बंगनामा: गांव, घर और सपना

बतौर एक युवा अधिकारी मैं चाहता था कि सरकारी राशि से बनते ग्रामीण घरों का निर्माण नए नक्शों के अनुसार हो, लेकिन प्रत्येक सपना कहां सच हो पाता है. बंगनामा स्तंभ की बारहवीं क़िस्त.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: फ्लिकर/Paul Ancheta/CC BY-NC-ND 2.0)

प्रशासनिक सेवा में नियुक्ति के बाद शायद हर नए अधिकारी की कोशिश रहती है कि दुनिया को बदलने के क्रम में कुछ नया किया जाए. इसके दो कारण हैं: प्रथम, इस नौकरी में आकर लोगों के लिए कुछ उपयोगी करने, कोई सुधार करने या फिर किसी समस्या का समाधान करने की वास्तविक इच्छा; द्वितीय, प्रशासन के बंधे-बंधाए नीरस कार्यों के मध्य कुछ ऐसा करतब दिखाने की चाहत कि लोग-बाग, विशेषतः वरिष्ठ अधिकारी, वाह-वाह करतें न थकें. मेरी भी कुछ ऐसी ही मंशा थी.

अगस्त 1990 के अंत में प्रशिक्षण हेतु मुझे तीन महीने के लिए उत्तर 24 परगना ज़िले के आमडांगा ब्लॉक के बीडीओ के पद पर नियुक्त किया गया. ब्लॉक पहुंचने से पूर्व मुझे ज़िला परिषद के अतिरिक्त कार्यकारी अधिकारी ने बताया कि आमडांगा ब्लॉक में जवाहर रोज़गार योजना (जरोयो) की व्यक्तिगत लाभार्थी स्कीम के तहत अति गरीब लोगों के लिए 24 घर पिछले डेढ़ साल से नहीं बन पाए हैं, ‘कुछ स्थानीय समस्याएं हैं. तुम उन घरों को बनवाने की कोशिश करना.’

ब्लॉक में पहुंच कर मैंने देखा कि कांचियारा गांव में ग्रामवासियों के मकानों की जो अवस्था देखी थी वही पूरे ब्लॉक के लिए भी सच था. पक्के मकानों की संख्या नगण्य थी. ज़्यादातर घरों की दीवारें मिट्टी और बांस या फिर पटसन की डंठलों से बनी थीं और छप्पर फूस या नारियल के सूखे पत्तों से. एक या दो कमरों में छह-सात सदस्यों के परिवार रहते थे. शौचालयों की संख्या बहुत कम थी. दलितों की बस्तियों में स्थिति और भी दयनीय थी. यह सही था कि मकान सिर्फ़ 24  बनने थे लेकिन यह प्रकल्प 24 परिवारों और लगभग डेढ़ सौ लोगों को तो लाभ पहुंचा ही सकता था. पता चला कि जवाहर रोज़गार योजना के मकानों के न बनने का कारण था शासक दल के अंदर चल रही राजनीतिक रस्साकशी. कुछ ही दिनों में मैं यह भी समझ गया कि घरों को बनवाने के लिए मुझे कान्हाई लाल मंडल को राज़ी कराना होगा.

उम्र पचहत्तर वर्ष, शिखर पर एक छोटी गांठ में बंधे खिचड़ी बाल, छाती तक लहराती दाढ़ी, दुबले बदन पर नीले रंग की लुंगी के ऊपर धुला, लेकिन सिलवटों से भरा कुर्ता, और पैरों में हवाई चप्पल — आमडांगा पंचायत समिति के सभापति कान्हाई लाल मंडल एक अद्भुत व्यक्तित्व थे. उन्हें न तो बैठकों में विश्वास था और न ही दफ़्तर की कुर्सी पर दिन बिताने में. तड़के ही वह अपनी साइकिल पर ब्लॉक के विभिन्न गांवों में चल रहे विकास कार्यों का निरीक्षण करने निकल पड़ते. उनके साथ (जीप से) दौरा करते वक्त मैंने ग्रामों के जीर्ण मकानों तथा जरोयो के अप्रयुक्त पड़ी राशि की ओर उनका ध्यान आकर्षित किया. साथ ही मैंने समझाया कि जब तक ये 24 मकान नहीं बनते हैं, इस स्कीम में आगे सरकारी निधि नहीं मिलेगी. कान्हाई बाबू सहमत हुए कि हमें शीघ्र ही यह कार्य संपन्न कर लेना चाहिए.

जरोयो के अंतर्गत आवासन प्रकल्प की यह सोच थी कि मकान अलग-थलग न बनें बल्कि छह-छह घरों के समूह बनाए जाएं ताकि साथ ही कुछ मूलभूत सुविधाएं भी वहां दी जा सकें, जैसे हैंड पंप और रास्ता. समस्या यह थी कि आमडांगा ब्लॉक में आठ ग्राम पंचायतें थीं जिनमें दिशा निर्देशानुसार अगर छह घरों के चार समूह बनते तो ब्लॉक के 79 गांवों में मात्र चार गांव लाभान्वित होते. ऐसे निर्णय से न तो जनता खुश होती और न पंचायत के सदस्य. इसलिए 24 मकानों को छह ग्राम पंचायतों के विभिन्न गांवों में ग़रीबों और राजनीतिक समर्थन के घनत्व के अनुसार बांट दिया गया. हर घर के लिए 7,200/- रुपयों का व्यय निर्दिष्ट किया गया था.

गांवों में इससे पूर्व जो ऐसे मकान बने थे काफ़ी छोटे थे, उनमें न बरामदे थे और न ही रसोई. कुछ परिवारों से भी बात की तो सभी ने घर में अंधकार और सीलन को समस्याओं के रूप में चिह्नित किया. एक भी खिड़की न होने के कारण न तो रोशनी आती थी, न ही हवा. मुझे लगा कि चार दीवारों के ऊपर छत डाल देना पर्याप्त नहीं था, उसे स्वास्थ्यकर होने के लिए रौशन और हवादार भी होना चाहिए. बरामदे और सुरक्षित खिड़कियों के लिए उपलब्ध राशि अपर्याप्त थी. प्रकल्प के लिए ज़िम्मेवार उत्साही जूनियर इंजिनियर, पार्थो घोष, के साथ इस विषय पर काफ़ी माथापच्ची करने के बाद हमने एक समाधान निकाला.

स्पष्ट था कि चूंकि मकान के लिए राशि का और कोई स्रोत न था, समस्या का हल इन 7200/- रुपये में ही निकालना होगा. मकान का एक बड़ा खर्च सीमेंट और बालू पर होता था परंतु मैंने देखा था कि निजी घरों के निर्माण में गांवों में अधिकतर लोग ईंट की जुड़ाई बालू और सीमेंट से न कर लसीली मिट्टी के लेप से करते थे. इसलिए हमने सोचा कि इन जरोयो घरों के लिए मिट्टी से जुड़ाई की जा सकती है. बचत के पैसों से दो काम किए जा सकेंगे — दीवारों में सीमेंट से बने जाली, जाफ़री, वाले रोशनदान बन जाएंगे, और सामने एक पतला बरामदा भी जिसकी तीन फुट ऊंचे दीवार से घिरे एक छोर में चूल्हा बिठाया जा सके. फिर इस नई व्यवस्था को मैंने कान्हाई बाबू के साथ साझा किया.

कान्हाई बाबू की दाढ़ी यूं ही दीर्घाकार नहीं हो गई थी. वो इस नए नक़्शे से सहमत थे लेकिन उन्होंने कहा कि चूंकि यह एक पहल है हमें इससे जुड़े प्रभावित तथा प्रभावशाली लोगों को भी इसकी उपयोगिता के बारे में बताना और समझाना चाहिए. उसके बाद शुरू हुए बैठकों के दौर — पहले पंचायत समिति में छह ग्राम प्रधानों और कुछ पंचायत के सदस्यों के साथ, फिर प्रकल्प से जुड़े राज मिस्त्रियों के संग, उसके बाद ग्राम पंचायतों में प्रधानों, मिस्त्रियों और लाभार्थियों के साथ.

यह आशा करना कि सारे-के-सारे प्रधान, राजमिस्त्री और लाभार्थी घरों में सुझाए परिवर्तनों से एकमत होंगे अवास्तविक था, परंतु जब अधिकतर लाभार्थियों ने इस प्रस्ताव को सहमति दे दी तो पार्थो बाबू और मैं कुछ आश्वस्त हुए. कान्हाई बाबू मंद मंद मुस्कुराए. अक्तूबर 1990 के दूसरे सप्ताह में विभिन्न ग्राम पंचायतों में निर्माण का काम आरंभ हुआ.

मकानों की नींव की खुदायी आरंभ हुई, ईंट पहुंचने लगीं, और कई जगह उनकी जुड़ाई का काम भी शुरू हो गया. परंतु गांवों में न तो रास्ते बहुत देर तक लगातार सीधे चलते हैं और न ही विकास के कार्य. जिस समय कान्हाई बाबू, पार्थो घोष और मैं जरोयो के संशोधित घरों के निर्माण के लिए गांवों में बैठक कर रहे थे उसी समय भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी अयोध्या में राम मंदिर बनवाने के समर्थन में अपनी रथ यात्रा पर निकले थे. 23 अक्तूबर 1990 को बिहार सरकार ने उन्हें हिरासत में ले लिया और देश का माहौल तनावपूर्ण हो गया. बाक़ी सब कुछ छोड़ कर कान्हाई बाबू और मेरे दिन बीतने लगे गांवों में जगह-जगह जाकर सांप्रदायिक सद्भावना के लिए लोगों से मिलने और सर्वदलीय शांति समिति की बैठक करने में. मकान निर्माण का काम धीमा पड़ गया.

इस अवधि में पश्चिम बंगाल में कोई बड़ी अप्रीतिकर घटना नहीं घटी और कुछ दिनों के बाद ब्लॉक में कामकाज सामान्य हो गया. मकानों की दीवारें अब काफ़ी तेज़ी से ऊपर उठ रही थीं. मैं और कार्यों के बीच भिन्न गांवों में उनकी प्रगति पर भी ध्यान देता रहता था. तभी एक सुबह ताराबेरिया ग्राम पंचायत के प्रधान कुछ लोगों को लेकर मेरे दफ़्तर में आए. उनमें से एक ने कहा, ‘बीडीओ शाहेब, नोतुन घर गुलो पोड़े जाच्चे (बीडीओ साहब, नए घर गिरे जा रहे हैं).’ मैंने उन्हें बिठाया और पूरी बात सुनी. पिछली शाम को काम ख़त्म कर घर जाते समय कोई मज़दूर तीन बांस के खंभों को एक नए घर की दीवार पर टिकाकर चला गया था. कुछ देर बाद पाड़ा के कुछ लोगों ने यह देख कर संशय व्यक्त करना आरंभ किया कि मिट्टी से जुड़ी ईंट की दीवार इतनी कमज़ोर है कि बांस का सहारा देना पड़ रहा है. इतना सुनना था कि वहां के पांचों लाभार्थी विचलित होने लगे और सुबह-सुबह प्रधान को लेकर काम रुकवाने की नालिश के साथ मेरे पास चले आए. मेरा आधा दिन उन लोगों के साथ उनके गांव जाकर, नई दीवारों को ठोंक-पीटकर दिखाकर यक़ीन दिलाने में व्यतीत हुआ कि घर मज़बूत हैं गिरेंगे नहीं. काम आगे बढ़ा.

15 दिसंबर को आमडांगा ब्लॉक में मेरा कार्यकाल पूरा हो गया. उसके एक दिन पहले मैं नवनिर्मित घरों को देखने ताराबेरिया ग्राम पंचायत पहुंचा. वहां पांचों घर जाफ़री वाले रोशनदान और बरामदे के साथ तैयार हो गए थे तथा एक घर पुराने नक़्शे के हिसाब से बना था. प्रिय पाठक, कितना अच्छा होता अगर इस वृतांत का अंत मैं यहीं कर पाता और आपकी वाहवाही का आनंद उठा सकता. पर यह संभव नहीं. मुझे इस बात का संतोष तो हुआ कि मेरे ब्लॉक छोड़ने से पहले सारे 24 मकान तैयार हो गए थे, लेकिन थोड़ा अफ़सोस इस बात का रह गया कि उनमें से केवल छह प्रस्तावित सुधारों के साथ बने. बाक़ी अठारह परिवारों ने शुरुआत में अपनी सहमति देने के बावजूद नए घरों में किसी तरह का सुधार स्वीकार नहीं किया. काश लोगों का दृष्टिकोण बदलना नक़्शा बदलने जितना ही सरल होता.

(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)

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