गुजरात की जनता भाजपा सरकार से नाराज़ थी, लेकिन उनकी परेशानी को सुनने और आवाज़ उठाने वाला विपक्ष सड़कों पर नहीं था.
गुजरात विधानसभा चुनाव के परिणाम अब साफ हो गए हैं. चार बार से सत्ता पर काबिज भाजपा पांचवीं बार भी जीत हासिल करने में सफल रही है. इस बार कांग्रेस के सीटों में थोड़ा इजाफा हुआ है लेकिन वह जीत के जादुई आंकड़े 92 से काफी दूर है.
अगर गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस की तैयारी देखें, तो आपको चुनाव परिणामों से हैरानी नहीं होगी. इतने सालों तक सत्ता से बाहर रहने के कारण पूरे राज्य में कांग्रेस का संगठन बहुत ज्यादा ही कमजोर हो गया था लेकिन कांग्रेस ने इसे मजबूत करने के लिए कोई खास काम नहीं किया. इसके लिए लंबी तैयारी की जरूरत पड़ती है लेकिन कांग्रेस का चुनावी अभियान मात्र छह महीने पहले शुरू हुआ.
इस दौरान भी कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने अपने स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं से ज्यादा बाहर से आए नेताओं खासकर हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी पर भरोसा किया.
इन नेताओं से भी चुनाव के ठीक पहले गठबंधन होने की वजह से कांग्रेस कार्यकर्ताओं और इन नेताओं के समर्थकों में बेहतर तालमेल का अभाव साफ दिख रहा था.
कांग्रेस पार्टी के ज्यादातर नेता और कार्यकर्ता चुनाव अभियान के दौरान पार्टी कार्यलयों में सिमटे हुए दिखे. इसका साफ असर चुनाव परिणाम में दिख रहा है. पूरी पार्टी सिर्फ हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर, जिग्नेश मेवानी और राहुल गांधी के भरोसे चुनाव मैदान में उतर गई थी.
गुजरात में लगातार 22 साल से सत्ता पर काबिज भाजपा के खिलाफ जीएसटी, नोटबंदी, पटेल आरक्षण, शिक्षा का निजीकरण, स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाली जैसे तमाम मुद्दे थे जिस पर जनता नाराज थी लेकिन उनकी परेशानी को सुनने और आवाज उठाने वाला विपक्ष सड़कों पर नहीं था.
कांग्रेस पूरे चुनाव में प्रचार के लिए भाजपा की नकल करते दिखी. भाजपा के प्रचार का बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया पर केंद्रित रहता है तो कांग्रेस ने भी इस बार यही तकनीक अपनाई. सोशल मीडिया पर वह भाजपा का मुंहतोड़ जवाब दे रही थी लेकिन जमीन पर उसके कार्यकर्ता मतदाताओं से दूर रहे. जबकि भाजपा के कार्यकर्ता सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक मतदाताओं के पास पहुंच रहे थे.
बहुत सारे मतदाता जो भाजपा सरकार से नाराज थे वो कांग्रेस के सिर्फ सोशल मीडिया पर प्रचार से नाराज दिखे. उनका कहना था कि भाजपा इतने सालों से सिर्फ सोशल मीडिया पर सपने दिखा रही है अब कांग्रेस ने भी वही शुरू कर दिया है.
कांग्रेस की बुनियाद धर्मनिरपेक्ष राजनीति पर टिकी हुई है लेकिन गुजरात में वह बिना पूरी तैयारी के बहुसंख्यक तुष्टीकरण की तरफ झुकती नजर आई. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी लगातार मंदिरों के दर्शन में लगे रहे, जिससे इस चुनाव में दस प्रतिशत आबादी वाले मुसलमान पूरी तरह से अप्रासंगिक हो गए.
अब तक ये प्रदेश में कांग्रेस का आधार वोट बैंक हुआ करते थे लेकिन पड़ोसी राज्य राजस्थान के राजसमंद में एक मुसलमान की हत्या होने के बाद भी पार्टी ने मुसलमानों की सुरक्षा पर कोई चर्चा नहीं की. इस चुनाव में मुसलमान पूरी तरह से नदारद दिखा.
भाजपा की अपनी राजनीति में मुसलमानों की चर्चा नहीं है, विपक्षी पार्टी के रूप में कांग्रेस ने भी इस पर चर्चा नहीं की. यही कारण है कि सामान्यत: मुसलमान बड़ी संख्या में वोट के लिए निकलते थे लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ.
राहुल के मंदिर जाने से समस्या नहीं थी लेकिन इसका फायदा भाजपा ने ज्यादा उठाने की कोशिश की और शायद सफल भी रही. भाजपा पहले से ही चाह रही थी कि चुनाव में धार्मिक प्रतीकों की एंट्री हो और राहुल गांधी ने उन्हें यह मौका दे दिया.
सांप्रदायिकता के मसले को अभी मौजूद राजनीतिक दलों में भाजपा सबसे बेहतर तरीके से अपने वोट बैंक में बदल लेने में सक्षम दिख रही है. राहुल के मंदिर जाने को लेकर भाजपा उन पर हमलावर रही.
भाजपा ने कहा कि राहुल गांधी मंदिर में ऐसे बैठते हैं जैसे नमाज़ पढ़ रहे हों. इसके बाद कथित तौर पर राहुल गांधी के मंदिर में गलत रजिस्टर पर साइन करने के बाद उनके धर्म पर बवाल शुरू हुआ. कांग्रेस ने अपनी सफाई में कहा कि राहुल न सिर्फ हिंदू हैं बल्कि जनेऊधारी हिंदू हैं. इस तरह के बयानों और सफाई से कांग्रेस को सिर्फ नुकसान हुआ.
इसके अलावा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर के बयान से पार्टी को चुनाव में काफी नुक्सान उठाना पड़ा. अय्यर ने नरेंद्र मोदी के लिए नीच शब्द का इस्तेमाल किया. हालांकि कांग्रेस ने इस बयान से पल्ला झाड़ने की पूरी कोशिश की मगर इसके असर से बच नहीं पाई.
मणिशंकर के बयान के बाद भाजपा जहां चुनाव प्रचार में आक्रामक हो गई तो वहीं कांग्रेस रक्षात्मक रुख में दिखती रही. कांग्रेस के रणनीतिकार पाकिस्तान और अहमद पटेल के मसले पर पार्टी का बचाव नहीं कर पाएं. जहां कांग्रेस को जनता के मुद्दों पर भाजपा को घेरना था, वहां वह नीच, अहमद पटेल और पाकिस्तान जैसे मसलों पर रक्षात्मक रुख अख़्तियार करते दिखी.
गुजरात की जनता की नाराजगी समाचार पत्रों, न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर साफ थी लेकिन उसे भुनाने में कांग्रेस की नाकामी गुजरात की सड़कों पर साफ दिख रही थी. इसलिए अगर गुजरात में कांग्रेस हार रही है तो आपको हैरानी बिल्कुल भी नहीं होनी चाहिए.