धर्मनिरपेक्षता हमेशा से संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा रहा है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट संविधान की प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्षता' और 'समाजवादी' शब्दों को शामिल करने को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सुन रहा है. सुनवाई में एक टिप्पणी करते हुए जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता को हमेशा संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना गया है.

भारतीय संविधान की प्रस्तावना. (फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (21 अक्टूबर) को एक मामले की सुनवाई में मौखिक टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ को हमेशा संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना गया है.

रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को शामिल करने को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी.

मालूम हो कि संविधान की प्रस्तावना में इन शब्दों को 1976 के 42वें संशोधन में शामिल किया गया था. इसमें भारत के विवरण को संशोधित करते हुए ‘संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य’ से ‘संप्रभु, समाजवादी धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य’ में बदल दिया गया. इसके अलाव ‘राष्ट्र की एकता’ शब्द की जगह ‘एकता और अखंडता’ जोड़ दिया गया.

ध्यान रहे कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता अक्सर प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द हटाने की बात करते रहे हैं. मौजूदा याचिकाएं भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी, अश्विनी कुमार उपाध्याय और बलराम सिंह द्वारा दायर की गई हैं.

लाइव लॉ के अनुसार, इस मामले पर सुनवाई करते हुए जस्टिस खन्ना ने मौखिक रूप से कहा कि इस न्यायालय के कई फैसले हैं, जो मानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता हमेशा से संविधान की मूल संरचना का हिस्सा रहा है. यदि कोई संविधान में शामिल समानता के अधिकार और बंधुत्व शब्द के साथ-साथ भाग III के तहत अधिकारों को देखता है, तो एक स्पष्ट संकेत है कि धर्मनिरपेक्ष को संविधान की मुख्य विशेषता के रूप में रखा गया है.

जस्टिस खन्ना ने याचिकाकर्ताओं से सवाल किया, ‘आप नहीं चाहते कि भारत धर्मनिरपेक्ष हो?’

इस पर बलराम सिंह के वकील विष्णु शंकर जैन ने दावा किया कि चुनौती संशोधन को लेकर है और याचिकाकर्ता इस बात पर विवाद नहीं कर रहे हैं कि भारत धर्मनिरपेक्ष है.

अश्विनी उपाध्याय ने यह भी कहा कि भारत हमेशा से धर्मनिरपेक्ष रहा है. वहीं, स्वामी ने दावा किया कि संशोधन मनमाना था क्योंकि प्रस्तावना 1949 की घोषणा थी.

लाइव लॉ के मुताबिक, जस्टिस खन्ना ने यह भी कहा कि संशोधन द्वारा जोड़े गए शब्दों को अलग-अलग कोष्ठक (brackets) द्वारा चिह्नित किया गया है और इसलिए यह सभी के लिए स्पष्ट है कि उन्हें 1976 के संशोधन द्वारा जोड़ा गया.

उन्होंने आगे ये भी बताया कि संशोधन के माध्यम से राष्ट्र की ‘एकता’ और ‘अखंडता’ जैसे शब्द भी जोड़े गए हैं.

इस में अगली सुनवाई नवंबर के तीसरे सप्ताह में की जाएगी.

गौरतलब है कि इस संबंध में साल 2020 में दायर याचिका में कहा गया था कि प्रस्तावना में किया गया संशोधन संवैधानिक सिद्धांतों के साथ-साथ भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विषय-वस्तु के विपरीत था.

इसमें कहा गया है कि संशोधन भारत के महान गणराज्य की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विषय-वस्तु के खिलाफ भी था.

इससे पहले साल 2016 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसी तरह की एक याचिका के जवाब में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को बरकरार रखा था.