गुवाहाटी: असम समझौते के खंड 6 के क्रियान्वयन को लेकर मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा के ऐलान को विपक्ष ने अस्पष्ट और लोगों को गुमराह करने वाला बताया है.
मालूम हो असमिया पहचान और इसकी परिभाषा की ‘आत्मा’ माने जाने वाले असम समझौते के खंड 6 को लागू करने के लिए 2019 में गृह मंत्रालय द्वारा बिप्लब कुमार शर्मा समिति का गठन किया गया था. अब असम सरकार ने इस समिति की कुल 67 सिफारिशों में से 52 को लागू करने का फैसला किया है, जिसे 2025 के वसंत या बोहाग बिहू के असमिया नए साल की शुरुआत तक लागू किया जा सकता है.
मालूम हो कि 15 अगस्त, 1985 को पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी, ऑल-असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) और असम गण परिषद (एजीपी) के नेताओं के बीच हस्ताक्षरित असम समझौते ने राज्य के भीतर छह साल से चले आ रहे हिंसक आंदोलन को समाप्त कर दिया था.
क्या है असम समझौते का खंड 6
असम समझौते के अनुच्छेद छह में कहा गया है कि असमिया समाज के लोगों की संस्कृति, सामाजिक, भाषाई पहचान और विरासत की रक्षा, संरक्षण और प्रोत्साहन के लिए संवैधानिक, विधायी और प्रशासनिक सुरक्षा उपाय, जो भी उपयुक्त हों किए जाएंगे.
बिप्लब कुमार शर्मा समिति के संदर्भ की शर्तें क्या हैं?
समिति के संदर्भ की शर्तों में असम समझौते के खंड 6 को लागू करने के लिए 1995 से की गई कार्रवाइयों की प्रभावशीलता की जांच करना, विभिन्न हितधारकों के साथ चर्चा करना और केवल असमिया लोगों के लिए राज्य विधानसभा और स्थानीय निकायों में सीटों के आरक्षण के स्तर का आकलन करना शामिल है.
इसके अलावा सुरक्षा के उपाय सुझाना, राज्य की स्थानीय भाषाएं, असमिया लोगों के लिए राज्य सरकार के तहत रोजगार में उचित स्तर के आरक्षण की सिफारिश करना और असमिया की सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई पहचान और भाषा की रक्षा, संरक्षण और प्रचार के लिए आवश्यक कोई अन्य उपाय करना आदि शामिल है.
ज्ञात हो कि खंड 6 के कार्यान्वयन में देरी को लेकर अक्सर पक्ष-विपक्ष की राजनीति को जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का दावा है कि कांग्रेस पार्टी वोट बैंक-राजनीति के चलते इस खंड को लागू नहीं होने देना चाहती.
भाजपा का रुख
2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान ऊपरी असम के मोरन में एक रैली को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘कांग्रेस को परियोजनाएं ‘लटकाने’ की आदत है.’
इस संबंध में 7 सितंबर को मुख्यमंत्री शर्मा ने एक्स पर एक पोस्ट में लिखा, ‘हम जस्टिस (सेवानिवृत्त) बिप्लब शर्मा आयोग की 67 सिफारिशों में से 52 को लागू करेंगे. बाकी 15 सिफारिशें, जिसमें विधानसभा और संसद में सीटों के आरक्षण जैसे मुद्दे शामिल हैं, इसके लिए केंद्र सरकार के साथ सक्रिय तौर पर बातचीत की जाएगी और जल्द से जल्द लागू करवाने की कोशिश रहेगी.’
उसी दिन मीडिया को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा, ‘पहली सिफारिश जो हम अपने स्तर पर नहीं कर सकते, वह विधानसभा, लोकसभा और पंचायत में असमिया लोगों के लिए 80% सीटें आरक्षित करना है. इसमें दो कठिनाइयां हैं, एक यह कि बराक घाटी और छठी अनुसूची क्षेत्रों के लोग इस मुद्दे को कैसे देखते हैं. अगले कुछ दिनों में हम उनसे और भारत सरकार से बात करेंगे. मैं भारत सरकार का वादा नहीं कर सकता, लेकिन असम सरकार इसके प्रति गंभीर है और शेष 15 सिफारिशों को भारत सरकार के पास ईमानदारी से रखेगी.’
उन्होंने आगे कहा, ‘राज्य सरकार ने लंबे समय तक इस रिपोर्ट को हाथ नहीं लगाया, क्योंकि हम इसके कठिन भागों पर विचार कर रहे थे. हमारा दृष्टिकोण यह है कि जब हम कठिन पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, तो हमें उन 52-53 सिफारिशों को नहीं छोड़ देना चाहिए, जिन्हें हम लागू कर सकते हैं. इसलिए हम 52 बिंदुओं पर अमल करना चाहते हैं. मैं एक बार फिर दोहराऊंगा कि भाषा से संबंधित सिफारिशें छठी अनुसूची क्षेत्रों और बराक घाटी को छोड़कर वहां के क्षेत्रों के लोगों से परामर्श के बाद लागू की जाएंगी. इसलिए, हम वर्तमान में छठी अनुसूची क्षेत्रों और बराक घाटी को छोड़कर भाषा संबंधी सिफारिशों को लागू करेंगे ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि हमारे बीच कोई असमंजस है.’
बीते 25 सितंबर को आसू नेताओं के साथ बैठक के बाद मुख्यमंत्री ने राज्य के शीर्ष छात्र निकाय संगठन को सूचित किया कि बराक घाटी को जस्टिस शर्मा समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों के कार्यान्वयन से छूट दी जाएगी.
मीडिया ने उनके हवाले से कहा, ‘हमने आसू टीम को बताया कि सिफारिशें बंगाली बहुल बराक घाटी में लागू नहीं की जाएंगी.’
बंगाली बहुल बराक घाटी में कछार, हैलाकांडी और करीमगंज जिले शामिल हैं.
मालूम हो कि ब्रह्मपुत्र घाटी में स्थित असमिया जातीय समुदाय और बराक घाटी में बंगाली भाषी प्रमुख आबादी के बीच एक जातीय और भाषाई विभाजन देखने को मिलता है. यह क्षेत्र एक हिंसक भाषा आंदोलन आंदोलन का गवाह रहा है.
ये वाकया 19 मई, 1961 का है, जब असम पुलिस की एक टुकड़ी ने 11 बंगाली प्रदर्शनकारी युवाओं को मौत के घाट उतार दिया था. ये बंगाली प्रदर्शनकारी तत्कालीन असम सरकार के परिपत्र के खिलाफ विरोध करने के लिए सिलचर रेलवे स्टेशन पर एकत्र हुए थे, जिसमें असमिया को राज्य की आधिकारिक भाषा बनाने की मांग की जा रही थी.
मई 2023 में इस भाषा आंदोलन की 62वीं वर्षगांठ पर मुख्यमंत्री शर्मा ने इन मारे गए 11 बंगाली युवाओं को शहीद कहा था. यह पहली बार था कि राज्य सरकार ने उन्हें ‘शहीदों’ के रूप में मान्यता दी.
विपक्ष क्या कह रहा है?
7 सितंबर को संवाददाता सम्मेलन में मुख्यमत्री शर्मा ने बताया कि समिति की रिपोर्ट तीन भागों में विभाजित है, जिनमें 40 सिफारिशें विशेष रूप से राज्य के कार्यान्वयन के लिए, 12 सिफारिशों को केंद्र और राज्य दोनों सरकारों द्वारा संयुक्त रूप से लागू किया जाएगा और 15 सिफारिशें विशेष रूप से केंद्र के लिए हैं.
खंड 6 के कार्यान्वयन को बराक घाटी और दिमा हसाओ, कार्बी आंगलोंग और बोडोलैंड प्रादेशिक क्षेत्र (बीटीआर) के 6वीं अनुसूची क्षेत्रों से बाहर रखा जाएगा.
शर्मा के अनुसार, अधिकांश सिफारिशें भाषा संरक्षण और स्थानीय जनसांख्यिकी के लिए भूमि अधिकारों से संबंधित हैं.
इस मामले पर 18 सितंबर को राज्य कांग्रेस प्रदेश समिति ने एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए आरोप लगाया कि शर्मा जानबूझकर खंड 6 के कार्यान्वयन पर लोगों को गुमराह कर रहे हैं.
कांग्रेस ने सवाल किया कि जब तक नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) है तब तक असम समझौते को कैसे लागू किया जा सकता है. पार्टी ने दावा किया कि केंद्र सरकार ने आधिकारिक तौर पर इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया है लेकिन शर्मा लोगों की भावनाओं के साथ खेल रहे हैं.
राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता देबब्रत सैकिया ने कहा, ‘शर्मा को हमें डेटा मुहैया कराना चाहिए कि असम समझौते के कार्यान्वयन के लिए किस तरह का काम किया जा रहा है. उनमें इस बारे में बात करने की हिम्मत नहीं है, फिर उन्हें इसे लागू करने के बारे में भी भूल जाना चाहिए.’
देबब्रत सैकिया ने आगे कहा कि आखिर शर्मा खिलौंजिया (स्थानीय) की परिभाषा तय करने की प्रक्रिया क्यों नहीं शुरू करते. क्योंकि असम समझौते को लागू करने के लिए यह जरूरी है.
उन्होंने आगे और कहा, ‘मैं उनसे इस रिपोर्ट को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को सौंपने के लिए कहता हूं, ताकि वह इसे पीएम मोदी तक पहुंचा सकें. शर्मा सरकार ने असम लोक सेवा आयोग (एपीएससी) परीक्षा से असमिया भाषा का प्रावधान हटा दिया है, जो कभी अनिवार्य था. शर्मा ने एक बार राज्य विधानसभा में कहा था कि वह खिलौंजिया की परिभाषा नहीं चाहते हैं. वह विधानसभा में इसकी परिभाषा के बारे में किसी के सवाल का जवाब दे रहे थे. उनके बयान अस्पष्ट हैं और उनका उद्देश्य केवल असम के निर्दोष लोगों को गुमराह करना है.’
मालूम हो कि जस्टिस बिप्लब शर्मा समिति में 14 सदस्य थे, जिनमें आसू के वरिष्ठ प्रतिनिधि, एक वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, प्रोफेसर, सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी और असम और अरुणाचल प्रदेश के महाधिवक्ता और उत्तर-पूर्व (एमएचए) के संयुक्त सचिव सहित वरिष्ठ नौकरशाह शामिल थे.
समिति में परामर्श के लिए आमंत्रित कई हितधारकों में से एक राज्यसभा सांसद और पूर्व वरिष्ठ पत्रकार अजीत कुमार भुइयां ने असम सरकार द्वारा इन सिफारिशों को लागू करने के रुख को ‘अर्थहीन’ और अतार्किक बताया है.
द वायर से बात करते हुए भुइयां ने कहा, ‘इसके बारे में सुनकर काफी अच्छा लगा, लेकिन साथ ही कुछ सवाल भी हैं, जिनका शर्मा को जवाब देना होगा. असमिया लोगों को संवैधानिक संरक्षण देने की पहली शर्त यह तय करना है कि असमिया कौन है. सबसे पहले, उन्हें यह बताना चाहिए कि सिफारिशें किसके लिए लागू की जाएंगी और वे किसकी सुरक्षा की बात कर रहे हैं. जब नागरिकता संशोधन कानून लाया गया, तो शर्मा ने असमिया लोगों और हमारी भावनाओं के खिलाफ काम किया. वह एक खतरनाक सिलसिला शुरू कर रहे हैं और हमारी भावनाओं के साथ खेल रहे हैं.’
उन्होंने आगे कहा, ‘उन्हें हमें परिभाषा बतानी चाहिए. वह मूलवासियों की जमीन बाहरी लोगों को देना चाहते हैं. रिपोर्ट को ही चार साल तक किनारे रखा जाना हमारी भावनाओं का अपमान है. यदि राज्य सरकार द्वारा मूल निवासियों को संवैधानिक संरक्षण दिया जा सकता है, तो केंद्र सरकार ने शर्मा समिति का गठन क्यों किया. मैं इन सिफ़ारिशों को लागू करने पर उनके बयानों को पूरी तरह संदेह की नज़रों से देखता हूं.’
बता दें कि समिति ने नौ अध्यायों में विभाजित 141 पेज की रिपोर्ट सौंपी थी, जिसके विभिन्न अनुबंध हैं. रिपोर्ट का अध्याय चार अलग-अलग हितधारकों की प्रतिक्रिया और सुझावों के विश्लेषण के बारे में बात करता है.
यह कहता है, ‘असम समझौता ने मूलनिवासियों को लेकर कोई परिभाषा नहीं दी है. इसमें असमिया लोगों की परिभाषा, उसके मानदंड और विशेषताओं की अनुपस्थिति ने बहुत बहस छेड़ दी है. इसमें क्षेत्र की पहचान संबंधी चर्चा को आकार दिया गया है, फिर भी दशकों से इस परिभाषा पर कोई आम सहमति बनने में विफल रही है.’
असम में 18 विपक्षी दलों के संयुक्त मंच- यूनाइटेड अपोजिशन फोरम (यूओएफए) के सदस्य रायजोर दल के महासचिव रसेल हुसैन ने कहा, ‘सबसे पहले 57 सिफारिशें राज्य सरकार की पहुंच के भीतर हैं, जबकि बाकी केंद्र सरकार के पास हैं. अमित शाह ने संसद में कहा कि क्लॉज 6 को शब्द-दर-शब्द लागू करेंगे. 25 मार्च, 2020 से समिति की रिपोर्ट गुवाहाटी के एक कार्यालय में पड़ी हुई है. 2019 में असमिया लोगों के उबलते गुस्से को शांत करने के लिए ही रिपोर्ट सर्बानंद सोनोवाल को सौंपी गई थी. मैं पूछता हूं कि इसे केंद्र सरकार को क्यों नहीं भेजा गया. सिफ़ारिशों को लागू करने पर शर्मा के बयान को लेकर बहुत अस्पष्टता है.’
द वायर ने असम जातीय परिषद (एजेपी) के महासचिव और यूओएफए के पार्टी सदस्य जगदीश भुइयां से संपर्क किया. उन्होंने कहा, ‘शर्मा की चाल मूल मुद्दे से भटकाने की है. नोडल मंत्रालय गृह मंत्रालय है, और वही केवल सिफारिशों को लागू कर सकता है. असम में रिपोर्ट को एक कोने में रख दिया गया. शर्मा हर किसी को बेवकूफ नहीं बना सकते. नौकरियों में आरक्षण, भूमि अधिकार, राजनीतिक आरक्षण के मूल मुद्दे सभी केंद्र के विषय हैं. राज्य इसमें बहुत कुछ नहीं कर सकता. यह एक बहुत व्यापक रिपोर्ट है. शर्मा केवल गुमराह कर रहे हैं और असम के लोगों के बीच भ्रम पैदा कर रहे हैं.’
गौरतलब है कि ये रिपोर्ट 10 फरवरी, 2020 तक तैयार की गई थी और फिर 25 फरवरी, 2020 को असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल को सौंपी गई थी. विशेषज्ञों का कहना है कि तब इस रिपोर्ट को नागरिकता संशोधन अधिनियम विरोधी आंदोलन के दौरान उबल रहे गुस्से को शांत करने के लिए लाया गया था.
इस संबंध में वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व आसू सदस्य नेकिबुर ज़मान ने कहा कि राज्य सरकार को भ्रम समाप्त कर अपने लोगों की रक्षा करनी चाहिए.
ज़मान ने कहा, ‘अब इसमें किसी भी तरह की देरी नहीं होनी चाहिए. रिपोर्ट को लागू करने पर हुई राजनीति ने भारी असर डाला है और हम पहले ही चार साल खो चुके हैं. राज्य सरकार को भ्रम को समाप्त करना चाहिए और अपने लोगों के लिए संवैधानिक सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए.’
दूसरी ओर, आसू ने इस फैसले के प्रति समर्थन व्यक्त करते हुए कहा है कि असमिया लोगों के लिए संवैधानिक सुरक्षा उपायों पर दशकों पुराना संघर्ष, जिसका अंतिम परिणाम 1985 में समझौते पर हस्ताक्षर के रूप में हुआ, अब अपने मंजिल के करीब है.
द वायर से बात करते हुए आसू के अध्यक्ष उत्पल शर्मा ने कहा, ‘…मैं कहूंगा कि यह एक अच्छी शुरुआत है. सीएम शर्मा ने खुद कहा है कि राज्य सरकार आसू के साथ सहयोग करेगी और राज्य सरकार के साथ चर्चा जारी रहेगी. हमें नतीजे चाहिए. हमने अपना पूरा समर्थन दिया है. हमें सकारात्मक परिणाम चाहिए.’
दिलचस्प बात यह है कि आसू इस साल मार्च में असम में सीएए के खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शन का हिस्सा था. मार्च की शुरुआत में खबर आई थी कि आसू चुनाव से पहले मोदी के असम दौरे का विरोध करने के लिए 12 घंटे की भूख हड़ताल पर बैठेगा. तब भाजपा के आलोचकों ने कहा कि शर्मा और मोदी दोनों ही इस पर चुनावी लाभ लेने की कोशिश कर रहे हैं.
उस समय उत्पल शर्मा ने द हिंदू से कहा था, ‘असमिया लोग सीएए को कभी स्वीकार नहीं करेंगे और हम इसे हम पर थोपने की केंद्र की कोशिश के खिलाफ अपनी लोकतांत्रिक और कानूनी लड़ाई जारी रखेंगे.’
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