शोधार्थी से ऊंची रक़म वसूलता अभिलेखागार: अशोका यूनिवर्सिटी पर चंद सवाल

अशोका यूनिवर्सिटी के अभिलेखागार में प्रत्येक दस्तावेज़ के लिए क़ीमत चुकानी पड़ती है, जबकि नेशनल आर्काइव, नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी, साहित्य अकादमी जैसी सरकारी संस्थाओं में ये शोधार्थियों को निशुल्क उपलब्ध होते हैं.

अशोका यूनिवर्सिटी परिसर. (फाइल फोटो: अनिरुद्ध एसके/द वायर)

प्रसिद्ध साहित्यकार, कवि, संपादक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा वर्ष 1980 में स्थापित वत्सल निधि ने ‘उनके निधन के 37 वर्षों बाद उनके दस्तावेज अशोका यूनिवर्सिटी के आर्काइव को दे दिए हैं. इस बाबत वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने अपनी फेसबुक वॉल पर 25 सितंबर 2024 को जानकारी दी. दस्तावेज़ों को सौंपने से जुड़ी औपचारिक काग़ज़ी कार्रवाई पिछले वर्ष ही पूरी हो चुकी थी. वत्सल निधि द्वारा इस निजी विश्वविद्यालय को सौंपे गए दस्तावेजों में अज्ञेय के पत्राचार, नोटबुक, डायरी, ड्राफ्ट, पांडुलिपियां, पैंफलेट, अख़बारी कतरनें, तस्वीरें और चित्र प्रमुखता से शामिल हैं.

यहां बता दें कि अशोका यूनिवर्सिटी का ‘आर्काइव ऑफ कंटेंपरेरी इंडिया’ एक पेड आर्काइव है, जिसमें हरेक दस्तावेज के लिए आपको कीमत चुकानी पड़ेगी. अगर वत्सल निधि ने अज्ञेय के दस्तावेज नेशनल आर्काइव, नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी (तीन मूर्ति), साहित्य अकादमी अथवा किसी अन्य सरकारी संस्था या पब्लिक यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी को दिए होते, तो यह संरक्षित होने के साथ शोधार्थियों को निशुल्क भी उपलब्ध होते.

यह हिंदी के लिए ही नहीं भारत में समाज विज्ञान के भविष्य के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है. फिर वत्सल निधि तो एक ट्रस्ट है  इसलिए कम से कम उससे तो कुछ उम्मीद रखी जा सकती थी कि अज्ञेय की रचनाओं पर शायद इतनी रॉयल्टी तो मिलती होगी कि उससे भी उनके दस्तावेजों का प्रबंध हो सकता था. लेकिन ऐसा न हुआ.

अशोका के अभिलेखागार की सेवा दर  

आगे बढ़ने से पहले अशोका यूनिवर्सिटी के आर्काइव के बिज़नेस मॉडल, उसकी सदस्यता और दूसरी सेवाओं की दरों को भी जान लेना बेहद ज़रूरी है. इस आर्काइव में सदस्यता शुल्क साल भर के लिए 1,500 रुपये है, जबकि एक दिन के लिए 200 रुपये और हफ़्ते भर की सदस्यता का शुल्क 400 रुपये है. इसके अलावा स्कैन और फोटोकॉपी के लिए अलग-अलग दर तय है. अगर आप दस्तावेज़ों की फोटोकॉपी कराते हैं तो फाइल के पहले पन्ने के लिए 100 रुपये और बाक़ी के पन्नों के लिए 30 रुपये प्रति पृष्ठ के हिसाब से देने होंगे.

वहीं, अगर आप स्कैन कॉपी मांगते हैं, तो फाइल के पहले पन्ने के लिए 200 रुपये और शेष पृष्ठों के लिए 30 रुपये प्रति पेज देने होंगे, पेन ड्राइव की क़ीमत अलग से.

अगर आप इस आर्काइव से कोई फोटो या तस्वीर लेते हैं, तो तस्वीर की गुणवत्ता (क्वालिटी) के आधार पर प्रति फोटो 500 रुपये (300 डीपीआई) या 1,000 रुपये (600 डीपीआई) चुकाने होंगे. अगर इस आर्काइव की किसी फोटो का इस्तेमाल आप अपनी किताब में कर रहे हैं तो उसके कॉपीराइट के लिए आपको प्रति फोटो 2,000 रुपये देने होंगे. अब इस दर से महज़ कुछ सौ पन्नों की सामग्री या चंद तस्वीरों के लिए किसी शोधार्थी को कितने रुपये चुकाने होंगे, इसका अनुमान आप लगाइए.

अब इसकी तुलना आप राष्ट्रीय अभिलेखागार (नेशनल आर्काइव) से करके देखें, जो ऑनलाइन अभिलेख पटल के रूप में उपलब्ध है, जहां आप केवल लॉग-इन आईडी बनाकर लाखों दस्तावेज देख पढ़ सकते हैं मुफ्त में.

ऐसी कोई सुविधा अशोका यूनिवर्सिटी में नहीं है. वहां दस्तावेजों का पहला पन्ना प्रीव्यू में दिखाया जाता है बाकी हर पन्ने के लिए कीमत चुकानी पड़ती है. अंतर बिल्कुल साफ़ है.

यहां यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि तीन मूर्ति या नेशनल आर्काइव में संदर्भ सामग्री ढूंढने के क्रम में दिल्ली आने वाले शोधार्थियों के पास दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया या जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्रावासों में अपने मित्रों के पास कुछ दिन या सप्ताह तक ठहरने का किफ़ायती विकल्प था, मगर सोनीपत स्थित अशोका यूनिवर्सिटी के आर्काइव का इस्तेमाल करने के क्रम में उनके पास ऐसी कोई रिहाइश की सुविधा नहीं होगी. यह स्थिति वंचित पृष्ठभूमि से आने वाले शोधार्थियों के लिए एक बड़ी चुनौती साबित होगी.

‘आर्काइव ऑफ कंटेंपरेरी इंडिया’ को दस्तावेज़ देने वाले लोग

इस सबके बावजूद लोगों में एक निजी विश्वविद्यालय के आर्काइव को दस्तावेज सौंपने में होड़ लगी हुई है. अचरज की बात तो यह है कि इन दस्तावेज़ों में भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के पेपर्स भी शामिल हैं.

यही नहीं गांधीवादी, समाजवादी, साम्यवादी, नाटककार, रंगकर्मी, फिल्म निर्माता, साहित्यकार, पत्रकार, अकादमिक विद्वान, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनयिक, पर्यावरणविद – सभी अशोका यूनिवर्सिटी के आर्काइव को दस्तावेज़ देने की इस होड़ में शामिल हैं. जहां वीर भारत तलवार जैसे विद्वान ने झारखंड आंदोलन से जुड़े दस्तावेज इस आर्काइव को दिए हैं, वहीं सीपीआई (एम) के पोलित ब्यूरो की सदस्य और पूर्व सांसद सुभाषिनी अली ने कैप्टन लक्ष्मी सहगल के पेपर्स इस निजी विश्वविद्यालय को थमा दिए.

लक्ष्मी मल्ल सिंघवी, केएस वाजपेयी, जगत मेहता, एन. राघवन जैसे राजनयिकों के दस्तावेज़ भी इस आर्काइव के पास हैं. प्रभाकर माचवे, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ जैसे हिंदी के साहित्यकारों के पेपर्स भी अब इस आर्काइव के पास हैं.

अशोका को दस्तावेज देने वालों में कुलदीप नैयर, चंडी प्रसाद भट्ट, गोपाल कृष्ण गांधी, गिरीश कर्नाड, सई परांजपे, नंदिता हक्सर, किरण नागरकर, दीपक कुमार, दिलीप सिमियन, अचिन वनाइक, नारायणी गुप्ता, दिलीप पडगांवकर, प्रफुल्ल बिदवई, प्रेमशंकर झा जैसे नाम भी हैं.

एक निजी विश्वविद्यालय के आर्काइव को पेपर सौंपने वाले उपर्युक्त लोगों की प्रतिबद्धता और उनके सामाजिक सरोकारों को लेकर सवाल उठने तो लाज़िमी ही हैं. अपने सार्वजनिक जीवन में निजीकरण का विरोध करने वाले इनमें से बहुत-से लोगों ने आख़िर किस विवशता में अपने दस्तावेज़ों के संग्रह एक निजी विश्वविद्यालय को सौंपे, यह उनसे पूछा जाना चाहिए?

पेपर्स देने वाले अकादमिक विद्वानों के संदर्भ में यह सवाल भी उठता है कि क्या सच में उनके पेपर्स पर उनका ‘निजी’ स्वामित्व था या कि उन दस्तावेज़ों पर क़ायदे से उनके विश्वविद्यालयों का अधिकार बनता था?

मसलन, इनमें वे लोग भी हैं जो केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक रहे, उन लोगों ने अपने शोध के सिलसिले में सरकारी संस्थाओं (यूजीसी, आईसीएसएसआर, आईसीएचआर) से अनुदान लिए और इन लोगों ने सरकारी पैसों से यूरोप और अमेरिका में स्थित अभिलेखागारों की यात्राएं कीं? उन्हें क्या सरकारी अनुदान इसलिए मिले थे कि वे इससे तैयार होने वाले संग्रह को एक दिन निजी विश्वविद्यालय को सौंप दे?

अगर अनुदानों के साथ ऐसी कोई पूर्वशर्त न भी रही हो तो भी उन प्राध्यापकों की कुछ नैतिक ज़िम्मेदारी तो बनती ही है!

अभिलेखागार (आर्काइव) की संरचना

पहुंच, पारदर्शिता और जवाबदेही का मसला इतिहासकारों ने बीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में आर्काइव की संरचना, सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा उसके निर्माण, संग्रह-संचयन और दस्तावेज़ों के प्रदर्शन को प्रभावित करने की प्रक्रिया, इसके पीछे काम करने वाली सोच और आर्काइव व सत्ता के संबंधों को बारीकी से समझा और विश्लेषित किया.

भारत की ही बात करें, तो ‘इंपीरियल रिकॉर्ड्स डिपार्टमेंट’ के रूप में शुरू हुए नेशनल आर्काइव ने एक लंबा सफ़र तय किया है. नेशनल आर्काइव के संग्रह को इसके वर्तमान रूप में पहुंचाने का श्रेय 1919 में स्थापित ‘इंडियन हिस्टॉरिकल रिकॉर्ड्स कमीशन’ और उससे जुड़े सर यदुनाथ सरकार, जीएस सरदेसाई, सैयद हसन अस्करी, शफ़ात अहमद खान जैसे इतिहासकारों के अथक परिश्रम को प्रमुखता से जाता है.

वहीं, वर्ष 1964 में स्थापित नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी (अब प्रधानमंत्री म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी) ने राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े दस्तावेज़ों, आधुनिक भारत की पत्र-पत्रिकाओं को संकलित करने और मौखिक इतिहास के रूप में स्वतंत्रता सेनानियों के साक्षात्कार दर्ज करने में अहम भूमिका निभाई, जिसमें नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी के निदेशक रहे बीआर नंदा, रविंदर कुमार जैसे इतिहासकारों के विजनरी नेतृत्व और डॉ. हरिदेव शर्मा जैसे विद्वानों ने बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

पिछले कुछ सालों में भारत में जहां एक ओर राष्ट्रीय अभिलेखागार, तीन मूर्ति लाइब्रेरी और सरकारी पुस्तकालयों की स्थिति पहले से बदहाल हुई है. वहीं इसी दौर में परिस्थिति का लाभ उठाकर अशोका यूनिवर्सिटी जैसे निजी विश्वविद्यालय ने ‘आर्काइव ऑफ कंटेंपरेरी इंडिया’ की परियोजना को मूर्त रूप दिया है और तेज़ी से ऐतिहासिक महत्त्व के दस्तावेज संगृहीत किए हैं.

यह भी ध्यान में रखना होगा कि अशोका यूनिवर्सिटी के आर्काइव के अध्यक्ष इतिहासकार महेश रंगराजन हैं, जो पूर्व में नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम एंड लाइब्रेरी के निदेशक रह चुके हैं. आर्काइव की निदेशक दीपा भटनागर भी तीन मूर्ति लाइब्रेरी से सेवानिवृत्त हैं और उनके पास तीन मूर्ति लाइब्रेरी के आर्काइव और शोध व प्रकाशन विभाग के संचालन का लंबा अनुभव है.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इन पेपर्स को हासिल करने में महेश रंगराजन के व्यापक संपर्क और अकादमिक दुनिया में उनकी गहरी पैठ ने भी बड़ी भूमिका निभाई होगी.

गैर-जिम्मेदाराना सरकारी रवैया 

महज़ कुछ सालों के भीतर समकालीन भारत पर केंद्रित एक आर्काइव खड़ा करने में अशोका यूनिवर्सिटी की इस सफलता में नेशनल आर्काइव, तीन मूर्ति जैसे संस्थानों की अपेक्षाकृत निष्क्रियता, नए पेपर्स लेने के प्रति उनकी उदासीनता और पेपर्स हासिल करने में आड़े आने वाली प्रक्रियागत बाधाएं और लालफ़ीताशाही भी ज़िम्मेदार हैं.

इन सरकारी संस्थाओं के उपेक्षापूर्ण और गैर-पेशेवराना रवैए के चलते आख़िरकार उन लोगों ने भी अशोका यूनिवर्सिटी को पेपर्स देना तय किया, जो पहले इसे किसी सरकारी संस्था या पुस्तकालय को सौंपना चाहते थे.

अशोका यूनिवर्सिटी द्वारा बनाए जा रहे आर्काइव से कई और सवाल भी उठते हैं. ऐतिहासिक दस्तावेज़ों तक पहुंच और उन पर नियंत्रण का मसला उनमें से एक है. राष्ट्रीय आंदोलन और समकालीन भारत के सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक इतिहास से जुड़े अत्यंत महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों का एक निजी विश्वविद्यालय के नियंत्रण में होना तमाम सवालों को जन्म देता है.

यह सवाल केवल सार्वजनिक महत्त्व के दस्तावेज़ों के निजी आर्काइव में पहुंचने तक ही सीमित नहीं है, इससे भी कहीं आगे यह उन दस्तावेज़ों तक भावी अध्येताओं की पहुंच और नियंत्रण से भी जुड़ा है. इस आर्काइव द्वारा प्रदत्त सेवाओं की क़ीमतों का बहुत अधिक होना शोधार्थियों के लिए आर्थिक बोझ साबित होगा. इसी तरह एक निजी विश्वविद्यालय द्वारा संचालित आर्काइव को लेकर अध्येताओं के मन में इसके द्वारा दस्तावेज़ों के चयन व संकलन की प्रक्रिया, उनके प्रदर्शन में बरती जाने वाली पारदर्शिता और भारतीय समाज के प्रति उसकी व्यापक जवाबदेही को लेकर भी सवाल उठ सकते हैं.

(लेखक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं.)