दो पड़ोसी देशों में सत्ता बदलने के बाद अडानी के कारोबार पर क्या असर पड़ेगा?

भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी का प्रभाव बढ़ने के साथ ही उद्योगपति गौतम अडानी के व्यापार का विस्तार पड़ोसी देशों- बांग्लादेश और श्रीलंका में देखने को मिला. हालांकि अब दोनों देशों में सत्ता परिवर्तन के बाद अडानी समूह के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं.

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(फोटो साभार: अडानी समूह/Wikimedia Commons)

नई दिल्ली: भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी का प्रभाव बढ़ने और उद्योगपति गौतम अडानी के व्यापार के विस्तार का समय लगभग एक ही रहा है. बीते दशक में अडानी समूह ने तेजी से बांग्लादेश, श्रीलंका और म्यांमार में अपना कारोबार फैलाया है. पिछले वर्षों में इन देशों में आर्थिक संकट गहराया है और राजनीतिक अस्थिरता आई है.

बांग्लादेश और श्रीलंका में जनता ने उस राजनीतिक तंत्र को उखाड़ फेका जिसे भारत का करीबी या ‘भारत समर्थक’ माना जाता था. बांग्लादेश में यह शेख हसीना की सरकार के साथ हुआ और श्रीलंका में गोटबाया राजपक्षे के साथ.

दोनों ही देशों की जनता में एक मुद्दे पर रोष देखने को मिला- अडानी समूह के साथ उनकी सरकार द्वारा किया गया बिजली समझौता. अब इन समझौतों पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं.

बांग्लादेश 

नवंबर 2017 में अडानी पावर (झारखंड) लिमिटेड (एपीजेएल) ने बांग्लादेश पावर डेवलपमेंट बोर्ड के साथ एक समझौता किया था, जिसके तहत बांग्लादेश को अगले 25 साल तक एजेपीएल के झारखंड के गोड्डा में लगे प्लांट द्वारा उत्पादित शत प्रतिशत प्रतिशत बिजली को खरीदना है.

इस समझौते की बांग्लादेश के बुद्धिजीवियों और विपक्षी दलों ने जमकर आलोचना की थी. बाद में आम जनता भी इसके विरोध में आ गई.

साल 2023 में बांग्लादेश पावर डेवलपमेंट बोर्ड ने अडानी पावर को पत्र लिखकर समझौते को संशोधित करने का अनुरोध किया था.

अल-जजीरा के मुताबिक़, बांग्लादेश पावर रेगुलेटर के पूर्व महानिदेशक बीडी. रहमतुल्लाह ने कहा था, ‘ऐसा लगता है कि हमारी सरकार इस बिजली खरीद व्यवस्था को संशोधित करने या इससे बाहर निकलने का कोई इरादा नहीं रखती है, जबकि इसे लेकर असंतोष बढ़ रहा है.’

इन शब्दों की गूंज 2024 के आंदोलन में सुनाई दी थी, जिसके कारण शेख हसीना की सरकार का पतन हो गया.

पिछले दिनों बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी के हवाले से इंडियन एक्सप्रेस ने बताया था कि सरकार अडानी समूह के साथ हुए समझौते की शर्तों की समीक्षा करना चाहती हैं. साथ ही बिजली के लिए चुकाई जा रही कीमत को भी जांचना चाहती है.

बांग्लादेश द्वारा यह समझौता रद्द किए जाने की ‘आशंका’ में कंपनी भारत में बिजली बेचने के लिए बैक-अप प्लान तलाश रही है.

इंडियन एक्सप्रेस ने एक अन्य रिपोर्ट में बताया है कि बांग्लादेश को बिजली आपूर्ति करने वाले गोड्डा संयंत्र को बिहार के लखीसराय में एक सबस्टेशन के माध्यम से भारतीय ग्रिड से जुड़ने की मंजूरी मिल गई है. हालांकि इसकी तैयारी पहले से चल रही थी.

इस साल 12 अगस्त को (इस दौरान बांग्लादेश में उथल-पुथल का दौर चल रहा था) केंद्र सरकार ने बिजली निर्यात संबंधी दिशानिर्देशों में संशोधन किया था, ताकि अडानी पावर को घरेलू बाजार में उस बिजली को बेचने की अनुमति मिल सके जिसे वह बांग्लादेश में बेचने के लिए बनाता है. 

फाइनेंशियल टाइम्स के मुताबिक़, बांग्लादेश में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अनु मुहम्मद ने इस समझौते को लेकर कहा है, ‘यह सौदा बांग्लादेश में बिजली की हमारी मांग को पूरा करने के लिए नहीं किया गया था. यह अडानी और मोदी को संतुष्ट करने के लिए किया गया था.’

आंदोलन खत्म होने के बाद भी इस समझौते के खिलाफ विरोध शांत नहीं हुआ है. बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने देश के हितों की रक्षा का संकल्प लिया है. कुछ सरकारी अधिकारी भी अनुबंधों की पारदर्शिता पर सवाल उठा रहे हैं. ऐसे में अडानी समूह को बांग्लादेश की नई अंतरिम सरकार से चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है.

श्रीलंका में भी लग सकता है झटका

बांग्लादेश के बाद श्रीलंका में भी सत्ता परिवर्तन से उद्योगपति गौतम अडानी के कारोबार को झटका लग सकता है. 

राष्ट्रपति पद के लिए हुए हालिया चुनाव में वामपंथी नेता अनुरा कुमारा दिसानायके की जीत हुई है, जो मार्क्सवादी-लेनिनवादी जड़ों वाली पार्टी जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) के नेता हैं. उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि अगर वह जीतते हैं तो श्रीलंका में अडानी की 450 मेगावाट की पवन ऊर्जा परियोजना को रद्द कर देंगे. अनुरा ने इस समझौते को भ्रष्ट और देश के हितों के विरुद्ध बताया था.

जाहिर है, इस वक्त अडानी की परियोजना पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं, जिसके बारे में श्रीलंका के एक वरिष्ठ अधिकारी ने संसद के समक्ष कहा था कि परियोजना को अडानी समूह को देने के लिए नरेंद्र मोदी ने दबाव डाला था.

अडानी की परियोजना श्रीलंका के सुप्रीम कोर्ट में विभिन्न आरोपों का सामना कर रही है. जब अडानी समूह को मन्नार और पूनरीण में पवन ऊर्जा परियोजना के प्रस्तावित निर्माण के लिए सरकार की मंजूरी मिली, कुछ याचिकाकर्ता इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए हैं. 

द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, याचिकाकर्ताओं ने पर्यावरण संबंधी चिंताओं और मंजूरी देने के लिए बोली प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी का मुद्दा उठाया है. 

याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया है कि 0.0826 डॉलर प्रति किलोवाट आवर की तय टैरिफ दर श्रीलंका के लिए नुकसानदायक होगी और इसे घटाकर 0.005 डॉलर प्रति किलोवाट आवर किया जाना चाहिए. 

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने प्रतिवादियों (सरकार, निवेश बोर्ड और केंद्रीय पर्यावरण प्राधिकरण) को 13 सितंबर से पहले आपत्तियों को दाखिल करने का आदेश दिया था. अब इस मामले में अगली सुनवाई 14 अक्टूबर को होनी है. 

अक्टूबर 2021 में गौतम अडानी ने श्रीलंका का दौरा किया था और राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे से मुलाकात की थी. दोनों के बीच निवेश के अवसरों पर बातचीत हुई थी. इस यात्रा के छह महीने बाद अडानी समूह ने मन्नार जिले में और किलिनोची जिले के पूनरीण में दो ऊर्जा परियोजनाएं स्थापित करने के लिए एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए. 

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, श्रीलंका सरकार और अडानी समूह के बीच 12 मार्च को समझौता हुआ लेकिन उसकी शर्तों को सार्वजनिक नहीं किया गया. 

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़, जून 2022 में सीलोन इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड (सीईबी) के अध्यक्ष एमएमसी फर्डिनेंडो ने संसदीय पैनल के सामने दावा किया था कि मोदी ने परियोजना को अडानी समूह को देने के लिए राष्ट्रपति पर दबाव डाला था. उन्होंने समिति को बताया कि राष्ट्रपति ने उनसे परियोजना अडानी समूह को देने के लिए कहा था.

राजपक्षे ने इन आरोपों से इनकार किया था. कुछ ही दिन बाद फर्डिनेंडो ने बयान वापस लेकर अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. अडानी समूह ने भी इन आरोपों को निराधार बताते हुए इनका खंडन किया था.

अब श्रीलंका में नई सरकार बन चुकी है. नई सरकार की राजनीतिक प्राथमिकताएं और नीतियां बदलने से अडानी के प्रस्तावित प्रोजेक्ट्स पर असर पड़ सकता है.