नहीं है, मनुष्य उसका सृजन भी कर सकता है.

शमशेर की इस कविता में होमर और सरदार जाफ़री के संवाद या कालिदास के वैमर के कुंजों के विहार की कल्पना एक असंभव वास्तव है, लेकिन यह काव्यात्मक यथार्थ कितना आवश्यक और अनिवार्य प्रतीत होता है.

वॉल्ट ह्विटमैन कल्पनाशीलता को जनतांत्रिकता के लिए अनिवार्य मानते हैं. वे जनतंत्र को प्रकृति का छोटा भाई कहते हैं, अगर उसके सबसे क़रीब कोई है तो वह धूप है, खुली हवा है. जब तक धूप तुम्हें ख़ुद से अलग न करे, मैं तुम्हें अलग नहीं कर सकता.

जैसे ह्विटमैन वैसे ही शमशेर काल, भूगोल और संस्कृतियों के आर पार रिश्तों की कल्पना करने की शक्ति को जनतांत्रिकता के लिए अनिवार्य मानते हैं.

इसका राजनीति से या राज्य विधान से क्या रिश्ता है? ह्विटमैन जनतंत्र को मात्र राज्य, सरकार या राजनीति तक सीमित रखने के पक्ष में नहीं. वैसे ही शमशेर बहादुर सिंह की यह कविता राजनीतिक कविता कही जाएगी या नहीं यह बहस बेमानी है. राजनीति का एक तरीक़ा तो यह ज़रूर सुझाती है जब आख़िर में उम्मीद करती है कि ‘हमारे नेता’ उन ‘शांति की आंखों’ को देख पाएं जो ‘क़ानून का सही चमकता हुआ मतलब’ और ‘अधिकारों की ज्योति से भरी शक्ति’ हैं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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