मैरिटल रेप को अपराध बनाने के विरोध में केंद्र सरकार, कहा- क़ानूनी से अधिक सामाजिक मुद्दा

केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि विवाह में पति-पत्नी के बीच उचित यौन संबंध बनाने की निरंतर अपेक्षा होती है. इसलिए, विवाह को अन्य स्थितियों से अलग माना जाना चाहिए. इसे अपराध घोषित करना बहुत कठोर क़दम है.

(फोटो साभार: Wikimedia Commons)

नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने गुरुवार (3 अक्टूबर) को सुप्रीम कोर्ट में मैरिटल रेप को अपराध घोषित करने का विरोध करते हुए कहा कि वैवाहिक बलात्कार से संबंधित मामले में ‘सख्त कानूनी दृष्टिकोण’ के बजाय ‘एक व्यापक दृष्टिकोण’ की आवश्यकता है, क्योंकि देश में इसके बहुत दूरगामी सामाजिक प्रभाव हो सकते हैं.

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि देश में वैवाहिक बलात्कार को ‘अपराध’ करार नहीं दिया जा सकता, क्योंकि अगर एक पुरुष के अपनी पत्नी से यौन संबंध बनाने को रेप माना गया, तो इससे दांपत्य संबंधों पर गहरा असर होगा. इससे विवाह संस्था में गंभीर उथल-पुथल हो सकती है.

इस संबंध में शीर्ष अदालत में केंद्र के शुरुआती जवाबी हलफनामे में कहा गया है कि ऐसे विषयों (वैवाहिक बलात्कार) पर न्यायिक समीक्षा करते समय यह गौर किया जाना चाहिए कि कि ये मुद्दा कानूनी से ज़्यादा एक सामाजिक चिंता का विषय है, जिस पर संसद ने सभी पक्षों के साथ व्यापक परामर्श के बाद एक रुख अपनाया है.

केंद्र ने अदालत को सूचित किया कि संसद ने वर्ष 2013 में उक्त धारा में संशोधन करते हुए आईपीसी की धारा 375 के अपवाद 2 को बरकरार रखने का निर्णय लिया था. धारा 375 (आईपीसी) के अपवाद 2 के तहत किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध, यदि पत्नी नाबालिग न हो, बलात्कार नहीं है. यह आईपीसी के तहत प्रावधान था, जिसे अब निरस्त कर दिया गया है और इसकी जगह पर भारतीय न्याय संहिता आ गई है. न्याय संहिता में भी इस प्रावधान को रखा गया है.

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा, ‘विवाह में पति-पत्नी के बीच उचित यौन संबंध बनाने की निरंतर अपेक्षा होती है. इसलिए, विवाह को अन्य स्थितियों से अलग माना जाना चाहिए. इसे अपराध घोषित करना बहुत कठोर कदम है. ‘

केंद्र सरकार ने दावा किया कि शादी से एक महिला की सहमति की अवधारणा खत्म नहीं होती है, लेकिन इसके उल्लंघन के लिए पति को दंडित करना उचित उपाय नहीं है. संसद ने विवाह के भीतर सहमति की रक्षा के लिए आपराधिक कानूनी प्रावधानों सहित विभिन्न उपाय किए हैं.

अन्य कानूनी उपायों का हवाला देते हुए केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत से कहा कि वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को खत्म करना न्यायपालिका का काम नहीं है और वैवाहिक दुर्व्यवहार के पीड़ितों के लिए मौजूदा क़ानूनों के तहत पहले से ही पर्याप्त कानूनी उपाय मौजूद हैं. केंद्र का कहना है कि इस अपवाद को खत्म करने से विवाह संस्था अस्थिर हो सकती है.

केंद्र ने कहा कि इस मुद्दे का सामान्य रूप से समाज पर सीधा असर पड़ता है और यह भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची का हिस्सा है.

उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट वर्तमान में आईपीसी की धारा 375 के तहत अपवाद 2 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार कर रहा है, जो एक पति को अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करने के लिए मुकदमा चलाने से छूट देती है. इन जनहित याचिकाओं (पीआईएल) में तर्क दिया गया है कि यह अपवाद उन विवाहित महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण है, जिनका उनके पति द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता है.

इस मुद्दे में मई 2022 से दिल्ली उच्च न्यायालय का खंडित फैसला भी शामिल है, जो सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले के लिए लंबित है. उस फैसले में हाईकोर्ट की पीठ के एक जज ने आईपीसी की धारा 375 (बलात्कार) के तहत दिए गए अपवाद के प्रावधान को समाप्त करने का समर्थन किया, जबकि दूसरे न्यायाधीश ने कहा था कि यह अपवाद असंवैधानिक नहीं है.

ज्ञात हो कि इससे पहले भी केंद्र ने 2017 के अपने हलफनामे में याचिकाकर्ताओं की दलीलों का विरोध करते हुए कहा था कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है क्योंकि यह एक ऐसी घटना बन सकती है जो ‘विवाह की संस्था को अस्थिर कर सकती है और पतियों को परेशान करने का एक आसान साधन बन सकती है.’

हालांकि, केंद्र ने बाद में अदालत से कहा था कि वह याचिकाओं पर अपने पहले के रुख पर ‘फिर से विचार’ कर रहा है क्योंकि उसे कई साल पहले दायर हलफनामे में रिकॉर्ड में लाया गया था.

लंबित मामलों में एक व्यक्ति की अपील भी है, जिसकी पत्नी के साथ बलात्कार के मुकदमे को मार्च 2022 में एक महत्वपूर्ण निर्णय में कर्नाटक हाईकोर्ट ने धारा 375 के अपवाद के बावजूद यह कहते हुए स्वीकारा था कि विवाह की संस्था के नाम पर किसी महिला पर हमला करने के लिए कोई पुरुष विशेषाधिकार या लाइसेंस नहीं दिया जा सकता.

इस मुकदमे पर सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2022 में रोक लगा दी थी. भाजपा के नेतृत्व वाली तत्कालीन कर्नाटक सरकार ने नवंबर 2022 में एक हलफनामा दायर कर पति के अभियोजन का समर्थन करते हुए कहा था कि आईपीसी पत्नी से बलात्कार के लिए पति के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने की अनुमति देता है. हालांकि, इसके बाद बनी कर्नाटक की नई सरकार ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि वह इस रुख का समर्थन करती है या नहीं.

जनवरी 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों से प्रासंगिक सामग्रियों के एक सामान्य दस्तावेज़ को संकलित करके कार्यवाही को सुव्यवस्थित करने के लिए अधिवक्ता पूजा धर और जयकृति एस. जडेजा को नोडल वकील नियुक्त किया था.

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया था कि इस मुद्दे को केवल कानूनी सिद्धांतों के चश्मे से नहीं देखा जा सकता है, बल्कि व्यापक सामाजिक परिणामों पर भी विचार किया जाना चाहिए. इसके बावजूद केंद्र की ओर से अपनी अंतिम स्थिति स्पष्ट करने के लिए कोई हलफनामा दाखिल नहीं किया गया है.

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2022 में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट के मामले में कहा था कि पति का महिला पर यौन हमला ‘रेप’ का रूप ले सकता है और रेप की परिभाषा में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट के तहत ‘मैरिटल रेप’ शामिल होना चाहिए.