उत्तर प्रदेश में जिन दस विधानसभा सीटों के उपचुनाव होने जा रहे हैं, उनमें सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सबसे कड़ी परीक्षा आंबेडकर नगर लोकसभा सीट की कटेहरी विधानसभा सीट पर होगी, जिस पर मोदी और योगी के चढ़ाव के दिनों में भी उनका रंग नहीं चढ़ा और जिसके मतदाताओं ने उनके जादू को कभी अपने सिर चढ़कर नहीं बोलने दिया.
1990 में अयोध्या में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के सिलसिले में विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) की बहुप्रचारित कारसेवा के दौरान प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार द्वारा कारसेवकों पर कराई गई पुलिस फायरिंग से जन्मी रामलहर भी इस विधानसभा सीट को महज छू भर पाई थी, जबकि यह अयोध्या से सिर्फ 45-46 किलोमीटर दूर स्थित है.
और पानी उतर गया!
इस कारसेवा के बाद 1991 में प्रदेश विधानसभा के चुनाव हुए तो रामलहर पर सवार भाजपा नेता अनिल कुमार तिवारी यह सीट जीतकर विधायक ही नहीं, कल्याण सिंह की सरकार में मंत्री भी बन गए थे. लेकिन 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के संदर्भ में कल्याण सरकार की बर्खास्तगी के बाद 1993 के चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के गठबंधन ने तिवारी के समक्ष ऐसी कठिन चुनौती प्रस्तुत कर दी कि वे खुद तो हार ही गए, आगे उनकी पार्टी के लिए यह सीट जीतने का सपना देखना तक कठिन हो गया. इसके बाद के तीन से ज्यादा दशकों में इस सीट पर कभी उसका खाता नहीं खुला और अनिल का समूचा राजनीतिक करियर शिकस्तों की दास्तान होकर रह गया.
संभवतः यही कारण है कि गत विधानसभा चुनाव में उसने यह सीट अपनी सहयोगी निषाद पार्टी को दे दी. लेकिन निषाद पार्टी भी निरंतर हार का सिलसिला नहीं तोड़ पाई. इसके बावजूद वह इस उपचुनाव में भी इस पर दावेदारी जता रही है. लेकिन प्रदेश की दस विधानसभा सीटों के उपचुनाव जिस तरह योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्रित्व की उम्र तय करने में निर्णायक बताए जा रहे हैं, उसके मद्देनजर लगता नहीं कि भाजपा उसे उपकृत करने का जोखिम उठाएगी.
इसकी संभावना इसलिए भी नहीं लगती क्योंकि योगी ने लोकसभा चुनाव में शिकस्त खाने के बाद से ही इस सीट को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर खुद अपने प्रभार में चुनावी गतिविधियां इतनी तेज कर दी हैं कि अनेक भाजपाइयों की यह उम्मीद हरी हो गई है कि वे असंभव को संभव कर इस बार यहां कमल खिला देंगे.
यह और बात है कि विपक्षी नेता कहते हैं कि यह तभी संभव है, जब सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करके स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की राह रोक दी जाए और मतदाताओं को मतदान से रोककर फर्जी वोट डलवाए जाएं. इन नेताओं के अनुसार स्थानीय प्रशासन के इरादे अभी से नेक नहीं दिखाई दे रहे हैं.
दूसरी ओर भाजपा में एकजुटता के अभाव, टिकट को लेकर एक अनार सौ बीमार की स्थिति, बेरोजगारी व छुट्टा पशुओं की समस्याओं से मतदाताओं में फैले रोष, नौकरशाही की काहिली के चलते घोषित विकास योजनाओं के ठीक से जमीन पर न उतर पाने और सड़क, बिजली व पानी की समस्याओं के बदस्तूर जारी रहने के चलते कई जानकारों को ऐसे किसी करिश्मे की राह में बहुत से कांटे नजर आ रहे है.
सपा-बसपा का गढ़
बहरहाल, थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो यह सीट 1957 में अस्तित्व में आई तो सारे देश में ‘दो बैलों की जोड़ी’ वाली कांग्रेस का बोलबाला था. सो, उसके प्रत्याशी लोकनाथ सिंह ने उस चुनाव में आसानी से उसका झंडा फहराया दिया, लेकिन 1962 में वे सोशलिस्ट पार्टी के रघुनाथ सिंह से पटखनी खा गए. 1967 में कांग्रेस ने जबरदस्त वापसी की और उसके कहानीकार प्रत्याशी रामनारायण त्रिपाठी ने सोशलिस्ट पार्टी को बाहर का रास्ता दिखा दिया.
1969 व 1974 के चुनावों में भी कांग्रेस का पलड़ा ही भारी रहा और उसके प्रत्याशी भगवतीप्रसाद शुक्ल ने बहुत आसानी से जीत दर्ज की. 1977 में जनता पार्टी की लहर में उसके प्रत्याशी रवीन्द्रनाथ तिवारी ने उन्हें हराया भी तो 1980 में उन्होंने अपने बेटे जियाराम शुक्ल को कांग्रेस का टिकट दिलाकर उसका बदला चुका लिया.
जियाराम शुक्ल विकल साकेती नाम से कविताएं लिखते थे और कवि के रूप में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी लेकिन राजनीति उन्हें रास नहीं आई और 1985 में वे जनता पार्टी के रवीन्द्रनाथ तिवारी (जो तब तक विनम्र व ईमानदार जनसेवक के रूप में जाने जाने लगे थे) की चुनौती के सामने ठहर नहीं सके. रवीन्द्रनाथ तिवारी ने ही 1989 का चुनाव भी जीता. अलबत्ता, जनता पार्टी नहीं, जनता दल के टिकट पर.
बस एक बार!
फिर जैसा कि पहले बता आए हैं, 1991 में राम मंदिर आंदोलन की लहर पर सवार भाजपा के अनिल कुमार तिवारी ने बाजी मारी. लेकिन 1993 में वे मुलायम और कांशीराम के मिलन के शिकार हो गए और इस सीट पर भाजपा का विजय अभियान थमा तो अब तक थमा ही हुआ है.
भाजपा के विरोधी कहते हैं कि ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जय श्री राम’ का नारा इस सीट पर ऐसा चरितार्थ हुआ कि मुलायम व कांशीराम के अलग हो जाने के बाद भी भाजपा की संभावनाएं उजली नहीं हुई. सपा-बसपा की जानी दुश्मनी के दिनों में भी नहीं.
बहरहाल, 1993 में बसपा के रामदेव ने जीत हासिल की तो उन्हें भी उम्मीद नहीं रही होगी कि उनके वारिस बनकर आए धर्मराज निषाद 1996, 2002 और 2007 के अगले तीन चुनावों में बसपा का परचम फहराते रहकर हैट्रिक लगा देंगे. 2012 में सपा के शंखलाल मांझी ने उन्हें हराया भी तो 2017 में लालजी वर्मा ने फिर यह सीट बसपा के नाम कर दी.
लेकिन उसके बाद बसपा की सुप्रीमो मायावती से निभा न पाने के कारण उन्होंने बसपा छोड़ सपा की शरण गह ली और 2022 में सपा के ही टिकट पर विधानसभा चुनाव के मैदान में उतरकर जीते.
गत लोकसभा चुनाव में वे आंबेडकर नगर सीट से इसी पार्टी के लोकसभा सदस्य चुने लिए गए तो नियमानुसार कटेहरी विधानसभा सीट से इस्तीफा दे दिया और अब इसके उपचुनाव में उनकी पत्नी शोभावती देवी सपा की प्रत्याशी हैं. वे जिला पंचायत सदस्य और अध्यक्ष रह चुकी हैं और इससे पहले उनकी बेटी छाया को प्रत्याशी बनाए जाने की चर्चा चल रही थी.
अंदर से भी चुनौती, बाहर से भी
फिलहाल, शोभावती के सामने भाजपा की ओर से तो जो चुनौती है, वह है ही, सपा में गुटबाजी की चुनौती भी है. गुटबाज हैं कि पार्टी में अंतर्कलह मचाकर प्रचार कर रहे हैं कि सपा के पुराने आधार एमवाई (मुस्लिम-यादव) को शोभावती कतई स्वीकार्य नहीं हैं क्योंकि उनके पति लालजी वर्मा इस आधार के अपमान का कोई मौका नहीं चूकते. ये गुटबाज ‘सह’ नहीं पा रहे कि 2022 में बसपा से सपा में आए लालजी वर्मा सांसद हों, उनकी पत्नी विधायक और दशकों से पार्टी के लिए संघर्ष करते आ रहे अनेक कद्दावर नेता खाली हाथ रह जाएं.
लेकिन इस सबसे लापरवाह शोभावती ने स्वयं को प्रत्याशी बनाने के लिए सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव को आशीर्वाद देकर जहां लोगों को चौंका दिया है (आम तौर पर ऐसे मौकों पर प्रत्याशी धन्यवाद देते हैं), वहीं विश्वास जताया है कि उपचुनाव में मतदाता उन्हें ही आशीर्वाद देंगे.
दूसरी ओर कई जानकार कहते हैं कि बसपा (जिससे पुराने कांग्रेसी अजीत वर्मा उम्मीदवारी का दावा कर रहे हैं) अगर अपना पूरा जोर लगाकर लड़ी और लोकसभा चुनाव में संविधान को खतरे के अंदेशे से निपटने के लिए उसे छोड़कर सपा की ओर चले गए दलित वोटर उसकी ओर वापस लौट आए, साथ ही सपा की अंतर्कलह भितरघात तक पहुंची तो नतीजा अप्रत्याशित भी हो सकता है.
यों, अरसे तक बसपा की राजनीति करते रहे लाल जी वर्मा की भी दलितों में कुछ कम पैठ नहीं है.
जातीय समीकरणों पर जाएं तो इस सीट के 4,05,000 से ज्यादा मतदाताओं में सबसे ज्यादा दलित हैं, उसके बाद पिछड़े. लेकिन सारी दलित व पिछड़ी जातियों को अलग-अलग करके देखें तो ब्राह्मण जाति के मतदाता ही सर्वाधिक हैं.
‘क से कटेहरी, क से कमल’
जो भी हो, योगी ने खुद इस उपचुनाव की कमान संभाल रखी है, जिससे उत्साहित उनके समर्थक दावा कर रहे हैं कि इस बार सपा-बसपा आपस में लड़ती रह जाएंगी और वे ‘क से कटेहरी, क से कमल’ कर दिखाएंगे.
इस लिहाज से देखें तो खुदा न खास्ता भाजपा ने रणनीति के तौर पर यह सीट निषाद पार्टी के लिए ही छोड़ दी तो भी प्रतिष्ठा भाजपा और योगी की ही दांव पर रहेगी, क्योंकि खोने और पाने के लिए सबसे ज्यादा चीजें उन्हीं के पास हैं.
दूसरी ओर, सपा ने भी शिवपाल यादव को अपना प्रभारी बनाकर अपने कार्यकर्ताओं को साफ संकेत दिया है कि लड़ाई प्राण-प्रण से होगी और किसी स्तर पर कोई कमजोरी नहीं दिखाई जाएगी. प्रशासन मतदान में धांधली कराने पर उतरेगा तो उसका इलाज भी तलाश लिया जाएगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)