ज़िला प्रशिक्षण के दौरान 1990 के सितंबर में एक दिन मैं उत्तर 24 परगना कलेक्टेरट में अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट के दफ़्तर में बैठा एक खाद्य दफ़्तर की मीटिंग के आरंभ होने की प्रतीक्षा रहा था. मीटिंग आरंभ होने से कुछ पहले सामान्य क़द के एक दुबले-पतले चश्माधारी व्यक्ति ने कमरे में प्रवेश किया और मुस्कराते हुए अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट के सामने आ कर बैठते हुए कहा, ‘स्यार, आपनार दु मिनिट नेबो. आपनार जोन्यो आमादेर लिटिल मैगजिनेर पूजार नोतुन अंको एनेचि’ (सर, आपका दो मिनट समय लूंगा. हमारी लिटिल मैगज़ीन का दुर्गा पूजा अंक आपके लिए लाया हूं). यह कहते हुए उन्होंने ने कंधे से लटकती झोली से एक मोटी-सी, छोटी, किताबाकार पत्रिका निकालकर हमारे वरिष्ठ अफ़सर को भेंट की. बंगाल की लिटिल मैगज़ीन से मेरा यह पहला परिचय था.
परंतु पश्चिम बंगाल में ही नहीं महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल तथा गुजरात में भी दीर्घ काल से लिटिल मैगज़ीन प्रचलित हैं. बंगाल में इनकी शुरुआत पिछली शताब्दी के तीसरे दशक से ‘कल्लोल’ के साथ हुई. आरंभ से ही ये पत्रिकाएं लीक से हटकर पनपते प्रयोगात्मक तथा वैकल्पिक सोच की वाहन बनीं और बाद में वाम विचारधारा से भी प्रभावित हुईं. कई सुप्रसिद्ध और प्रभावशाली साहित्यकार भी लिटिल मैगजीनों के साथ जुड़े रहे हैं. रविंद्रनाथ ठाकुर की रचनाएं ‘शोबुज पत्र’ में प्रकाशित हुई थीं तथा क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम और बुद्धदेव बसु की ‘कल्लोल’ में. बाद में शक्ति चट्टोपाध्याय तथा सुनील गंगोपाध्याय ‘कृत्तिबास’ से जुड़े रहे. इस लंबी परम्परा को देख कर आश्चर्य नहीं होता कि पश्चिम बंगाल में लिटिल मैगज़ीन अब भी प्रचलित हैं.
लिटिल मैगज़ीन का अर्थ अक्षरशः है लघु पत्रिका, परंतु बंगाल में मैंने आज तक किसी को भी इसे लिटिल मैगज़ीन के सिवा कुछ और बोलते नहीं सुना है. इसका आकार छोटा होता है, इसकी प्रतियों की संख्या कम होती है, जिस वजह से इसके पाठकों की संख्या भी कम होती है. बस इनकी साहित्यिक महत्त्वाका॑क्षा छोटी नहीं होती. लिटिल मैगज़ीन में लिखने वालों और इन्हें संपादित और प्रकाशित करने वालों की भरपूर कोशिश रहती है कि वे उच्चतम मान की रचनाएं छापें.
लिटिल मैगज़ीन को प्रकाशित करने वाले यह कदाचित् आशा नहीं करते कि उन्हें इस पत्रिका से कोई आर्थिक लाभ होगा, बल्कि वे यह मानकर चलते हैं कि उनके द्वारा खर्च की गई रक़म भी वापस नहीं मिलेगी. और होता भी ऐसा ही है.
पश्चिम बंगाल में आमतौर पर लोगों को पढ़ने लिखने में एक विशेष रुचि रही है. साहित्य और साहित्यकारों को इस समाज ने हमेशा से एक विशिष्ट स्थान दिया है. रविंद्रनाथ ठाकुर का नोबेल सम्मान से अलंकृत होना भी इसके कारणों में एक है. स्वाभाविक है कि जिस समाज में लोग पढ़ना पसंद करते हों, वहां लोग लिखना भी पसंद करते होंगे.
और दुर्गा पूजा के समय, जो कि बंगाली समाज के लिए अवकाश और उत्सव का समय होता है, पढ़ने और लिखने वालों की संख्या में काफ़ी वृद्धि हो जाती है. पूजा के कुछ दिनों पहले बंगाल का लगभग हर बड़ा अख़बार और पत्रिका एक शरद विशेषांक छापता है जिसमें केवल कहानियां, कविताएं, लेख इत्यादि होते हैं, खबरें नहीं होतीं. इस समय लिटिल मैगज़ीन के अंक भी प्रकाशित होते हैं. अधिकतर लिटिल मैगज़ीन के वर्ष में तीन अंक छापे जाते हैं, दुर्गा पूजा के समय, पश्चिम बंगाल के किताब मेलों के मौसम में- यानी जनवरी-फरवरी में, और 25 अप्रैल – यानी रविंद्र जयंती के उपलक्ष्य पर.
दक्षिण बंगाल की सुखद सर्दी में कलकत्ता तथा उसके निकटवर्ती ज़िलों में हर साल जनवरी-फरवरी में किताब मेले लगते हैं. हर साल कलकत्ता के विशाल किताब मेले में लिटिल मैगज़ीन की एक बड़ी प्रदर्शनी लगाई जाती है जहां उनकी बिक्री भी होती है. ज़िलों के किताब मेलों में उनकी संख्या कम होती है पर कई प्रकाशक उन्हें अपने स्टॉल में जगह देते हैं.
कुछ वर्ष पूर्व तक रविंद्र जयंती के अवसर पर कलकत्ता तथा कुछ और शहरों के रविंद्र भवन में दो-एक दिन का किताब मेला लगता था जिसमें लिटिल मैगज़ीन का प्रदर्शन और उनकी बिक्री होती थी. उन दिनों रविंद्र जयंती पर रविंद्र भवन में सुबह से शाम तक, दिन भर विभिन्न समारोह होते थे. अब वे समारोह 25 अप्रैल की संध्या तक सीमित हो गए हैं इसलिए अब न तो किताब मेला होता है न ही वहां लिटिल मैगज़ीन दिखती हैं.
अधिकतर लिटिल मैगज़ीन की शुरुआत होती है जब कुछ साहित्य प्रेमी दोस्त मिलकर तय करते हैं कि वो अपनी तथा औरों के लेखन को समाज के साथ साझा करना चाहते हैं. मूल समझौता इस बात पर होता है कि प्रकाशन के लिए संपूर्ण व्यय वह अपने पॉकेट से करेंगे, न किसी संस्थान से चंदा की उम्मीद रखेंगे न किसी इश्तहार की. भला कोई व्यापारिक प्रतिष्ठान किसी ऐसी पत्रिका को चंदा या या इश्तहार क्यों दे जिसकी मात्र दो-ढाई सौ प्रतियां छपती हों?
हमारे एक मित्र हैं जिनके मित्रों और परिचितों की नौ-दस लोगों की छोटी सी मंडली है जिसके सदस्य अलग अलग पेशों से जुड़े हुए हैं- डॉक्टर, अध्यापक, सरकारी अफ़सर, और पेंशनर भी. ये सभी मिलकर एक लिटिल मैगज़ीन प्रकाशित करते हैं. प्रकाशन का पूरा खर्च यही कुछ लोग मिलकर उठाते हैं, इसलिए साल में दो ही अंक प्रकाशित होते हैं, एक शरदोत्सव के समय अक्तूबर-नवंबर में और दूसरा जनवरी में होने वाले कलकत्ता किताब मेला के समय.
हर बार की तरह इस बार भी शरदोत्सव के चार महीने पहले उन्होंने अपनी लिटिल मैगज़ीन के फेसबुक पेज पर पूजा अंक के लिए लेखों, कहानियों, लघुकथाओं, कविताओं के लिए रचनाकारों को आमंत्रित किया था. जब फेसबुक नहीं था उस वक्त मंडली के सदस्य अपने बंधुओं और परिचितों से रचनाओं के लिए मौखिक आग्रह करते थे. लेकिन फेसबुक तथा सोशल मीडिया के इस युग में अब कहीं अधिक लोग अपनी-अपनी कविता या कहानी ईमेल के माध्यम से भेजते हैं. इस बार भी फेसबुक में आमंत्रण पोस्ट करने के बाद लोगों ने उनके पास क़रीब तीन सौ से अधिक रचनाएं भेजीं जिसके बाद मंडली के सदस्यों ने मिलकर 87 रचनाओं का चयन किया, जिनमें 51 कविताएं और 14 अति लघु कहानियां भी सम्मिलित हैं.
मेरी बातों से अगर आपको लग रहा हो कि लिटिल मैगज़ीन सिर्फ़ कलकत्ते में ही पाई जाती हैं तो गलती मेरी है. मुझे बताना चाहिए था कि पश्चिम बंगाल के क़रीब हर ज़िले से कुछ लिटिल मैगज़ीन प्रकाशित होती हैं. अरसों पहले वर्तमान झारखंड और बिहार के कई शहरों- जैसे देवघर, घाटशिला, भागलपर और मुंगेर जहां बंगाली परिवार बड़ी संख्या में कई पुश्तों से रह रहे थे, से भी लिटिल मैगजिन प्रकाशित होती थीं.
मेदिनीपुर शहर और नदिया ज़िले के कृष्ण नगर में तो लिटिल मैगज़ीन पुस्तकालय भी हैं. इस तरह का सबसे बड़ा पुस्तकालय कलकत्ता में कॉलेज स्ट्रीट के निकट संदीप दत्ता नामक व्यक्ति ने 1978 में अपने खर्चे से स्थापित किया था. अब वह ‘कोलिकाता लिटिल मैगज़ीन लाइब्रेरी एवं गवेषणा केंद्र’ के नाम से जाना जाता है. श्री दत्ता का पिछले साल निधन होने के बाद उनके कुछ बंधुओं ने एक संचालन कमेटी का गठन कर लाइब्रेरी को चलाने का दायित्व संभाल लिया है. लेकिन उन्होंने पहले की तरह अब भी इस लिटिल मैगज़ीन लाइब्रेरी के परिचालन के लिए किसी भी व्यापारिक या सरकारी स्रोत से वित्त स्वीकार नहीं किया है.
(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)
(इस श्रृंखला के सभी लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)