भारत के समाजवादी भी इज़रायल के मित्र और पैरोकार रहे हैं

भारत के समाजवादी का इज़रायल प्रेम 1948 में उसके गठन के वक़्त से ही शुरू हो गया था. इज़रायल का दौरा करने और कई-कई हफ़्तों तक इसकी मेज़बानी उठाने वालों में भारत के शीर्ष समाजवादी नेताओं में जयप्रकाश नारायण, जेबी कृपलानी, राममनोहर लोहिया, हरि विष्णु कामथ, कर्पूरी ठाकुर, जॉर्ज फर्नांडीस, मधु दंडवते, अनुसुईया लिमये जैसे नाम शामिल थे.

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(प्रतीकात्मक तस्वीर: Taylor Brandon/Unsplash)

बहुत कम लोगों को मालूम है कि महात्मा गांधी की आंखों के तारे कहे जाने वाले ‘सोशलिस्टों’ ने जो कांग्रेस पार्टी के अंदर ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ ब्लॉक के नाम से जाने जाते थे, 1948 में उनकी हत्या हो जाने के बाद  फ़िलस्तीन मुद्दे पर महात्मा गांधी की नीति के ख़िलाफ़ जाकर इजरायल का समर्थन किया था. इन  महान ‘सेकुलर’ और समाजवादी  लोगों ने इजरायल के साथ दोस्ताना और राजनयिक रिश्ते क़ायम करने की मुहिम भी चलाई और अंतरराष्ट्रीय स्तर  पर ‘सोशलिस्ट इंटरनेशनल’ के माध्यम से इजरायल को एक ‘आतंकवादी देश’ बनने में मदद की.

भारत के सोशलिस्टों का इजरायल प्रेम 1948 में उसके गठन के वक़्त से ही शुरू हो गया था. इजरायल का दौरा करने और वहां कई-कई हफ़्तों तक ‘ज़ायनिस्ट रिजीम’ की मेज़बानी उठाने वालों में भारत के शीर्ष सोशलिस्ट नेताओं में जयप्रकाश नारायण, जेबी कृपलानी, राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता, एनजी गोरे, हरि विष्णु कामथ, प्रेम भसीन, नाथ पई, कर्पूरी ठाकुर, जॉर्ज फर्नांडीस, मधु दंडवते, सुरेंद्र मोहन, राजवंत सिंह, प्रदीप बोस, अनुसुईया लिमये, कमला सिन्हा आदि शामिल थे.

इन नेताओं ने न सिर्फ़ इजरायल की विस्तारवादी नीतियों का समर्थन किया बल्कि भारत सरकार पर दबाव डाला कि वह इजरायल के साथ न केवल राजनयिक रिश्ते क़ायम करे बल्कि उसके साथ दोस्ताना संबंध भी बनाए.

सबसे पहले 1955  में राममनोहर लोहिया ने इजरायल का दौरा किया था और लिखा:

‘अगर दुनिया में कहीं अंतिम व्यक्ति तक युद्ध करने जैसी भावना मुझे दिखी तो वह इजरायल में ही दिखी. जब मैंने इजरायल के एक उत्साही नौजवान से कहा कि 8 करोड़ अरब शत्रुओं के सामने 20 लाख यहूदियों के टिके रहने की कोई संभावना नहीं है और किसी दिन अरबों के पास भी यहूदियों जितने हथियार आ जाएंगे तो, उसने अपने शांत उत्तर से मुझे डरा दिया. उसने कहा कि उनके लिए जाने की कोई जगह नहीं है. आश्चर्य की बात है कि इस देश में जहां हर लड़की मशीनगन चला सकती है, महात्मा गांधी की आत्मकथा हर उस नौजवान ने पढ़ी है जिससे मैं मिला. इजरायल एशियाई देश है. उसके पास इतने मानव संसाधन और प्रतिभाएं हैं कि किसी और देश मे इतनी नहीं  होगी. वह नए ढंग के जीवन के प्रयोग कर रहा है विशेषकर कृषि में.शांति और पुनर्निर्माण के कार्य में इजरायल की साझेदारी सारे एशिया को, जिसमें अरब भी शामिल है, लाभान्वित करेगी. भारत सरकार को इजरायल को मान्यता  देने में देरी नहीं करनी चाहिए.’ (फ्रेग्मेंट्स ऑफ ए वर्ल्ड माइंड)

1950 के दशक में ‘सोशलिस्ट इंटरनेशनल’ ने इजरायल के समाजवाद की उपलब्धियों की सराहना करते हुए एक आधिकारिक पुस्तिका प्रकाशित की थी जिसमें जेबी कृपलानी की प्रस्तावना शामिल थी जो उस समय प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे और जिसमें उन्होंने इजरायली समाजवाद की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए इजरायल के बहिष्कार करने वालों की निंदा की थी जिसमें भारत भी शामिल था. (फिलिप मेंडेस, निक डायरेनफर्थ – 2015)

इसके पहले जुलाई और अगस्त 1953 में कई एशियाई समाजवादियों ने इजरायल के लिए समर्थन जुटाने के मक़सद से ब्रिटेन का दौरा किया और स्टॉकहोम की ‘सोशलिस्ट कांग्रेस’ में शिरकत की. इनमें भारत की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी  के संयुक्त सचिव प्रेम भसीन  शामिल थे.

सितंबर 1958 में जयप्रकाश नारायण ने इजरायल का दौरा किया और उसके लोगों और प्रगति की प्रशंसा की. जेपी ने अपने इस इजरायल दौरे को बहुत ही महत्वपूर्ण बताते हुए पूरी दुनिया से इजरायल के साथ सहयोग और दोस्ती की अपील की थी. साथ ही उन्होंने इजरायल का सामुदायिक कार्यक्रम ‘किबुत्ज़’ देखा और उससे वह अत्यंत प्रभावित हुए. (सर्वोदय पत्रिका वॉल्यूम 8-9, पेज नंबर 339, सलेक्टेड वर्क्स ऑफ जेपी)

27 से 29 अप्रैल, 1960 को इजरायल के शहर हाइफ़ा में सोशलिस्ट इंटरनेशनल की काउंसिल कॉन्फ्रेंस की एक बैठक हुई. इस सम्मेलन में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष अशोक मेहता को आमंत्रित किया गया. ‘एशिया में सामाजिक लोकतंत्र के कार्य’ पर अशोक मेहता ने अपना शुरुआती भाषण दिया. उन्होंने पश्चिमी यूरोप और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का भी दौरा किया और इजरायल का जमकर समर्थन किया.

1963 में पीएसपी पार्टी ने इजरायल को क़ानूनी मान्यता न देने के संबंध में केंद्र सरकार से सवाल किया.

संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा ) के सांसद जॉर्ज फर्नांडिस ने तो जून 1967 में- उस समय जब इजरायल ने छह दिनों तक अरब देशों मिस्र, सीरिया और जॉर्डन के साथ युद्ध करने और फ़िलीस्तीन के एक बड़े भू-भाग पर नाजायज़ क़ब्ज़ा कर लिया था- भारत में ‘फ़्रेंड्स ऑफ इजरायल’ नामक संगठन बनाकर इजरायल की ‘ज़ायनिस्ट रिजीम’ का समर्थन किया था और उसके समर्थन में जनमानस तैयार करने का काम किया. इजरायल के समर्थन में उनका बयान न सिर्फ़ देश के बड़े अख़बारों में प्रमुखता के साथ छपा था बल्कि राममनोहर लोहिया के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘जन’ और ‘मैनकाइंड’ के जून 1967 के अंकों में प्रकाशित भी हुआ था. लोहिया के एक क़रीबी दोस्त अकबरपुर-फ़ैज़ाबाद के सिब्ते मोहम्मद नक़वी ने 3 जुलाई 1967 को डॉ. लोहिया को एक कड़ा ख़त लिख कर इस विषय पर अपनी सख़्त नाराज़गी का इज़हार किया.

उन्होंने लिखा, ‘कल या परसों के समाचार पत्रों में जॉर्ज फ़र्नांडिस साहब का मैंने इजरायल के पक्ष में एक संयुक्त वक्तव्य देखा और मुझे बड़ा दुख हुआ. और आज जब ‘जन’ 28 मिला तो वह दुःख और बढ़ा और मुझे खेद है कि इस क्रम में जो विचारधारा आपके द्वारा संसद में प्रतिपादित हुई है, उसे मैं ग़लत ही नहीं अन्यायपूर्ण भी मानता हूं. गांधी जी ने 26  नवंबर 1938  के ‘हरिजन’ में एक लेख लिखा था जिसके एक महत्वपूर्ण अंश का अनुवाद इस प्रकार है: ‘मेरी तमाम हमदर्दियां यहूदियों के साथ हैं, लेकिन हमदर्दियां न्याय के तक़ाज़ों से आंखें नहीं मुंदवा सकतीं. यहूदियों के लिए क़ौमी देश बनाने की चीख़ पुकार में मेरे लिए कोई अपील नहीं है. फ़िलीस्तीन अरबों की उसी तरह संपत्ति है, जैसे बर्तानिया अंग्रेज़ों की और फ़्रांस फ़्रांसीसियों की. यहूदियों को अरबों पर लादना ग़लत है… हिटलर का रवैया यहूदियों के साथ बड़ी निर्दयता और बर्बरता का रहा है, लेकिन उनको बसाने के लिए अरब अपने घर से उजाड़े जाएं इसका औचित्य मुझे तो नहीं दिखता.’

इजरायल की स्थापना के पहले से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस धार्मिक आधार पर इजरायल के गठन का विरोध कर रही थी. महात्मा गांधी का मानना था कि यहूदियों के साथ उनकी हमदर्दी है लेकिन उन्होंने धार्मिक या अनिवार्य शर्तों पर इजरायल के निर्माण का विरोध किया. गांधी का मानना था कि अरब फ़िलीस्तीन के ‘सही मालिक’ थे, और उनका विचार था कि यहूदियों को अपने मूल देशों में लौट जाना चाहिए. मगर सोशलिस्टों ने इजरायल के साथ सहयोग और दोस्ती की बात संविधान सभा की बहसों के दौरान ही कर दी थी. फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के नेता हरि विष्णु कामथ जो बाद में अपनी पार्टी के एक गुट का सोशलिस्ट पार्टी में विलय कर जयप्रकाश नारायण, जेबी कृपलानी और  राममनोहर लोहिया के साथ प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य बने, ने मार्च 1949 से दिसंबर 1949 के बीच कई बार संविधान सभा में इजरायल के साथ सहयोग का मुद्दा उठाया और हर बार तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट किया की इजरायल के साथ सहयोग नहीं किया जा सकता क्योंकि महात्मा गांधी के समय से हमारी नीति फ़िलीस्तीन के साथ सहयोग की रही है.

मशहूर वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने भारत को यहूदी राज्य की स्थापना का समर्थन करने और उसे मनाने के लिए 13 जून 1947 को जवाहरलाल नेहरू को चार पन्नों का एक पत्र लिखा था. नेहरू ने आइंस्टीन के इस अनुरोध को विनम्रता के साथ अस्वीकार कर दिया. इतना ही नहीं, भारत ने 1947 की फ़िलीस्तीन विभाजन योजना और संयुक्त राष्ट्र में इजरायल के प्रवेश के ख़िलाफ़ भी मतदान किया.

संघ परिवार का समर्थन

दूसरी ओर, 1949 में हिंदू राष्ट्रवाद के विभिन्न समर्थकों ने इजरायल के निर्माण का समर्थन किया और उससे सहानुभूति व्यक्त की. हिंदू महासभा के नेता वीडी सावरकर ने नैतिक और राजनीतिक दोनों आधारों पर इजरायल के निर्माण का समर्थन किया और संयुक्त राष्ट्र में इजरायल के खिलाफ भारत के वोट की निंदा की. माधव सदाशिव गोलवलकर ने यहूदी राष्ट्रवाद की प्रशंसा करते हुए कहा कि ‘फ़िलीस्तीन यहूदी लोगों का प्राकृतिक क्षेत्र है, जो राष्ट्रीयता की उनकी आकांक्षा के लिए आवश्यक है’.

1950 के दशक में इजरायल की सत्ताधारी मापाई पार्टी (यह इजरायल की जायनिस्ट लेबर, डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट पार्टी थी जिसका विलय बाद में वहां की लेबर पार्टी में हो गया था) का भारत की प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के साथ घनिष्ठ संबंध रहा.

नवंबर 1959 में बंबई में पीएसपी द्वारा अपना रजत जयंती सम्मेलन आयोजित किया गया. इस अवसर पर पार्टी ने दूसरे ‘एशियन सोशलिस्ट’ सम्मेलन की मेज़बानी की. इस सम्मेलन में इजरायल से मापाई पार्टी ने एक मजबूत प्रतिनिधिमंडल अपने पूर्व प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री मोशे शेरेट के नेतृत्व में भारत भेजा. अपने भाषण में मोशे शेरेट ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की जमकर तारीफ़ की. अगले वक्ता जयप्रकाश नारायण थे. उन्होंने मोशे शेरेट और इजरायल की सराहना करते हुए कहा ‘कि इजरायल में समाजवादी अभी कुछ साल पहले ही सत्ता में आए हैं. मगर वे दशकों से रचनात्मक समाजवाद के कार्य को आगे बढ़ा रहे है. उनके ‘किबुत्ज’ लगभग 49 वर्ष पुराने थे. वे इस बात के उदाहरण थे कि कैसे समाजवादी आंदोलन ने वास्तव में वहां रचनात्मक कार्य किया था.’

फ़रवरी 1966 में इजरायल के राष्ट्रपति ज़ल्मान शज़र काठमांडू जाते हुए दिल्ली और कलकत्ता में थोड़े समय के लिए रुके. उनकी इस यात्रा से एक बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ क्योंकि भारत सरकार ने उन्हें सामान्य ‘प्रोटोकॉल’ नहीं दिया क्योंकि वह उनकी निजी यात्रा थी. प्रसोपा और संसोपा के सांसदों ने इसका विरोध किया और इसे लेकर लोकसभा में हंगामा किया. प्रसोपा के नेता हरि विष्णु कामथ ने 24 मार्च 1966 को लोकसभा में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के ज़रिये इस मुद्दे को उठाते हुए गहरी नाराज़गी का इज़हार किया कि केंद्र सरकार ने एक देश के राष्ट्राध्यक्ष को सामान्य ‘प्रोटोकॉल’ भी नहीं दिया.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों देश में समाजवादी आंदोलन के इतिहास का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं.)