महात्मा गांधी और लालबहादुर शास्त्री की जयंतियां ही नहीं, जीवन मूल्य भी साझा हैं

जन्मदिन विशेष: अपने जीवन को ही अपना संदेश बताने वाले महात्मा गांधी ने अपने प्रति लोगों में जो भरोसा पैदा किया था, लाल बहादुर शास्त्री ने अपने जीवन को उसका संदेश बनाकर उसे पूर्ण विश्वास में बदल दिया.

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महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री. (फोटो साभार: Wikipedia/pmi.gov.in)

निस्संदेह यह संयोग सुखद लगता है कि हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री दोनों की जयंती की तारीख एक ही है- दो अक्टूबर. लेकिन इससे भी सुखद यह कि उनके बीच का यह साझा इस संयोग पर ही खत्म नहीं होता- उनके विचारों, जीवन मूल्यों और नैतिकताओं में भी दिखता है.

इस बात को इस तरह भी समझ सकते हैं कि दोनों की जयंती भले ही एक है, जन्म के बीच 35 साल का अंतराल है. एक पीढ़ी से ज्यादा का. महात्मा 1869 में पैदा हुए थे, जबकि शास्त्री 1904 में.

कहने की जरूरत नहीं कि महात्मा से 35 साल छोटे शास्त्री स्वतंत्रता सेनानियों की उनके बाद की पीढ़ी के सदस्य थे और उनके अनुयायी के तौर पर यही कर सकते थे कि उनकी राह पर चलते हुए उनके विचारों, जीवन मूल्यों व नैतिकताओं को अपनी पीढ़ी तक ले आएं और उसके लिए अनुकरणीय बनाएं.

शास्त्री के जीवन और संघर्ष दोनों में से किसी के भी आईने में किसी भी नज़रिये से देखा जाए, यह नहीं कहा जा सकता कि थोड़े दृष्टिकोण भेद के बावजूद उन्होंने अपना यह कर्तव्य निभाने में किसी भी स्तर पर कोई कोताही बरती. इसीलिए कई लोग कहते हैं कि अपने जीवन को ही अपना संदेश बताने वाले महात्मा ने अपने प्रति लोगों में जो भरोसा पैदा किया था, शास्त्री ने अपने जीवन को उसका संदेश बनाकर उसे पूर्ण विश्वास में बदल दिया.

उनका यह बदलना इस अर्थ में बहुत मायने रखता है कि महात्मा के सर्वथा विपरीत उनके बचपन व छुटपन नाना अभावों से भरे रहे थे.

गौरतलब है कि 1942 में महात्मा ने आठ अगस्त को बम्बई (अब मुंबई) में अंग्रेजों को तुरंत भारत छोड़ने को विवश करने के लिए ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का आगाज किया और देशवासियों को ‘करो या मरो’ का मंत्र दिया तो उनके गिरफ्तार कर लिए जाने के बाद युवा जोश से भरे शास्त्री ने इलाहाबाद पहुंचकर चतुराई से उनके ‘करो या मरो’ के नारे को ‘मरो नहीं, मारो’ में बदल दिया. फिर ग्यारह दिनों तक पुलिस को छकाते हुए भूमि गत रहकर वे यह आंदोलन चलाते रहे.

इस तरह कि ब्रिटिश पुलिस उन्हें 19 अगस्त, 1942 तक उनके पास नहीं फटक सकी और जब तक गिरफ्तार करने में सफल हुई, तब तक दावानल की तरह फैलकर ‘भारत छोड़ो’ जनता का आंदोलन बन चुका था.

अंधाधुंध उपभोग के बचने की महात्मा की सीख को अपनाकर अनेक दूसरे उच्च विचारों के साथ ईमानदारी व सादगी अपनाने और निजी व सार्वजनिक जीवन में कोई फांक न रखने के मामले में तो महात्मा का कोई और अनुयायी शास्त्री के आसपास भी नहीं फटकता.

सुविदित तथ्य है कि स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान महात्मा के लिए सत्य व अहिंसा कितने बड़े मूल्य थे. वे कहते थे कि आजादी सत्य व अहिंसा इन दोनों के तिरस्कार की बिना पर मिलने वाली हो तो वे उसे लेने से मना करके तब तक उसका इंतजार करने को तैयार हैं, जब वह अहिंसक तरीकों से हासिल हो सके. सत्य संबंधी अपनी एक अभिव्यक्ति में उन्होंने कहा था कि ‘जब भी मैं निराश होता हूं, याद कर लेता हूं कि हमेशा सत्य व प्रेम के मार्ग की ही विजय होती है. हमारे इतिहास में कितने ही तानाशाह और हत्यारे हुए हैं, और कुछ समय के लिए अजेय लगते रहे हैं, लेकिन अंत में उनका पतन होकर रहा है.’

इसी तरह हिंसा के बारे में उन्होंने कहा था, ‘मैं हिंसा का विरोध करता हूं, क्योंकि उससे कोई भी हल नहीं निकलता है.’

प्रधानमंत्री बनने के बाद शास्त्री ने भी उन्हीं की तरह देशवासियों से साफ कह दिया था कि उनको सच्चा लोकतंत्र या स्वराज कभी भी असत्य व हिंसा से प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि सत्य और अहिंसा उसकी अनिवार्य शर्तें हैं. इन शर्तों को पूरा किए बगैर लोकतंत्र की बुनियादी संरचना को मजबूत नहीं किया जा सकता और इस संरचना को मजबूत किए बिना स्वराज कों सार्थक नहीं किया जा सकता.

महात्मा का मानना था कि विश्व के सभी धर्म इस बात पर एकमत हैं कि दुनिया में बस सत्य ही जीवित रहता है. इसलिए मेरा धर्म भी सत्य है और भगवान भी, जबकि अहिंसा उसे पाने का साधन है. इसी तरह प्रधानमंत्री के रूप में शास्त्री का स्पष्ट और दृढ़ मत था कि दुनिया में स्थायी शांति तब तक स्थापित नहीं हो सकती, जब तक सारे देश सदाशयतापूर्वक सत्य, अहिंसा और सहअस्तित्व की राह पकड़कर नहीं चलते.

महात्मा के निकट सत्य ही भगवान था तो शास्त्री की उनसे इस हद तक सहमति थी कि एक भाषण में उन्होंने कहा था, ‘मैं सत्य के लिए जान तक दे दूंगा, लेकिन जहां तक दूसरे नामों से जाने व पहचाने जाने वाले धर्म की बात है, वह मेरा, और मेरा ही क्यों, हर भारतवासी का निजी मामला होगा. राज्य का उससे कुछ लेना देना नहीं होगा.’

उनके इस दृष्टिकोण के पीछे महात्मा की यह सीख थी कि ‘सत्य भले ही एक है, लेकिन उसे पाने के कई मार्ग हैं और विभिन्न धर्म इन्हीं मार्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं.’

जहां महात्मा कहते थे कि छुआछूत ईश्वर व मनुष्यता दोनों के प्रति अपराध है, शास्त्री का कहना था कि स्वतंत्र भारत में जब तक किसी एक व्यक्ति को भी किसी भी रूप में अछूत कहा जाएगा, देश को शर्म से सिर झुकाना पड़ेगा.

उत्तर प्रदेश में वाराणसी स्थित ऐतिहासिक काशी विद्यापीठ (जिसके साथ अब महात्मा गांधी का नाम जोड़ दिया गया है) से तो इन दोनों महापुरुषों का बड़ा ही दिलचस्प साझा संबंध रहा है. महात्मा ने 1921 में दस फरवरी को इस विद्यापीठ की न सिर्फ नींव रखी थी बल्कि उसे स्वतंत्रता संघर्ष से संबंधित विचार-विमर्श और रणनीति निर्माण का केंद्र भी बना दिया था. जब भी वे वाराणसी में होते थे, उसमें चरखा चलाते और सूत कातते थे. उसके मानविकी संकाय में स्थित बापू भवन आज भी उन स्मृतियों को संजोये हुए है.

गौरतलब है कि अपने बचपन में ‘नन्हें’ कहकर पुकारे जाने वाले लाल बहादुर श्रीवास्तव ने 1926 में इसी विद्यापीठ से ‘शास्त्री’ की उपाधि हासिल की थी. बाद में उन्होंने अपने नाम से श्रीवास्तव शब्द हटाकर शास्त्री जोड़ लिया था और आगे चलकर यह उपाधि उनकी पहचान बन गई थी.

इसी विद्यापीठ के छात्र रहते हुए वे महात्मा के आह्वान पर असहयोग आंदोलन से जुड़े और आगे का सारा जीवन देश को समर्पित कर दिया था. अंग्रेजी सत्ता ने उन्हें जेल यात्राओं व यातनाओं के रूप में इसके कई पुरस्कार दिए थे. अपनी पहली जेल यात्रा के वक्त वे महज सत्रह साल के थे. वाराणसी में लोग उन्हें ‘काशी का लाल’ बताते हैं तो कहना नहीं भूलते कि उनकी जड़ें महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से बड़ी गहराई से जुड़ी हुई थीं.

जब भी दो अक्टूबर यानी इन दोनों महापुरुषों की जयंती आती है, विद्यापीठ में अपने संस्थापक के राष्ट्रपिता और छात्र के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने की दोहरी खुशी मनायी जाती है. गौरतलब है कि स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान इस विद्यापीठ ने उन छात्रों की शिक्षा पूरी कराने में बड़ी भूमिका निभाई थी, जिनके कई-कई शिक्षा सत्र स्वतंत्रता संघर्ष में अहर्निश सक्रियता की भेंट हो गए थे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)