नक्सलवाद के सफाये की मुहिम में आदिवासियों के प्रश्न पीछे छूट रहे हैं

देश के सत्ताधारी आदिवासी के सवाल और माओवाद को एक आईने से देखते हैं. आदिवासी संघर्ष माओवाद की राजनीति के लिए स्पेस जरूर देते हैं, पर आदिवासी प्रश्न का अर्थ माओवाद नहीं है और आदिवासी होना माओवादी होना नहीं है.

/
(प्रतीकात्मक फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

आज माओवादी सांगठनिक और सैन्य ताकत के लिहाज से सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं. पिछले वर्षों में सुरक्षा बलों ने माओवादियों के अभेद किले माने जाने वाले अबूझमाड़ जैसे इलाकों में खासी पकड़ बना ली है. हाल ही बस्तर में सुरक्षा बलों ने एक मुठभेड़ में 35 माओवादियों को मार गिराया.

इस घटना के बाद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने दिल्ली में माओवाद-प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों, केंद्र सरकार के मंत्रियों तथा सुरक्षा बलों के शीर्ष अधिकारियों के साथ समीक्षा बैठक की. इस बैठक के बाद उन्होंने देश से माओवादी हिंसा को खत्म करने की एक ‘डेडलाइन’ दी- मार्च 2026.

क्या नक्सलवाद का ‘डेडलाइन’ के साथ सफाया मुमकिन है? इस सवाल का जवाब भारत में लोकतंत्र की हैसियत को परखने पर मिलेगा. इस सवाल का जवाब इस जवाब के साथ मिलेगा कि क्या संसदीय लोकतंत्र के रास्ते पर चल रहे आदिवासी को न्याय मिल पाया है? क्या आदिवासी क्षेत्रों को संविधान प्रदत्त स्वायत्तता हासिल है? क्या जल, जंगल, जमीन के सवाल आदिवासी आकांक्षाओं के अनुरूप संबोधित हो रहे हैं? वन अधिकार कानून से लेकर पांचवी अनुसूची के प्रावधानों पर अमल की स्थिति क्या है?

क्या संसदीय लोकतंत्र, जिसमें प्रतिनिधित्व महत्वपूर्ण है, महज दो लोकसभा सीटों वाले बस्तर को उचित स्थान दे पा रहा है? या बस्तर से उसे सिर्फ संसाधन चाहिए? वे संसाधन जिन्हें सदियों से आदिवासी सहेज रहा था? भारत एक संप्रभु राष्ट्र है लेकिन भारत देश की संप्रभुता क्या भारतीय जनता की भी संप्रभुता है?

अगर आदिवासी क्षेत्रों में इस सवाल का जवाब तलाशेंगे तो बेहद निराशा होगी.

नक्सलवाद की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी में सशस्त्र किसान विद्रोह से हुई. इस घटना पर पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स डेली में प्रकाशित संपादकीय टिप्पणी का शीर्षक था- ‘भारत पर वसंत ऋतु की गड़गड़ाहट’. इस टिप्पणी में कहा गया- ‘भारत की धरती पर वसंत की गड़गड़ाहट गूंज उठी है. दार्जिलिंग क्षेत्र में क्रांतिकारी किसान विद्रोह में उठ खड़े हुए हैं.’

यह भी कहा गया कि इस सशस्त्र ग्रामीण संघर्ष से भारतीय प्रतिक्रियावादी घबरा गए हैं और वे चिंतित हैं कि दार्जिलिंग में किसानों का विद्रोह ‘राष्ट्रीय आपदा बन जाएगा’. प्रतिक्रियावादी विशेषण का उपयोग भारतीय शासक वर्ग के लिए किया गया था. इस संपादकीय ने आगे जोड़ा कि सशस्त्र बल द्वारा सत्ता पर कब्जा करना क्रांति का केंद्रीय कार्य और सर्वोच्च रूप है.

इसके कई वर्षों बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि नक्सलवाद भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है. और फिर जल्द ही यूपीए (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सरकार ने नक्सलवाद-प्रभावित क्षेत्रों में अधिकाधिक सुरक्षा बलों की तैनाती शुरू कर दी.

उस दौर में छत्तीसगढ़ में सरकार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की थी लेकिन शुरुआती राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों के बाद इस मोर्चे पर राजनीतिक और रणनीतिक रूप से राज्य और केंद्र एक मंच पर आ गए थे. केंद्र में गृहमंत्री चाहे राजनाथ सिंह रहे हों, पी. चिदंबरम रहे हों या अमित शाह, नक्सलवाद से निबटने की उनकी रणनीति सैन्य समाधान ही रही है. जबकि तमाम सरकारी और गैर-सरकारी रिपोर्ट्स से लेकर प्रबुद्ध वर्ग ने इसे कानून व्यवस्था की नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक समस्या कहा है.

माओवाद ख़त्म करने के नाम पर सरकारी हिंसा बेहिसाब हुई है. बस्तर में चले कुख्यात सलवा जुडूम की हिंसा की कहानियां आज भी रोंगटे खड़े कर देती हैं. हत्या, बलात्कार, घर और गांव के गांव जला देने की वहशी हरकतें ऐसी थीं कि अगर सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप न करता तो मानवता के खिलाफ हुए भीषण अपराध को दर्ज करने में सदियां गुज़र जातीं.

यह भी दर्ज करना चाहिए कि सीपीआई (माओवादी) अपने आधार वाले इलाकों में सिर्फ हथियारों के दम पर नहीं टिका हुआ है, जिसे आदिवासी इलाकों में समानांतर सरकार जैसे विशेषणों से पुकारा जाता है, वह दरअसल इन इलाकों में माओवादियों को स्थानीय समर्थन का और निर्वाचित सरकार की अनुपस्थिति का भी प्रतीक है.

भारत में संसदीय लोकतंत्र तमाम कमजोरियां ढो रहा है और कि इन कमजोरियों को दूर करने की जिम्मेदारी उनकी है जिन्होंने माओवाद के सफाए का ऐलान किया है. दुर्भाग्य यह है कि देश के सत्ताधारी आदिवासी के सवाल और माओवाद को एक आईने से देखते हैं. आदिवासी संघर्ष माओवाद की राजनीति के लिए स्पेस जरूर देते हैं, पर आदिवासी प्रश्न का अर्थ माओवाद नहीं है और आदिवासी होना माओवादी होना नहीं है.

इस हिंसक संघर्ष में आदिवासी प्रश्न पीछे छूट जाएंगे, छूट भी रहे हैं. जितनी चर्चा माओवादी हिंसा के सफाए पर होनी चाहिए, उससे कहीं अधिक ध्यान इस पर होना चाहिए कि संसदीय लोकतंत्र देश के आदिवासी का विश्वास कैसे जीते. कैसे यह लोकतंत्र आदिवासी जनता की आकांक्षाओं को पूरा करे और सुनिश्चित करे कि वे केवल वोट बन कर न रह जाएं. माओवादी हिंसा से निपटना अगर सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है, तो आदिवासी की चिंता भी उतनी ही बड़ी संवैधानिक जिम्मेदारी है.

इसके बिना संसदीय जनतंत्र के लक्ष्य हमेशा अधूरे ही रहेंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)