कवि राजेश जोशी की एक कविता की पंक्ति है : जितना छिपने की कोशिश करता हूं, उतना ही पकड़ा जाता हूं. यह राजनीतिक दलों की समस्या तो है ही, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के लिए यह कुछ अधिक गंभीर है. ख़ासकर हम अगर आज पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती के मौक़े पर उनके विचार और दृष्टिकोण पर एक निग़ाह डालें.
इस मौके़ पर उनके विचारों के आईने में आज की भारतीय जनता पार्टी की सूरत देखना और राजनीतिक कार्यशैली की सीरत का अवलोकन करना वाक़ई दिलचस्प है.
सियासत के बहते दरियाओं में भी भाजपा के नेता पानी की कमी देखने के आदी हैं तो उम्र भर तिश्ना-लब रहे इन नेताओं ने केंद्र और राज्यों की सत्ता हाथ में आने पर अपने विचार पुरुषों का कितना आदर-मान किया, यह देखना ही चाहिए.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय वर्षों तक आरएसएस के अंग्रेजी साप्ताहिक ‘ऑर्गेनाइज़र’ में ‘पॉलिटिकल डायरी’ कॉलम लिखा करते थे और इसमें समकालीन राजनीति पर उनकी काफी सारगर्भित टिप्पणियां रहती थीं. ये टिप्पणियां उस प्रिज्म का काम करती हैं, जिनके माध्यम से हम आज की भारतीय जनता पार्टी की कार्यशैली को परख सकते हैं.
दीनदयाल ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के कामकाज की समीक्षा आर्थिक दशा, भारत-पाक संबंध, वैदेशिक मामलों, भाषा, चीन के ख़तरे, संसदीय जनतंत्र, मूल्यवृद्धि, सत्तारूढ़ दल और जनतंत्र, जनतंत्र और राजनीतिक दल, विधायिका में सत्ता पक्ष बनाम संगठन पक्ष, सत्ता पक्ष बनाम प्रतिपक्ष, चुनावों में हमारे उम्मीदवार कैसे हों, राजनीतिक दलों के लिए आचार संहिता आदि जैसे कितने ही बिंदुओं के परिप्रेक्ष्य में की थी.
लेकिन आज जब पंडित दीनदयाल उपाध्याय को अपना आदर्श मानने वाली पार्टी ही सत्ता में है तो ऐसा लगता है कि सत्ता और सियासत के खुले आसमान में बाज़ उड़ रहे हैं और सियासत की पूरी ज़मीन परिंदों से खाली हो गई है.
दीनदयाल जब कहते हैं, ‘जब दल का हित स्वहित के आगे दब जाता है तब गुटबाज़ी आरंभ हो जाती है. यह अहंकारी एवं विकृत चिंतन की सामाजिक अभिव्यक्ति है.’
इन दिनों हरियाणा और जम्मू कश्मीर सहित कई राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं और इससे पहले लोकसभा तथा कई राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होकर हटे हैं और उनमें जिस तरह की राजनीति रही है, उसके बरअक्स दीनदयाल ‘प्रत्याशी, दल और सिद्धांत’ शीर्षक वाले लेख में कहते हैं, ‘कोई बुरा प्रत्याशी केवल इसलिए आपका मत पाने का दावा नहीं कर सकता कि वह किसी अच्छे दल से खड़ा है. बुरा बुरा ही है और दुष्ट वायु की कहावत की भांति वह कहीं भी किसी का भी हित नहीं कर सकता. दल के हाईकमान ने ऐसे व्यक्ति को टिकट देते समय पक्षपात किया होगा और या नेकनीयती बरतते हुए वह निर्णय में भूल कर गया होगा. अंत: ऐसी ग़लती सुधारना उत्तरदायी मतदाता का कर्तव्य है.’ लेकिन क्या ये टिप्पणियां आज के समय में कम उपयोगी हैं?
हालात तो ऐसे हैं कि रोज़ ए हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तरे अमल, आप भी शर्मसार हो, मुझको भी शर्मसार कर.
उन्होंने एक अन्य टिप्पणी में लिखा था, ‘भारतवर्ष में शायद ही कोई राजनीतिक दल इन बातों की चिंता करता है. वे केवल एक ही दृष्टि से विचार करते हैं और वह यह कि उनका प्रत्याशी ऐसा हो जो चुनाव में विजय प्राप्त कर सके. घुड़दौड़ देखने जानेवालों की भांति उनका किसी विशेष घोडे़ के प्रति प्रेम नहीं होता. वे किसी ऐसे घोड़े पर बाजी लगा देंगे, जिसके जीतने के उज्ज्वल अवसर हों. किंतु वे यह भूल जाते हैं कि राजनीति में विजेता के प्रति उनका साथ घुड़दौड़ के बाद समाप्त नहीं हो जाता.’ आज सब देखते हैं कि कितने पहलवान घोड़े दबाव में चुन तो लिए गए और अब वे कैसे दुल्लतियां झाड़ रहे हैं और कैसे हिनहिना रहे हैं.
दीनदयाल उपाध्याय ने एक लेख में भूतपूर्व राजपरिवारों के सदस्यों को उम्मीदवार बनाने पर चिंता जताई और लिखा, ‘भूतपूर्व राजाओं को प्रत्येक दल हाथोंहाथ ले रहा है. यहां तक कि चुनाव में किसी राज-परिवार के सदस्य का विरोध करने में मंत्री भी हिचकिचाहट अनुभव करते हैं. …यह मान्य करते हुए भी कि भूतपूर्व राजाओं को भी चुनावों में भाग लेने का नागरिक अधिकार है, लेकिन यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वर्तमान स्थिति सुखकर नहीं है. भूतपूर्व राजाओं को राजनीति में भाग लेने के लिए निश्चित रूप से प्रोत्साहन देना चाहिए, परंतु चुनाव में उन्हें राजपरिवार में जन्म के आधार पर नहीं, बल्कि गुणों के आधार पर टिकट दिया जाना चाहिए.’ लेकिन अब गुण और आधार जैसे शब्द मानो हवा हो गए.
एक लेख में तो उन्होंने यह तक कहा: जनता को भी यह अनुभव करना चाहिए कि मत किसी प्रत्याशी के प्रति कृतज्ञताज्ञापन का माध्यम नहीं है, बल्कि अपनी इच्छाओं को क्रियान्वित करने का एक आदेशपत्र है.
आजकल भाजपा, कांग्रेस सहित विभिन्न दल किसी विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र के मतदाताओं के जातिगत समीकरण देखकर ही टिकट देते हैं. यह सिलसिला पहले चुनाव के समय से ही है. उपाध्याय लिखते हैं, ‘यदि जातिगत आधार पर टिकट देने की स्थिति इस सीमा तक पहुंच जाती है कि डॉ. राममनोहर लोहिया तक को केवल इसलिए प्रत्याशी बनने से वंचित रह जाना पड़े क्योंकि वे उस जाति के नहीं थे, जिसके सदस्यों की उस निर्वाचन क्षेत्र में बहुत अधिक संख्या थी तो यह एक गंभीर रोग का सूचक है. इसका उपाय दल-संगठन को सशक्त बनाना है, न कि जातिगत भावना को घनीभूत करना. जैसा कि समाजवादी डाक्टर पिछड़ी जातियों और वर्गों के लिए साठ प्रतिशत स्थान आरक्षित रखने की प्रतिज्ञा करके कर रहे हैं.’
लेकिन समाजवादियों पर किया गया यह तंज आज की भाजपा की टिकट वितरण की कार्यशैली में देखें तो पलटकर उपाध्याय की तरफ आता है.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कांग्रेस और समाजवादी दलों के टिकट वितरण के धन बल संबंधी पहलू पर भी तीखे कटाक्ष किए थे. उन्होंने कहा था, ‘आर्थिक स्पर्द्धा भी प्रत्याशी के चुनाव को प्रभावित करने वाली एक बड़ी समस्या है. अनेकानेक लोगों को किसी अन्य योग्यता पर नहीं, बल्कि धन खर्च करने की क्षमता के कारण टिकट दिए जाते हैं. ये लोग चुनाव के अवसर पर मैदान में आते हैं, और उसके बाद पांच वर्ष तक कलकत्ता और बम्बई की घनी बस्तियों में आराम करते रहते हैं.’
अडानी-अंबानी वाले इस दौर में सत्तारूढ़ भाजपा प्राय: प्रतिपक्षी दलों की आलोचना से घिरी रहती है, लेकिन दीनदयाल उपाध्याय ने उस समय कहा था, ‘कांग्रेस सहित कई दलों के पास इतना अर्थाभाव है कि वे अधिकार और प्रसिद्धि के भूखे इन आकांक्षियों को अनुगृहीत करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं. ऐसी सूचना मिली है कि कांग्रेस ने कलकत्ता में कुछ उद्योगपतियों से यह सौदा किया है कि वह उन्हें कुछ संसदीय स्थानों के लिए टिकट प्रदान करने को तैयार है, बशर्ते कि वे विधानसभा के प्रत्याशियों का चुनाव-व्यय वहन करने का वचन दें.
यह कहते हुए दीनदयाल उपाध्याय ने आगाह किया था कि राजनीतिक दल चाहे कुछ भी करें, लेकिन सिद्धांतों का बलिदान न करें. जनता का भी एक कर्तव्य है, और यदि लोग सुविचारित तथा बद्धिमत्तापूर्ण ढंग से अपने मताधिकार का उपयोग करें तो वे राजनीतिक दलों के विकृत दृष्टिकोण को भी ठीक कर सकते हैं.’
दीनदयाल उपाध्याय ने मतदाताओं से साफ आह्वान किया था कि आप शिकायत नहीं करें. आप अपना प्रभुत्व स्थापित करें. आप याचना नहीं करें. दृढ़ता दिखाएं. आपको किसी सिद्धांत के लिए मतदान करना है. जाति या संभावित विजेता पर नहीं, योग्य प्रत्याशी के लिए वोट दें. टिकट भले किसी ने दिया हो. आप अपनी अंतश्चेतना को नष्ट नहीं करें. एक जगह उन्होंने उदाहरण दिया कि आजकल कहा जा रहा है कि कांग्रेस चाहे जिसे जहां से खड़ा कर दे या ‘सड़क के खंभे’ को भी खड़ा कर दे तो वह जीत जाएगा. उन्होंने इस स्थिति के बारे में साफ लिखा, ‘यह मस्तिष्क के रोगी होने एवं मार्गच्युत होने का द्योतक है.’
उपाध्याय ने राजनीतिक दलों के भीतर सुधार का आह्वान किया था, लेकिन उन्हें संभवत: यह ख़याल नहीं था कि वे जिन दूसरे दलों के यहां से बिल्लियां निकाल रहे हैं, वही ऊंट बनकर उनकी ही विचारधारा वाले दल में प्रवेश कर जाएगा.
आज भारतीय जनता पार्टी विश्व की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है, लेकिन उपाध्याय ने लिखा था, ‘अपने पास आने वाले लोगों के दृष्टिकोणों की कोई चिंता न करते हुए वे केवल इस बात की ओर ही ध्यान देते हैं कि उनके अनुयायियों की संख्या बढ़े.’
वे इस स्थिति को भयावह और ख़तरनाक़ बताते हैं. वे अपनी पॉलिटिकल डायरी में चेताते हैं, वस्तुतः, अनेक देशों में ऐसे लोगों के हाथ से जनतंत्र को बड़ी क्षति उठानी पड़ी है, जिन्होंने जनतंत्र का उपयोग केवल उसे विनष्ट कर देने के लिए किया. …मानवता के इतिहास में मनुष्य की स्वतन्त्र भावना सारी प्रगतियों का कारण रही है. व्यक्ति को नष्ट कर देने की प्रवृत्ति रखने वाली कोई भी पद्धति अजनतांत्रिक है. विचार-विमर्श, समझा-बुझाकर सहमत करना, पुरस्पर समाधानकारी समझौता और दो तथा लो, ये जनतांत्रिक मार्ग की युक्तियां हैं. जनतंत्र केवल मौखिक चीज नहीं है. व्यक्ति की स्वतंत्रता सबसे बड़ी चीज है. इसके लिए उपाध्याय ने कम्युनिस्ट सरकारों की भी आलोचना की.
पिछले दस साल के दौरान कितने ही अन्य दलों के नेताओं को भाजपा में शामिल किया गया है. इस मामले में उपाध्याय की विचारदृष्टि बहुत स्पष्ट है, ‘सैद्धांतिक आधार पर किसी दल से संबंध विच्छेद को उचित माना जा सकता है, परंतु अन्य आधारों पर दलों द्वारा दल-बदल को प्रोत्साहन नहीं दिया जाना चाहिए. ऐसी स्थिति में, जब कोई दल बहुमत में न आयें या उसे अत्यल्प बहुमत प्राप्त हो, तब अन्य दलों से समर्थन पाने के लिए राजनीतिज्ञों के अनुचित साधन अपनाए जाने की संभावना है. यह आवश्यक है कि हम ग्रेट ब्रिटेन की द्विदलीय संसदीय पद्धति से कुछ अलग परंपराएं विकसित करें और अपनाएं. केवल उससे ही देश में स्थिर सरकार रहेगी और भ्रष्ट राजनीतिज्ञों का अखाड़ा बनने से दलों की रक्षा आज हो सकेगी.’
वे जिस बात को लेकर तत्कालीन कांग्रेस पर कटाक्ष कर रहे थे, भाजपा में उससे बदतर स्थिति है. जैसे उन्होंने कहा, ‘अब कांग्रेस सरकार पर नियंत्रण नहीं रखती, बल्कि सरकार ही कांग्रेस पर नियंत्रण रखती है. अब कांग्रेस सरकार नहीं रह गई है, केवल सरकारी कांग्रेस रह गई है. कांग्रेस अध्यक्ष सदा प्रधानमंत्री के अधीनस्थ सरीखे रहते हैं.’ क्या अब भाजपा सरकार पर नियंत्रण रख पाती है? या सरकार ही भाजपा पर नियंत्रण रख रही है? क्या अब कांग्रेस जैसी ही स्थिति भाजपा की नहीं हो गई है?
भाजपा सरकार के समय किसानों सहित जाने कितने ही आंदोलनों को कुचला गया है और कितने ही श्रमिक विरोधी कानून बने हैं. जिस समय सत्ता में कांग्रेस थी और खासकर नेहरू प्रधानमंत्री थे तो पंडित दीनदयाल उपाध्याय लिख रहे थे, ‘सरकार और प्रशासन जन आंदोलनों को कुचल देने के लिए बिना हिचकिचाहट के तत्क्षण पूरी शक्ति लगा देते हैं और जब सरकार जनता को दबा देने में विफल हो जाती है, तभी वह जनता की मांगें सुनने के बारे में विचार करती है. …इस प्रकार जनता की दृष्टि में सरकार धीरे-धीरे एक भयानक पिशाच का प्रतीक बन जाती है. दोनों के बीच खाई बढ़ती जाती है. यह सुखकर स्थिति नहीं है.’ (4 सितंबर, 1961)
विरोधी दलों के प्रति असहिष्णुता पर उपाध्याय लिखते हैं, ‘ऐसा प्रतीत होता है कि सत्तारूढ़ दल विरोधी पक्ष को तभी तक सहन करता है, जब तक उसके अधिकार को हानि नहीं पहुंचती. वह विरोध पक्ष का विश्वास नहीं करता.’ ‘ये लोग जनता की सरकार नहीं चाहते, बल्कि इन्हें एक विश्वसनीय अनुचर जनता चाहिए, जो हर बार कांग्रेस सरकार के लिए मतदान किया करे.’ ‘एक खिलाड़ी की भांति उसे विजय के लिए संघर्ष करना चाहिए, लेकिन पराजय के लिए भी तैयार रहना चाहिए. यदि वह पराजय को गौरव के साथ शिरोधार्य नहीं कर सकता और अपने प्रतिस्पर्धी को उसकी विजय के लिए बधाई नहीं दे सकता तो वह जनतंत्रवादी नहीं है.’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत के नारे लगाते हैं, अगर वे दीनदयाल उपाध्याय की ओर मुड़ें तो पता चलेगा कि भाजपा का आचरण उनके विचारों को नकार देता है.
(इस लेख में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जो विचार उद्धृत किए गए हैं, वे सुरुचि प्रकाशन, केशवकुंज झंडेवालान, दिल्ली द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘पॉलिटिकल डायरी: दीनदयाल उपाध्याय’ से लिए गए हैं.)