हरियाणा विधानसभा चुनाव: कहां चूक गई कांग्रेस

लोकसभा चुनाव 2024 में मिली बढ़त (दस में पांच सीट) से कांग्रेस आत्मविश्वास से भरी हुई थी. उसके पास किसान आंदोलन, पहलवानों का अपमान और अग्निपथ योजना जैसे मुद्दे भी थे, मत प्रतिशत भी बढ़ा, लेकिन वह इसे जीत में तब्दील नहीं कर पाई.

राहुल गांधी और भूपेंद्र सिंह हुड्डा. (फोटो साभार: फेसबुक)

नई दिल्ली: हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम आ चुके हैं. भाजपा लगातार तीसरी बार सरकार बनाकर राज्य के राजनीतिक इतिहास में नया अध्याय जोड़ने को तैयार है. 

सवाल ये है कि कांग्रेस जिसे जीती बाजी मान रही थी, वह पलट कैसे गई? क्या केवल दल का अंतर्कलह कारण है या फिर जाटों की गोलबंदी का प्रयास उल्टा पड़ गया? और एंटी इनकम्बेंसी का क्या हुआ?

पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था. राज्य की 90 विधानसभा सीटों में से 40 पर ही जीत मिली थी. परिणाम आने के बाद दस सीट जीतने वाली जननायक जनता पार्टी (जजपा) के साथ गठबंधन कर सरकारी बचानी पड़ी थी. 

इस चुनाव में जजपा का सफाया हो गया है. न एक सीट आई है, न ही एक प्रतिशत वोट. जबकि पिछले चुनाव में इस पार्टी को पंद्रह प्रतिशत से अधिक वोट आए थे.

माना जा रहा है कि जजपा के नाराज़ मतदाता कांग्रेस की तरफ़ चले गए हैं. कांग्रेस का मत प्रतिशत बढ़ा है. पिछले चुनाव में 28.08 प्रतिशत वोट पाने वाली कांग्रेस को इस बार 39 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले हैं.

जजपा का थोड़ा वोट भाजपा के पास भी गया है जिसका वोट प्रतिशत 36.49 से बढ़कर 40 प्रतिशत के ऊपर पहुंच गया है. बसपा और इनेलो को पिछले बार भी पांच प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले थे, इस बार भी मिले हैं. लापता सिर्फ जजपा का वोट है जो कहा जा रहा है कि भाजपा और कांग्रेस के पास चला गया है. 

जाट बनाम एंटी जाट से आगे की बात 

साल 2014 में भाजपा ने एक दशक तक मुख्यमंत्री रहे भूपेंद्र हुड्डा को हराकर सत्ता हासिल की थी. हुड्डा का जाट समुदाय में प्रभाव माना जाता है. यह समुदाय राज्य की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाता आया है, लेकिन भाजपा ने हरियाणा में जाट समुदाय के इतर जाकर अपनी राजनीति का विस्तार किया.

यही वजह थी कि सत्ता मिलने पर भाजपा ने किसी जाट की जगह पंजाबी खत्री मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया. साढ़े नौ साल बाद खट्टर को हटाया, तब भी एक ओबीसी नेता नायब सिंह सैनी को पद सौंपा. 

कांग्रेस इस चुनाव में भी जाटों के समर्थन पर अधिक निर्भर थी. लेकिन भाजपा ने जाटों से पूरी तरह किनारा नहीं किया, बल्कि जहां ज़रूरत थी वहां कांग्रेस से भी जाट नेताओं को लाकर टिकट दिया.

भाजपा ने इस चुनाव में 16 जाट उम्मीदवार मैदान में उतारे थे. चौधरी बंसीलाल के परिवार से ताल्लुक़ रखने वाली कांग्रेस की पुरानी नेता किरण चौधरी को पार्टी में लाकर भाजपा ने न सिर्फ राज्यसभा सांसद भेजा, बल्कि तोशाम सीट से उनकी बेटी श्रुति चौधरी को टिकट भी दिया, जो 76414 वोटों से जीत गई हैं. श्रुति ने कांग्रेस के जिस अनिरुद्ध चौधरी को हराया है, वह उनके चचेरे भाई हैं. अनिरुद्ध भूतपूर्व विधायक और 2004 से 2005 तक बीसीसीआई अध्यक्ष रहे रणवीर सिंह महेंद्र के बेटे और हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री चौधरी बंसीलाल के पोते हैं.

वहीं श्रुति चौधरी, रणवीर सिंह महेंद्र के भाई, चौधरी सुरेंद्र सिंह की बेटी हैं. तोशाम विधानसभा सीट बंसीलाल परिवार की परंपरागत सीटों में से है. यहां से खुद बंसीलाल पांच बार विधायक रहे हैं. उनके बेटे चौधरी सुरेंद्र सिंह तीन बार विधायक रहे हैं. सुरेंद्र सिंह की पत्नी किरण चौधरी 2005 से अब तक विधायक थीं. अब सीट श्रुति चौधरी के हाथ में चली गई है. अगर किरण चौधरी ने कांग्रेस का हाथ नहीं छोड़ा होता तो भाजपा की तरफ से इस सीट के लिए शशि रंजन परमार दावा ठोक रहे थे, 60 हजार से ज्यादा वोटों से हारे हैं.

ज़ाहिर है भाजपा को महेंद्रगढ़ और भिवानी वाले क्षेत्र में हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल के परिवार के पकड़ का अंदाजा था, तभी चुनाव से पहले ऐसे फैसले लिए गए.

हुड्डा परिवार की विफलता 

कांग्रेस ने भूपेंद्र हुड्डा को टिकट बंटवारे से लेकर चुनाव प्रचार तक में खुली छूट दे रखी थी. कुल 90 सीटों में से 70 से अधिक टिकट हुड्डा के समर्थकों को दिए गए. हुड्डा को मिली छूट को भाजपा ने जाट राजनीति बताया और अन्य समुदायों की गोलबंदी का प्रयास किया. साथ ही, हुड्डा को मिलती अधिक तवज्जो से कुमारी शैलजा नाराज़ हो गईं. वह चुनाव प्रचार से नदारद रहने लगीं.

इस दौरान भाजपा लगातार कहती रही कि कांग्रेस में दलित नेता का अपमान हो रहा है. बाद में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने डैमेज कंट्रोल की कोशिश की लेकिन तब तक यमुना में बहुत पानी बह चुका था. 

हुड्डा को खुली छूट का क्या फायदा हुआ, इसका अंदाजा परिणाम के आंकड़ों से लगाया जा सकता है. भाजपा, पानीपत और सोनीपत जिलों की अधिकांश सीटों पर बढ़त बनाए हुए है, जबकि इन सीटों पर भूपेंद्र हुड्डा का प्रभाव बताया जाता है. पानीपत में विधानसभा की चार सीटे हैं- पानीपत ग्रामीण, पानीपत सीटी, इसराना और समालखा. पानीपत ग्रामीण से भाजपा के महिपाल ढांडा ने कांग्रेस के सचिन कुंडू को हराया है. पानीपत सीटी से भाजपा के प्रमोद कुमार विज ने कांग्रेस के विरेंद्र कुमार शाह को हराया है. इसराना से भाजपा के कृष्ण लाल पंवार ने कांग्रेस के बलबीर सिंह वाल्मीकि को हराया है. वहीं समालखा से भाजपा के मनमोहन भड़ाना ने कांग्रेस के धर्म सिंह छौक्कर को हराया है.

सोनीपत जिले में छह विधानसभा क्षेत्र हैं- गन्नौर, राई, खरखौदा, सोनीपत, गोहाना और बरोदा. इन छह में से चार (राई, खरखौदा, सोनीपत और गोहाना) सीटों पर भाजपा ने कांग्रेस को हरा दिया है. राई पर कांग्रेस एक निर्दलीय उम्मीदवार से हार गई है. सोनीपत जिले की सिर्फ बरोदा सीट पर कांग्रेस को जीत मिली है.

एंटी इनकम्बेंसी?

राजनीतिक विश्लेषक ऐसा मान रहे हैं कि भाजपा का बनाया जाट बनाम नॉन जाट का नैरेटिव एंटी इनकम्बेंसी को भेदने में कामयाब हुआ है. पार्टी ने उन नेताओं के टिकट काटे, जिनका फीडबैक अच्छा नहीं था. वहीं जमीनी नेताओं को अपने पाले में रखने के लिए उनके परिवार वालों को टिकट बांटा.

श्रुति चौधरी का उदाहरण तो है ही,  इसके अलावा भाजपा ने पुराने कांग्रेसी नेता विनोद शर्मा की पत्नी और राज्यसभा सांसद (निर्दलीय) कार्तिकेय शर्मा की मां शक्ति रानी शर्मा को कालका से उतारा, जिनकी 10883 मतों से जीत हुई है.  

इस बार राव इंद्रजीत की बेटी आरती राव को भी पार्टी ने टिकट था, वह अटेली से 3085 मतों से जीत चुकी है.

पूर्व मंत्री सतपाल सांगवान की पहुंच को ध्यान में रखकर भाजपा ने दाररी से उनके बेटे सुनील सांगवान को मैदान में उतारा था, वह भी 1957 वोट से जीत गए हैं.

आदमपुर की सीट पर हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के परिवार की पकड़ रही है. ख़ुद भजनलाल, उनकी पत्नी, बहू, बेटे इस सीट से जीत चुके हैं. साल 2022 में भजनलाल के बेटे कुलदीप बिश्नोई कांग्रेस छोड़ भाजपा में चले गए थे. इस बार भाजपा ने कुलदीप के बेटे भव्य बिश्नोई को मैदान में उतारा था, जो देर शाम तक आगे चल रहे थे, लेकिन अंत में 1268 वोट से हार गए.

जाहिर है, भाजपा जातिगत समीकरण साधने में भी कामयाब रही है.