उत्तर प्रदेश में प्रयागराज (जो पहले इलाहाबाद हुआ करता था) जिले के मुख्यालय से कोई तीस किलोमीटर दूर स्थित फूलपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में किस पार्टी या प्रत्याशी के हिस्से में कितने फूल या कितने कांटे आएंगे, इसका ठीक-ठीक अंदाजा लगाने के लिए याद रखना जरूरी है कि अभी पांच महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में फूलपुर लोकसभा सीट पर हुई कांटे की टक्कर में जीत-हार का फैसला सिर्फ 4,332 वोटों से हुआ था. इसी तरह 2022 के विधानसभा चुनाव में फूलपुर विधानसभा सीट की जीत-हार महज 2,732 वोटों से तय हुई थी.
भाजपा चाहे तो खुश हो सकती है कि इन दोनों ही चुनावों में बाजी उसके प्रत्याशी प्रवीण पटेल के हाथ ही रही थी. लेकिन वह शायद ही याद रखना चाहे कि लोकसभा चुनाव के दौरान वे जिस फूलपुर विधानसभा क्षेत्र के विधायक थे, उसी में लगभग 18 हजार वोटों से पिछड़ गए थे. उसे यह याद रखना भी दुखी ही करेगा कि 2024 में लोकसभा चुनाव का जो मुकाबला वे केवल 4,332 वोटों से जीत पाए, उसे 2019 में उनकी पार्टी की केशरी देवी पटेल ने 1,71,968 वोटों से और 2014 में केशव प्रसाद मौर्य ने 3,08,308 वोटों से जीता था. वह भी जब मोदी युग से पहले इस सीट पर भाजपा की जीत का कोई इतिहास नहीं था.
उलट-पलट की आदत
जाहिर है कि फूलपुर लोकसभा व विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं को किसी दल या प्रत्याशी से ‘वफादारी’ निभाने के बजाय चुनावी रोटियों को उलटते-पलटते रहने की आदत है और उनकी इस आदत से इस उपचुनाव के प्रायः सारे प्रतिद्वंद्वी पक्ष डरे हुए हैं.
यह डर यहां तक है कि समाजवादी पार्टी (सपा) इस तथ्य से भी आश्वस्ति का अनुभव नहीं कर पा रही कि लोकसभा चुनाव में उसे इस विधानसभा क्षेत्र में 18,000 वोटों की बढ़त प्राप्त हुई थी. अलबत्ता, इससे उसके कार्यकर्ता थोड़े उत्साहित जरूर हैं.
बहरहाल, यहां के मतदाताओं के स्वभाव को इस तरह भी समझा जा सकता है कि 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले हुए परिसीमन में फूलपुर विधानसभा क्षेत्र अस्तित्व में आया तो वे समाजवादी पार्टी की उस लहर में बह गए थे जो प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की तत्कालीन मायावती सरकार के विरुद्ध सत्ताविरोध से पैदा हुई थी. उस चुनाव में सपा प्रत्याशी सईद अहमद ने बसपा विधायक प्रवीण पटेल को लगभग आठ हजार वोटों से हरा दिया था.
लेकिन 2017 में यही प्रवीण पाला बदलकर भाजपा में आ गए और उसके प्रत्याशी बने तो अपनी शिकस्त का बदला चुकाने में कामयाब रहे क्योंकि तब सपा की 2012 की लहर उसकी अखिलेश सरकार से नाराजगी में बदल गई थी. इस चुनाव में सपा का प्रत्याशी बदलना भी कुछ काम नहीं आया था और उसके प्रत्याशी मंसूर आलम को प्रवीण पटेल से 26,613 वोटों से हार का सामना करना पड़ा था.
गौरतलब है कि यह पहली बार था जब भाजपा इस सीट पर कमल खिलाने में कामयाब हुई. लेकिन उसने प्रवीण को 2022 में फिर प्रत्याशी बनाकर उनके इस करिश्मे का पुरस्कार दिया तो वे अपनी पुरानी लोकप्रियता बरकरार नहीं रख पाए और सपा के नए प्रत्याशी मुज्तबा सिद्दीकी से मुकाबले में जैसे-तैसे 2,732 वोटों से यह सीट बचा भर पाए.
इसके बावजूद भाजपा ने गत लोकसभा चुनाव में उन्हें फूलपुर लोकसभा क्षेत्र से प्रत्याशी बनाया तो इस विधानसभा क्षेत्र के मतदाताओं ने उन्हें अपने सपाई प्रतिद्वंद्वी से लगभग 18,000 वोटों से पीछे कर दिया, इस दावे के बावजूद कि उन्होंने अपनी विधायकी के दौरान क्षेत्र में विकास कार्यों की झड़ी लगा दी है.
वे खुशकिस्मत थे कि दूसरे विधानसभा क्षेत्रों में उन्हें अच्छी बढ़त मिली और उसकी बदौलत वे किसी तरह 4,332 वोटों से चुनाव जीतकर सांसद बन गए, नैतिक रूप से फूलपुर विधानसभा सीट हार जाने के बावजूद.
अब उनके विधायकी छोड़ देने के कारण उपचुनाव हो रहा है तो सपा ने 2022 में उन्हें नाकों चने चबवा देने वाले अपने प्रत्याशी मुज्तबा सिद्दीकी पर ही फिर से विश्वास जताया है और उसकी संभावनाओं के लिहाज से देखें तो अच्छी बात यह है कि जो कांग्रेस पहले अपने पुराने जनाधार के हवाले से उससे यह सीट अपने लिए मांग रही थी, उसने अपनी दावेदारी वापस लेकर उसका समर्थन करने के संकेत दिए हैं. हालांकि, कुछ सूत्र कहते हैं कि दोनों पार्टियों के नेतृत्व में बात नहीं बनी तो यह संकेत पलट भी सकता है.
कांग्रेस का पुराना गढ़
प्रसंगवश, कांग्रेस की दावेदारी के पीछे एक तर्क यह भी है कि यह क्षेत्र जवाहरलाल नेहरू के वक्त का उसका पुराना गढ़ है और भाजपा व बसपा प्रवीण पटेल को उनके कांग्रेसी अतीत का लाभ उठाने के लिए ही अपना प्रत्याशी बनाती रही हैं.
प्रवीण के पिता महेंद्र प्रताप पटेल 1985, 1989 और 1991 में लगातार तीन बार झूंसी विधानसभा सीट से विधायक रहे हैं. गोकि बाद में वे पाला बदलकर जनता दल में चले गए थे और उन्हीं की राह पर चलते हुए उनके बेटे प्रवीण ने अपनी राजनीतिक पारी बसपा से शुरू की और 2007 में उसके टिकट पर चुनाव लड़कर झूंसी के विधायक बने.
दूसरी ओर कई लोग प्रवीण पटेल को अमित शाह का करीबी भी बताते हैं.
यहां जानना जरूरी है कि झूंसी फूलपुर विधानसभा सीट का ही पुराना नाम है. 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले हुए परिसीमन में झूंसी सीट का अस्तित्व खत्म कर फूलपुर नाम से नई सीट बनाई गई थी और झूंसी सीट का बड़ा हिस्सा फूलपुर विधानसभा क्षेत्र में ही है.
झूंसी के रूप में इस सीट के मतदाताओं ने अतीत में जिन नामचीन विधायकों को चुना, उनमें 1951 के चुनाव में जीते कांग्रेस के शिवनाथ काटजू, 1977 में जीते जनता पार्टी के केशरीनाथ त्रिपाठी (जो बाद में प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष भी बने) और 1980 में जीते इसी पार्टी के बैजनाथ प्रसाद कुशवाहा शामिल हैं. 1985 में कांग्रेस के महेंद्र प्रताप सिंह (प्रवीण पटेल के पिता) चुने गए तो 1989 और 1991 में वह जनता दल के टिकट पर भी जीते. वे इस क्षेत्र के एकमात्र ऐसे विधायक हैं, जिसने हैट्रिक लगाई.
बहरहाल, सपा प्रत्याशी मुज्तबा भी तीन बार बसपा के विधायक रहे हैं. 2002 और 2007 में सोरांव विधानसभा सीट से और 2017 में प्रतापपुर से. उसके बाद बसपा सुप्रीमो मायावती से बिगाड़ के बाद वे सपा में आ गए और 2022 का विधानसभा चुनाव फूलपुर से लड़े लेकिन हार गए.
कहते हैं कि सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने इस उपचुनाव के कार्यक्रम की घोषणा से पहले ही उनकी उम्मीदवारी को हरी झंडी दे दी थी, इसलिए वे क्षेत्र में जनसंपर्क का एक दौर पूरा कर चुके हैं, जबकि भाजपा अपने उम्मीदवार की घोषणा में पिछड़ गई है.
लोकसभा चुनाव का जोश
मुज्तबा के समर्थक दावा करते हैं कि मतदाताओं का लोकसभा चुनाव का वह जोश अभी भी ठंडा नहीं पड़ा है, जिसके फलस्वरूप 20 मई की राहुल और अखिलेश की फूलपुर की रैली में इतनी भीड़ उमड़ पड़ी थी कि उसके बेकाबू हो जाने के कारण दोनों नेताओं को बिना भाषण दिए लौट जाना पड़ा था.
उसके बाद गलती यह हुई कि उसके बाद सपा कार्यकर्ता अतिआत्मविश्वास के शिकार हो गए और भाजपा कुछ वोटों से लोकसभा सीट जीत गई. इसलिए भी, पल्लवी पटेल द्वारा बीच रास्ते की गई दगाबाजी के कारण. दावे के मुताबिक, अब मतदाता इस उपचुनाव में भाजपा को हराने की अपनी अधूरी हसरत पूरी करने को उतावले हैं.
लेकिन भाजपा समर्थक इससे इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं कि उनकी पार्टी की संभावनाएं धूमिल होतीं तो उसके 40 नेता इसी सीट से टिकट मांगकर ‘एक अनार सौ बीमार’ के हालात नहीं पैदा कर देते. वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि भाजपा का टिकट ही जीत की गारंटी बना हुआ है.
फिलहाल, ये पंक्तियां लिखने तक भाजपा ने अपने प्रत्याशी की घोषणा नहीं की है , लेकिन दोनों पक्ष अपनी-अपनी संभावनाओं के लिए कुछ भी उठा नहीं रख रहे.
दूसरी ओर, बसपा व चंद्रशेखर आजाद (रावण) की आजाद समाज पार्टी भी जीत-हार तय करने में ‘बड़ी’ भूमिका निभाने के फेर में हैं. इनमें आजाद समाज पार्टी ने शाहिद अख्तर खान को प्रत्याशी घोषित कर रखा है, जबकि बसपा ने अचानक अपने पूर्व घोषित प्रत्याशी शिवबरन पासी को हटाकर जितेंद्र सिंह को टिकट दे दिया है.
जानकारों के अनुसार, शिवबरन पासी अपने नाम की घोषणा के बाद से ही जनसंपर्क में लग गए थे, लेकिन अब उनकी पार्टी को अचानक करोड़पति जितेंद्र सिंह में ज्यादा संभावनाएं दिखाई देने लगी हैं. इस बदलाव का क्या असर होगा, अभी कहना जल्दबाजी होगा.
वक्त की नजाकत समझकर भाजपा ने उपमुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्य को इस उपचुनाव का प्रभारी बनाकर पार्टी की जीत की जिम्मेदारी सौंप रखी है, तो सपा ने अपने महासचिव इंद्रजीत सरोज को मोर्चे पर लगा रखा है, जो मंझनपुर विधानसभा सीट से विधायक भी हैं.
मुद्दे गड्ड-मड्ड
इस विधानसभा क्षेत्र में शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में बंटे कुल 3,87,693 मतदाता हैं. जिनमें 2,14,910 पुरुष व 1,72,728 महिलाएं हैं. इनमें अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित जातियों के मतदाताओं की बहुलता है, लेकिन उनकी टकराहट में मतों का बिखराव होता है तो ब्राह्मण व राजपूत मतदाता संख्या में कम होने के बावजूद निर्णायक हो जाते हैं.
चुनाव के मुद्दों की बात करें तो वे दलीय गोलबंदियों में गड्ड-मड्ड होकर रह गए हैं लेकिन अच्छी बात है कि सपा प्रत्याशी के मुसलमान होने और सपा में अंदरखाने उसके थोड़े विरोध के बावजूद धार्मिक, सांप्रदायिक व भावनात्मक मुद्दे ज्यादा नहीं चल रहे.
मतदाता गंगा और वरुणा नदियों में आने वाली बाढ़ की विभीषिका से निजात के अपर्याप्त उपायों की शिकायत कर रहे हैं तो बढ़ती बेरोजगारी की भी. आवारा पशुओं की समस्या की, तो खस्ताहाल सड़कों और अपर्याप्त व गुणवत्ताहीन स्वास्थ्य सुविधाओं की भी.
कहीं-कहीं लोग मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केशवप्रसाद मौर्य के रिश्तों में तनाव, भाजपा की अंतर्कलह और मोदी योगी अंतर्विरोध की बात करते भी दिख रहे हैं.
इस मुद्दे पर भी बात हो रही है कि क्षेत्र में इफको का यूरिया बनाने का देश का सबसे बड़ा कारखाना है, लेकिन जनप्रतिनिधि किसी अन्य बड़ी फैक्ट्री या कारखाने की स्थापना को लेकर प्रयासरत नहीं दिखते. ऐसे में, जानकार कहते हैं कि, चुनाव प्रचार के अंत में जिस पक्ष की ओर भी जनसमर्थन का पलड़ा थोड़ा झुक जाएगा, उसी की विजय हो जायेगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)