मानेसर: हरियाणा चुनाव के बीच एक ऐसा मसला फिर से उभर रहा है, जिसने एक वक्त राज्य की राजनीति को झकझोर दिया था लेकिन इस वक्त लगभग भुलाया जा चुका है.
इसके एक साक्षी हैं सुरेंद्र कौशिक, जिनके भीतर जनवरी 2018 का वह दिन आज भी ताजा है मानो यह कल की बात हो. ‘सर जी, मैं नहीं चाहता कि मेरी तनख्वाह से पीएफ-वीएफ के नाम पर एक भी रूपया काटा जाए. मुझे स्थायी कर्मचारी मत बनाइए.’ चश्मा पहने सुरेंद्र कौशिक उस बीती जनवरी को याद कर रहे थे. ‘मैंने अपने बॉस से कहा कि आप बिना स्थायी किए भी मेरा वेतन बढ़ा सकते हैं, लेकिन वे कहां मानने वाले थे.’
जब इस बरस 28 सितंबर को कौशिक से द वायर हिंदी की मुलाकात हुई, वह और उनके साथी मानेसर के तहसील कार्यालय के सामने बैठे भगत सिंह की 117वीं जन्मशती की तैयारी कर रहे थे. कौशिक यह भी बता रहे थे कि पांच साल जेल में बिताने के बाद 2017 में वे रिहा हुए और सोनीपत के एक वेयरहाउस में काम करने लगे. कुछ समय बाद यानी जनवरी 2018 में उनके पास स्थाई कर्मचारी होने का प्रस्ताव आया. दिन-रात मेहनत करने वाले एक अर्ध-कुशल या अकुशल कर्मचारी के लिए, जिसके पास केवल जीने लायक पैसा हो और बचाने के लिए फूटी कौड़ी तक नहीं, स्थायी कर्मचारी बनना जीवन का सबसे बड़ा सपना होता है. लेकिन कौशिक ऐसा क्यों नहीं चाहते थे?
‘स्थाई कर्मचारी होने के लिए पुलिस वेरिफिकेशन ज़रूरी था, और पुलिस प्रक्रिया का मतलब था गड़े मुर्दों को उखाड़ना.’ धूल भरे गद्दे पर बैठे, भुने चने चबाते एक अन्य कर्मचारी सतीश ने जवाब दिया. सुरेंद्र कौशिक मालिक से क्या छिपाना चाह रहे थे? ‘मेरा अतीत. मुझे उस पर गर्व है. मगर वही मेरी रोज़ी निगल लेता.’
मारुति की मानेसर फैक्ट्री से जुड़ा यह अतीत आज तक कौशिक के ऊपर मंडरा रहा है.
मारुति फैक्ट्री में आगजनी
करीब डेढ़ दशक पहले मारुति सुजुकी की मानेसर फैक्ट्री में मजदूर कम वेतन, अनिश्चित कार्य स्थिति और कंपनी प्रबंधन द्वारा उनके स्वतंत्र संघ से बातचीत न करने का विरोध कर रहे थे. 18 जुलाई 2012 को यूनियन और प्रबंधन के बीच यह विवाद भीषण हिंसा और आगजनी तक पहुंचा और एक मैनेजर अवनीश कुमार देव की मौके पर मौत हो गई. उस वक्त कौशिक और सतीश फैक्ट्री के अंदर थे. अगले दिन कंपनी ने 547 स्थायी और 1800 ठेका मजदूरों को काम से निकाल दिया, जिनमें कौशिक और सतीश भी शामिल थे. वे दोनों स्थायी मजदूर थे.
इन ढाई हज़ार से अधिक मजदूरों में से 148 मजदूरों को छोड़कर बाकियों का नाम हरियाणा पुलिस की जांच तक में सामने नहीं आया. अन्य को केवल ‘अविश्वास’ के कारण नौकरी से निकाल दिया गया. शेष कर्मचारियों पर आपराधिक मुकदमा चला, जिसमें से 117 को बाद में बरी कर दिया गया. जब उन्हें दोषी साबित न होने के बावजूद बहाल नहीं किया गया, तो मज़दूरों ने श्रम न्यायालय से हस्तक्षेप की गुहार लगाई. मामला आज भी लंबित है.
उस घटना के 12 साल बाद आज फिर से कौशिक और सतीश अपने उन बर्खास्त साथियों के साथ मानेसर तहसील ऑफिस के सामने अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं. उनकी मांग है कि जिनको अदालत ने निर्दोष पाया उनको तुरंत नौकरी पर बहाल किया जाए.
इस मांग को लेकर ये मजदूर अब तक 50 से अधिक धरने चुके हैं, 2012 में श्रम अदालत में केस दायर कर चुके हैं मगर उनके हाथ कुछ नहीं लगा. मारुति से निकाले जाने के समय कौशिक का मासिक वेतन 18,000 रुपये था. 2017 में जेल से रिहा होने के बाद जब उन्होंने उपरोक्त वेयरहाउस में नौकरी की, उन्हें सिर्फ 15,000 रुपये महीना मिलते थे. लेकिन उनके लिए नौकरी बहुत ज़रूरी थी. जब वेयरहाउस का मालिक उनकी नौकरी स्थाई करने पर अड़ गया, जिसका डर था वही हुआ. पुलिस सत्यापन में कौशिक के मारुति की घटना से संबंध का पता चल गया. ‘उन्होंने दो महीनों का वेतन पकड़ाया और कहा अब इधर कभी मत आना,’ कौशिक ने कहा.
कौशिक ने इसके बाद कम वेतन पर कई नौकरियां कीं पर कोई भी कुछ महीनों से ज्यादा नहीं टिकी. हर बार जैसे ही प्रबंधन को उनके मारुति से बर्खास्त होने की जानकारी मिलती, उन्हें बाहर कर दिया जाता.
यही स्थिति मारुति से बर्खास्त उन तमाम मजदूरों की है जो काम की तलाश में भटक रहे हैं. वे खेती मजदूरी कर लेते हैं, मोटर वर्कशॉप में काम कर लेते हैं, जो काम मिले कर लेते हैं. कई लोगों ने पशुपालन भी शुरू कर दिया है.
‘मैं कभी भी तीन महीने की टेस्ट विंडो को पार नहीं कर सका.’ उन्होंने खिसियाकर बताया कि भले ही वे शुरू में अपना मारुति कनेक्शन छिपाने में सफल हो जाते लेकिन कुछ महीनों में मज़दूरों से दोस्ती होने पर वे खुद ही बता देते या बात करते-करते मुंह से निकल जाता और बात प्रबंधन तक पहुंच जाती.
सतीश और कौशिक निर्दोष पाए गए बर्खास्त मजदूरों की बहाली के लिए अपने साथियों के साथ 18 सितंबर से अनिश्चितकालीन धरने पर हैं.
‘इस 18 तारीख का हमारे लिए बहुत महत्व है. हर 18 जुलाई को हम फैक्ट्री गेट पर प्रदर्शन करते हैं. पिछले 12 वर्षों में हम 50 से अधिक प्रदर्शन और तरह-तरह के कार्यक्रम कर चुके हैं. कैथल से दिल्ली पैदल मार्च किया, साइकिल रैली भी की,’ मारुति सुजुकी संघर्ष समिति के संयोजक खुशी राम ने कहा.
उनके चारों ओर नारे गूंज रहे थे– ‘मारुति कंपनी के पुर्जे-पुर्जे, हमें बताते अपने किस्से; नो वॉर बट क्लास वॉर.’
18 सितंबर की सुबह जब 500 के करीब मज़दूरों ने डीसी ऑफिस से प्लांट की ओर बढ़ना शुरू किया तो लगभग दोगुनी संख्या में पुलिसकर्मियों ने बैरिकेड्स लगाकर उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया.
राजनीतिक परिवर्तन और मजदूर संघर्ष
चूंकि हरियाणा चुनाव की दहलीज पर है, कयास लगाए जा रहे हैं कि एक दशक के भाजपाई राज के बाद दूसरी पार्टी चुनाव जीत सकती है. मज़दूरों को उम्मीद है कि इन बदलते समीकरणों का असर उनके संघर्ष पर होगा. इसके अलावा फैक्ट्री में यूनियन और प्रबंधन के बीच वेतन संशोधन और अन्य मांगों के लिए त्रिवर्षीय सीओडी (मांग पत्र) पर भी इसी साल बातचीत होने वाली है.
भाजपा सरकार भी मज़दूरों के संघर्ष का इस्तेमाल अपने चुनावी प्रचार के लिए कर रही है. सोशल मीडिया पर ‘हुड्डा साहब, लोग भूले कोड्या’ (हुड्डा साहब, लोग भूले नहीं है) शीर्षक से एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर कटाक्ष किया जा रहा है.
सतीश ने द वायर हिंदी को बताया कि 2023 में मज़दूरों, यूनियन सदस्यों और प्रबंधन का एक प्रतिनिधिमंडल तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के पास गया था, जिन्होंने मामले को जल्द-से-जल्द सुलझाने की बात कही.
मौजूदा मुख्यमंत्री नायब सैनी ने हालांकि उन्हें जल्द बहाली का आश्वासन दिया है, पर किसी तरह की कोई कार्रवाई नहीं हुई है.
‘हमने मारुति को अपनी जवानी दे दी, अब जब शरीर ढलने लगा है तब हम कहां जाएं? हम 2006 में इस प्लांट में आए. तब यह शुरू ही हुआ था. हमारी दिन-रात की मेहनत से ही फैक्ट्री का विस्तार एक प्लांट से तीन प्लांट तक हो पाया.’ सतीश कहते हैं.
बढ़ती उम्र की चुनौतियां
बीस की उम्र में आईटीआई से सीधे चुने गए अधिकांश मज़दूर 40 की उम्र पार कर चुके हैं. अब उनके शरीर में दर्द की लहर उठने लगी है.
किसी विशेष योग्यता के अभाव में वे खुद को अक्षम पाने लगे हैं. ‘एक कर्मचारी जो बोल्ट और स्क्रू लगाता है, वह जीवन भर वही करता रहता है. प्रबंधन ऐसा जानबूझकर करता है,’ खुशी राम ने कहा.
कटार सिंह उदास होकर कहते हैं कि स्थिति यह है कि ‘मैं अपने बच्चों के लिए स्कूल ड्रेस नहीं खरीद सकता.’
इन मजदूरों के संघर्ष का कोई अंत दिखाई नहीं देता, और न यह राजनीति उनकी सुध लेने आती है.
(लेखक पेशे से चिकित्सक, कहानीकार हैं.)