मुंबई: एल्गार परिषद मामले में लंबे समय से जेल में बंद सात मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने शुक्रवार (18 अक्टूबर) को भूख हड़ताल शुरू की है.
रिपोर्ट के अनुसार, मामले में पिछली तीन सुनवाई के दौरान कार्यकर्ताओं को अदालत में पेश नहीं किया गया. शुक्रवार को अदालत के आदेश के बावजूद नवी मुंबई पुलिस तलोजा केंद्रीय जेल से दक्षिण मुंबई में स्थित विशेष राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) अदालत में कैदियों को ले जाने के लिए एस्कॉर्ट टीम उपलब्ध कराने में विफल रही, जिसके कारण कार्यकर्ताओं ने भूख हड़ताल की घोषणा की.
मालूम हो कि कुल मिलाकर इस मामले में 16 लोगों को गिरफ़्तार किया गया था. कुछ जमानत और एक की मौत के बाद सात पुरुष और एक महिला अभी भी जेल में हैं. हड़ताल करने वालों में मानवाधिकार वकील सुरेंद्र गाडलिंग, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हेनी बाबू, कैदियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता रोना विल्सन, सांस्कृतिक कार्यकर्ता सागर गोरखे और रमेश गाइचोर, विद्रोही पत्रिका के संपादक और लेखक सुधीर धवले और आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता महेश राउत शामिल हैं.
इस मामले में गिरफ्तार कार्यकर्ता ज्योति जगताप को भी बायकुला महिला जेल में रखा गया है और उन्हें अदालत में पेश किया गया.
सभी 16 व्यक्तियों पर ‘अर्बन नक्सली’ होने का दावा करते हुए कठोर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत कई गंभीर आरोप लगाए गए हैं.
जेल में बंद लोगों में से गाडलिंग अपना बचाव स्वयं कर रहे हैं और उन्हें अदालत में पेश नहीं किए जाने का अर्थ यह होगा कि उन्हें अदालत में अपना आवेदन पेश करने या दलीलें रखने का मौका नहीं मिलेगा.
पिछली सुनवाई में गाडलिंग समेत अन्य लोगों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये पेश किया गया था. तब कोर्ट ने पुलिस को विशेष रूप से निर्देश दिया था कि वह इस मामले में गिरफ्तार सभी लोगों को शुक्रवार (18 अक्टूबर को) कोर्ट में पेश करे. हालांकि, पुलिस ने आदेश की अवहेलना की.
बताया गया कि अदालत में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सेवा में तकनीकी खराबी आ गई और गिरफ्तार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को ऑनलाइन पेश नहीं किया जा सका. भारतीय न्यायपालिका में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधाओं का विफल होना आम बात हो चली है, फिर भी अधिकांश राज्य वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से कैदियों की पेशी पर जोर देते हैं.
गाडलिंग के बेटे सुमित, जो एक युवा वकील हैं, ने शुक्रवार दोपहर के समय अपने पिता से बात की थी. सुमित ने द वायर को बताया, ‘यहां मेरे पिता को साप्ताहिक कॉल करने की अनुमति है. कॉल में मेरे पिता ने मुझे बताया कि उन सभी ने पुलिस द्वारा अदालत के निर्देश की अवहेलना और उन्हें सुनवाई के लिए पेश करने से इनकार करने के खिलाफ भूख हड़ताल पर जाने का फैसला किया है.’
दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हेनी बाबू की पत्नी ने उनके अनशन के बारे में चिंता व्यक्त की है.
गौरतलब है कि महाराष्ट्र सरकार ने स्वीकार किया है कि कैदियों को लंबे समय से अदालत में नियमित रूप से पेश करने से वंचित रखा गया है और अदालतों ने बार-बार राज्य को जेल से अदालतों तक कैदियों को ले जाने के लिए पर्याप्त एस्कॉर्ट टीम उपलब्ध नहीं कराने के लिए फटकार लगाई है.
कुछ साल पहले स्थानीय सशस्त्र पुलिस इकाई में नए पदों को मंजूरी देने और पुलिसकर्मियों की नियुक्ति का सरकारी आदेश जारी किया गया था. लेकिन, इससे जमीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं आया है.
कैदियों को अपने परिवार के सदस्यों से मिलने और खुली जगहों पर रहने का मौका केवल तभी मिलता है जब उन्हें अदालत में पेश किया जाता है. अदालतों में उनका जाना उनके कारावास के दौरान सबसे महत्वपूर्ण होता है और कई कैदियों ने पुलिस और अदालतों से उनके प्रति दिखाई गई असंवेदनशीलता के बारे में बार-बार शिकायत की है.
एल्गार परिषद मामले में अभी भी जेल में बंद लोगों में से कुछ कई सालों से जेल में बंद हैं, कुछ तो 2018 के मध्य से ही जेल में बंद हैं. उनके कई आवेदन अदालतों में लंबित हैं, जिनमें बरी किए जाने की अर्जी भी शामिल हैं.
ज्ञात हो कि इस मामले में अब तक जिन लोगों को जमानत दी गई है, उनमें कवि वरवरा राव, शिक्षाविद आनंद तेलतुम्बडे और शोमा सेन, पत्रकार गौतम नवलखा, वकील सुधा भारद्वाज और अरुण फरेरा तथा कार्यकर्ता वर्नोन गोंसाल्वेस शामिल हैं.
उनकी जमानत पर निर्णय अनेक तथ्यों के आधार पर लिया गया, जिनमें साक्ष्य का अभाव भी एक था.
इस मामले में गिरफ़्तार किए गए 84 वर्षीय फादर स्टेन स्वामी की ज़मानत याचिका पर फ़ैसला होने से पहले ही उनका देहांत हो गया था. उनके वकीलों ने सरकार पर आरोप लगाया है कि जब वे कोविड-19 से संक्रमित थे, तो उन्हें पर्याप्त और समय पर चिकित्सा नहीं दी गई.
विचाराधीन कैदियों के लंबे समय तक जेल में रहने के बावजूद मामले में अभी तक सुनवाई शुरू नहीं हो सकी है.
मालूम हो कि एल्गार परिषद मामला पुणे में 31 दिसंबर 2017 को आयोजित गोष्ठी में कथित भड़काऊ भाषण से जुड़ा है. पुलिस का दावा है कि इस भाषण की वजह से अगले दिन शहर के बाहरी इलाके में स्थित भीमा-कोरेगांव युद्ध स्मारक के पास हिंसा हुई और इस संगोष्ठी का आयोजन करने वालों का संबंध कथित माओवादियों से था.