आज की तारीख़ में गांधी

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय गांधी सच्चे प्रतिरोध, प्रगतिशीलता, अध्यात्म और सच-प्रेम-सद्भाव-न्याय पर आधारित राजनीति के सबसे उजले प्रतीक हैं. उनकी मूल्यदृष्टि को पुनर्नवा कर भारत की बहुलता, उसकी आत्मा और अंतःकरण बचाए जा सकते हैं.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

आज का परिदृश्य ऐसा है कि अत्यंत प्रभावशाली राजनीतिक और वैचारिक शक्तियां और संस्थाएं एक सुनियोजित और व्यापक अभियान गांधी को भुलाने, उनके अवदान को अवमूल्यित करने, उनका लगभग दैनिक अपमान करने के लिए चला रही हैं. उन्हें अक्सर मुखर और जब-तब मूक समर्थन मीडिया, बाज़ार और कुछ धर्मगुरुओं और अकादमिकों आदि से मिल रहा है. चूंकि हिंसा-हत्या, झूठ और नफ़रत, अत्याचार और अन्याय, झगड़े-झांसे सत्ता में आने के बड़े कारगर उपाय हो गए हैं और उनका समाज के बड़े हिस्से पर प्रभाव पड़ता है, उन्हें गांधी, उनके मूल्य, उनकी दृष्टि निश्चय ही रोड़े की तरह नज़र आते हैं और वे उसे अपनी विजययात्रा के मार्ग से हटाने पर उतारू हैं.

दूसरी तरफ़, गांधी को भुलाने-हटाने-अप्रासंगिक क़रार देने की मुहिम ही उन्हें एक नई तरह की प्रासंगिकता देती दीख पड़ रही है. पहले गांधी को ख़ारिज या नजरअंदाज करने वाले अनेक बुद्धिजीवी, प्रगतिशील-जनवादी लेखक आदि लगातार सख़्त, निर्मम, अनैतिक और लोकतंत्र-विरोधी प्रवृत्ति और राज्य का प्रतिरोध करने के लिए गांधी का सहारा ले रहे हैं. गांधी और सावरकर का ऐतिहासिक द्वंद्व, एक बार फिर से, इस समय भारतीय समाज में गहरा और प्रखर हो उठा है. अनियंत्रित विकास, हिंदुत्व का फैलाव, हिंसा-हत्या-बलात्कार-लिचिंग-बुलडोजिंग के व्याकरण से विन्यस्त होती विजयी राजनीति, झूठ और घृणा की व्याप्ति, लगातार बढ़ती विषमता, दौलत का बढ़ता अश्लील दिखाऊपन, मीडिया की पूंछहिलाऊ स्वामिभक्ति, परंपरा की अबाध चलती दुर्व्‍याख्याएं, धर्मों का राजनीति का पिछलगुआ बनते जाना आदि ऐसा साक्ष्य है कि लगता है कि सावरकर की जीत हो रही है. कम से कम भारत का एक हिस्सा सावरकर का भारत बन गया है जिसके केंद्र में हिंदुत्व और बहुसंख्यकतावाद है.

लेकिन साथ ही साथ हम भी देख सकते हैं कि इस सबके प्रतिकार, प्रतिरोध और प्रत्याख्यान के स्वर, प्रवृत्तियां भी उभर मुखर हो रहे हैं. एक नई सतर्क-सजग-सत्याग्रही-अवज्ञाकारी नागरिकता के दृश्य पर उभरने के चिह्न भी प्रगट हो रहे हैं. दुर्भाग्य यह है कि ऐसी नागरिकता, मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से के बिना, विकसित हो रही है, होगी.

सौभाग्य से हमारे समय का महत्वपूर्ण साहित्य और कलाएं इस नागरिकता में शामिल हैं. इस समय सच्चे इतिहास-बोध का अर्थ है कि इस नई नागरिकता की पहचान कर पाना और देख पाना कि हमारे स्वतंत्रता-संग्राम के बुनियादी मूल्य वहीं आकार ले रहे हैं. स्वयं संविधान को केंद्र में रखने का जो राजनीतिक आग्रह उभरा है वह इन्हीं मूल्यों पर इसरार करने जैसा है. इस समय गांधी सच्चे प्रतिरोध, सच्ची प्रगतिशीलता, सच्चे अध्यात्म और सच-प्रेम-सद्भाव-न्याय पर आधारित राजनीति के सबसे उजले प्रतीक हैं. वही और उनकी मूल्यदृष्टि को पुनर्नवा कर भारत की बहुलता, उसकी प्राणशक्ति, उसकी आत्मा और अंतःकरण बचाए और यथासंभव पुनर्रचित किए जा सकते हैं.

रेखा जैन- 100

देश में बालरंगमंच के क्षेत्र में अग्रणी मानी जाने वाली रेखा जैन की जन्मशती मनायी जा रही है. पिछली सदी में पचास के दशक में उत्तर भारत में, हिन्दी अंचल में न सिर्फ़ रंगमंच की क्षीण उपस्थिति थी बल्कि बाल रंगमंच तो लगभग पूरी तरह से अनुपस्थित था. ऐसे मुक़ाम पर पहले इप्टा में और बाद में एशियन थिएटर इंस्टिट्यूट में प्रशिक्षित रेखा जैन ने बच्चों के साथ और उनके लिए अपना रंगकार्य शुरू किया. उन्होंने कई दशक दिल्ली के स्कूलों में बाल रंगमंच, एक तरह से, पढ़ाया और विकसित किया. फिर जब उन्हें लगा कि उनका रंग अभियान साधन-सम्पन्न बच्चों तक महदूद होता जा रहा है तो उन्होंने मुख्यतः कमज़ोर वर्गों और सरकारी स्कूलों के बच्चों के साथ रंगमंच करने के लिए ‘उमंग’ संस्था बनाई जो उनकी मृत्यु के एक दशक से अधिक बाद भी सक्रिय है.

उन्होंने बच्चों के लिए नाटक लिखे, संगीत और नृत्यनियोजन किया, लयात्मक गतियां और उत्सवधर्मिता, दृश्यबंध, प्रकाश-व्यवस्था आदि पर बच्चों के साथ अथक काम किया. अनेक शहरों में रंगकार्यशालाएं कीं. बच्चों की रंग-प्रतिभा और संभावना को खोजने, संवारने और सक्रिय करने में उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई. बच्चों में परस्परता, जाति-वर्ण-वर्ग-लिंग से परे सामुदायिकता, सामाजिक ज़िम्मेदारी, नैतिक बोध आदि को उद्दीप्त करने में उनका रंगकार्य हमेशा सजग-सक्रिय रहा.

रेखाजी एक पारंपरिक परिवार से उठकर भारतीय आधुनिकता में उसके एक निर्णायक दौर में शामिल हुई. उन्हें कलकत्ते और बंबई में शंभू मित्र, तृप्ति मित्र, शान्ति बर्धन, रविशंकर, राहुल सांकृत्यायन, अली सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी जैसे अनेक मूर्धन्यों के साथ रहने और उनसे सीखने का सुअवसर मिला. बंगाल अकाल के दौरान उसमें रंगकार्य से राहत जुटाने, स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने प्रभातफेरियों आदि में जाने, इप्टाके अंतर्गत सामाजिक संघर्ष करने और सामाजिक ज़िम्मेदारी का बोध तीव्र-तीक्ष्ण करने का भी अवसर मिला.

उनका अनेक हिन्दी मूर्धन्यों जैसे मुक्तिबोध, अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह आदि से घरोबा-सा रहा. उन्होंने अपने पति नेमिचन्द्र जैन को उनके सर्जनात्मक और बौद्धिक संघर्ष में, उनके रंगप्रयत्न में हमेशा साथ दिया. उन्होंने लोकसंगीत के लिए समूह बनाए; लोक और शास्त्रीय संगीत के लॉन्ग प्लेइंग रिकॉर्ड्स की समीक्षा की हिन्दी में शुरुआत की जबकि उस समय अंग्रेज़ी में ऐसी समीक्षा अक्सर नहीं होती थी.

रेखा जी से मिलने वालों को उनकी बहुत आत्मीय वत्सलता, मोहक घरेलूपन, दूसरों की व्यथा-कथा ध्यान से सुनने का अपार धीरज, तत्पर आतिथ्य आदि बहुत प्रभावित करते थे. रेखा जैन के संस्मरणों की पुस्तक ‘यादघर’ में उन्होंने बहुत से व्यक्तियों को कृतज्ञता और सहानुभूमि से याद किया है जिनमें पीसी जोशी, अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, चित्तप्रसाद,  मित्र जैसी विभूतियां शामिल हैं. अपनी सहजता और आत्मीयता में असाधारण ये संस्मरण उस समय का अविस्मरणीय चित्रांकन भी हैं.

चार कविमित्र और हुसैन

आज से लगभग पैंसठ वर्ष पहले की बात है. उन दिनों ‘कल्पना’ हैदराबाद से निकलने वाली हिन्दी की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका थी. उसमें कलाओं पर जब-तब कुछ सामग्री प्रकाशित होती रहती थी. उसके आवरण पर कभी-कभार मक़बूल फ़िदा हुसैन, विनोद बिहारी मुखर्जी, रामकुमार आदि के रेखांकन भी आते थे. बीच-बीच में अंदर किसी मध्यकालीन कलाकृति (जगदीश मित्तल के संग्रह से) या आधुनिक चित्र की रंगीन प्रतिकृति भी प्रकाशित होती थी.

सागर में हम कविमित्र ‘कल्पना’ को बहुत चाव से पढ़ते थे. 1959 के किसी अंक में हुसैन के एक चित्र की रंगीन प्रतिकृति प्रकाशित हुई. हम लोग शाम को हर रोज़ मिलते थे और एक शाम हमने, जितनी हमारी समझ थी उतनी से, उस चित्र पर देर तक चर्चा की. दस-पंद्रह दिनों बाद एक शाम हम सभी को अचरज से पता चला कि रमेशदत्त दुबे को छोड़कर बाक़ी चार ने उस चित्र को लेकर कविताएं लिखी हैं.

हुआ तो यह स्वतःस्फूर्त ढंग से था, तो किसी ने पहले किसी और को बताया नहीं था. तय हुआ कि इन कविताओं को ‘कल्पना’ को भेज दिया जाये. यानी 1960 के ‘कल्पना’ के अंक में चारों कविताएं ‘मक़बूल फ़िदा हुसैन: चार कविमित्रों की रचनाएं’ सामान्य शीर्षक से अपने अलग-अलग शीर्षकों के साथ प्रकाशित हुईं. तीन कविमित्र अब दिवंगत हैं तो उनकी कविताएं यहां अविकल दी जा रही हैं.

निमिष पाणिनि हमारे मित्र उमाशंकर पाण्डे का कवि नाम था. वे ऑस्ट्रेलिया में बस गए और वहां दर्शन के अध्यापक रहे.

हुसैन का चित्र: पांचवां शोकगीत

निमिष पाणिनि

एक पीली पत्ती के प्रकाश में
शिराएं किसी सूर्य का अस्थिदाह करती हैं!
देखो! उसके साथ जलती हैं, वक्ष पर खिंची
बच्चे की हरी-पीली गलियां!
अब नहीं खुलेगा वह द्वार
जिसके पीछे एक दूधिया बच्चे की उंगलियां
बीच के दोनों की तरह जलती हैं!
तोड़ो यह पंक्तिबद्ध धवलता
हिमपताकाओं की,
ऋतुओं के न्यारे-न्यारे शोकगीत!
त्रिपार्श्व के रंगव्यूह में
कोई मां अपने गर्भ समेत जल रही है!

प्रेमिका की आंखें और हुसैन का चित्र दोनों एक साथ देखने पर

आग्नेय

प्रेम की काली आंखों में
पीली मौत का एक श्वेत गुलाब
नहीं
काला गुलाब भी
नहीं
एक लाल फूल
टूटता है
वक्ष के सूर्य से
जो तुम्हारी चित्रित इच्छा का
नाम है.

दुखी वह और मक़बूल का चित्र

जितेन्द्र कुमार

शांत निर्मल चांदनी
पेड़ की झालर पर
गिरती है
और मुर्दा जगता है
हल्के-हल्के
जैसे हृदय में ही हो- स्पंदित!
और मुर्दा कहता है
मैं यहीं तो हूं तुम्हारे पास
सदा
तब वह रोती है
कि उसे नहीं चाहिए सुख-
मिलन का
कठोर निर्मम चांदनी- खिड़की से झांकती
मक़बूल के चित्र को धुनती है
रुई-सा!

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)