कश्मीर हारने के बावजूद जम्मू और हरियाणा ने दी भाजपा को राजनीतिक बढ़त

पिछली बार भाजपा ने जिन पार्टियों के साथ मिलकर सरकार बनाई थी- 2014 में कश्मीर की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और 2019 में हरियाणा की जननायक जनता पार्टी- इस चुनाव में उन दोनों का सफाया हो गया है.

पीएम नरेंद्र मोदी, जम्मू कश्मीर में एक चुनावी रैली के दौरान (बाएं) और हरियाणा में जीत पर नायब सिंह सैनी को बधाई देते हुए (दाएं). (फोटो साभार: फेसबुक/BJP4JnK/BJP4Haryana)

नई दिल्ली: दो राज्यों के हालिया चुनाव परिणामों को उन पार्टियों के आईने से देखा जा सकता है जिनके साथ पिछली बार भाजपा ने मिलकर सरकार बनाई थी- 2014 में कश्मीर की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और 2019 में हरियाणा की जननायक जनता पार्टी. इन दोनों ही राज्यों में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. परिणाम आने के बाद इन पार्टियों ने भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बना ली. इस चुनाव में दोनों का ही सफाया हो गया है.

जजपा को पिछली बार करीब पंद्रह प्रतिशत वोट और दस सीट मिली थीं; इस बार इसे एक भी सीट नहीं मिलीं और एक प्रतिशत से कम मत हासिल हुए. महबूबा मुफ़्ती की पीडीपी जो पिछली बार 22.67 वोट और 28 सीट के साथ राज्य में सबसे बड़ी पार्टी थी, उसे इस बार सिर्फ़ 3 सीट मिलीं और 9 प्रतिशत से भी कम वोट.

दोनों ही राज्यों में मतदाता ने उस पार्टी को बुरी तरह नकार दिया जिसने भाजपा के साथ गठबंधन किया था.

यह सही है कि 29 सीट हासिल कर भाजपा ने जम्मू और कश्मीर में अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है, लेकिन गौर करें कि यह सभी सीटें जम्मू क्षेत्र की ही हैं. जम्मू की 43 सीटों में से छह परिसीमन के चलते इसी वर्ष अस्तित्व में आयी थीं और जिस बात के कयास लगाए जा रहे थे, वही हुआ. परिसीमन की कवायद का सबसे बड़ा राजनीतिक लाभ भाजपा को हुआ.

भाजपा की जीत का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जम्मू की सबसे बड़ी पार्टी का राज्य सरकार में में कोई प्रतिनिधित्व नहीं होगा. इससे दोनों क्षेत्रों के बीच की दरार और बढ़ सकती है, साथ ही जम्मू के लोगों के मन में कश्मीर के प्रति दबी नाराज़गी भी.

कश्मीर दशकों से भाजपा का प्रमुख एजेंडा रहा है. पिछले पांच वर्षों में भाजपा ने कश्मीर को अपनी प्रयोगशाला बना लिया है. इन वर्षों में पार्टी ने घाटी में छोटे-छोटे समूहों के गठन में मदद की है, उन्हें बढ़िया राशि भी दी. जिस वक़्त नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के नेता हिरासत में थे, उस समय भाजपा ने नए लोगों को पार्टी में जगह दी, पदाधिकारी बनाया, और साथ ही उन्हें नए कार्यालय, बड़ी गाड़ियां और सुरक्षाकर्मी भी दिलवा दिए. इस तरह भाजपा घाटी में शांति क़ायम करने के दावे के साथ चुनावी अभियान में उतरी थी.

लेकिन इसके बावजूद पार्टी लोकसभा चुनाव में घाटी में चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा सकी और विधानसभा चुनाव में भी उसने केवल 19 सीटों पर ही अपने प्रत्याशी उतारे. वह इनमें से एक भी सीट नहीं जीत पाई.

भाजपा ने एक अन्य रणनीति के तहत गुज्जर और बकरवाल समुदाय के बीच अपना प्रभाव बढ़ाया था. ये दोनों जनजातियां इस्लाम में तो आस्था रखते हैं, लेकिन कश्मीरी मुसलमान से अलग अपनी पहचान चाहते हैं. यह साफ़ था कि भाजपा चुनावी लड़ाई को मुस्लिम बनाम मुस्लिम करना चाहती थी, इसी उद्देश्य से परिसीमन में नौ सीटें अनुसूचित जनजति (एसटी) के लिए आरक्षित रखी गईं. लेकिन चुनावी नतीजों में भाजपा खाली हाथ रही, और इनमें से एक भी सीट नहीं जीत पायी. जहां मेंढर, बुढल, गुलाबगढ़, गुरेज़, कंगन, कोकरनाग में नेशनल कॉन्फ्रेंस ने जीत दर्ज की है, वहीं राजौरी में कांग्रेस, और सूरनकोट तथा थानामंडी में निर्दलीय प्रत्याशी जीते.

कश्मीर की चुनावी सरगर्मी लगभग चार दशक बाद चुनाव की पैरवी कर रहे जमात-ए- इस्लामी की सक्रियता से भी बढ़ गयी थी. बड़ी संख्या में निर्दलीय उम्मीदवार उतर आये थे और जेल में रहते हुए लोकसभा चुनाव जीतने वाले इंजीनियर राशिद और उनकी अवामी इत्तेहाद पार्टी ने जमात के साथ गठबंधन कर लिया था. श्रीनगर और पुलवामा की सड़कों पर भाजपा के ‘प्रॉक्सी’ दलों को लेकर अटकलें उड़ रही थीं, पर मतदाताओं का फैसला भाजपा के खिलाफ आया.

कश्मीर के चुनाव परिणाम ने साफ़ कर दिया कि घाटी की जनता ने नरेंद्र मोदी के नई राजनीति के वादे को नकार दिया.

दूसरी तरफ, कांग्रेस को हरियाणा के साथ जम्मू-कश्मीर के लिए भी सोचना होगा. हरियाणा में इसकी सीधी हार हुई, और कश्मीर में वह भले ही सरकार बनाने वाले गठबंधन का हिस्सा है, लेकिन उसने जिन 32 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से महज छह ही जीत सकी. यह 2014 में इसके द्वारा जीती हुई 12 सीट से पचास प्रतिशत की गिरावट है.

यह सही है कि हरियाणा में कांग्रेस का वोट शेयर पिछली बार के 28.08 प्रतिशत के मुकाबले बढ़कर 39 प्रतिशत से अधिक हुआ (जो इस साल भाजपा के मत प्रतिशत के लगभग बराबर है), लेकिन पार्टी अपने वोटों को सीटों में नहीं बदल सकी.

अगर देशभर में हुए पिछले कई चुनावों को देखा जाए तो स्पष्ट दिखता है कि कांग्रेस अपने नेताओं के आपसी मतभेदों की वजह से मात खा रही है. हरियाणा में भूपेंद्र हुड्डा और कुमारी शैलजा के बीच का तनाव जगजाहिर था. कांग्रेस ने भले ही कोई मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया था, लेकिन प्रचार के दौरान राज्य में ‘अबकी बार हुड्डा सरकार’ के पोस्टर नज़र आ रहे थे. कांग्रेस ने जाट वोटों पर अधिक ध्यान दिया. टिकट वितरण हुड्डा की मर्ज़ी के अनुसार हुआ और चुनावी प्रबंधन भी उन्होंने किया. लेकिन वे अपने गढ़ में भी सीट नहीं बचा सके- हुड्डा के प्रत्याशी पानीपत की सभी चार और सोनीपत की छह में से पांच सीटों पर हार गये.

अगर कांग्रेस कहीं भाजपा के साथ सीधे मुकाबले में थी, और जीत की सर्वाधिक सम्भावना थी, तो वह हरियाणा था. यहां वोट बंटने की संभावना कम थी, सत्ता-विरोधी लहर नज़र आ रही थी, पहलवान और किसान भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार के खिलाफ लंबे प्रदर्शन कर चुके थे, अग्निपथ योजना को लेकर नाराज़गी थी, पर इन सब को धता बताते हुए भाजपा तीसरी बार सत्ता में आ गई.

हरियाणा में मतदाताओं के रवैये में एक महत्वपूर्ण बदलाव भी देखा गया. कुछ ही महीने पहले हुए लोकसभा चुनावों में राज्य की दस सीटों में से पांच पर कांग्रेस ने जीत हासिल की थी. पिछले एक दशक में कई राज्यों में ऐसा देखा गया है कि विधानसभा चुनाव में भले ही जनता गैर-भाजपा सरकार चुने, लोकसभा में मतदाता भाजपा को चुनते थे. हरियाणा में यह चलन उलट गया.

अगर कश्मीर में मिली हार सूबे में भाजपा की स्थिति को कमज़ोर करेगी, तो किसी हिंदीभाषी राज्य में लगातार तीसरी बार बड़े बहुमत के साथ सत्ता में वापसी आगामी महाराष्ट्र और झारखंड चुनावों में उसकी संभावनाओं को बढ़ाएगी.