क्या गुजरात अब ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ नहीं रहा?

गुजरात चुनाव में जातीय और आर्थिक असमानता की आंच पर ऐसी खिचड़ी पकी, जिसका स्वाद भाजपा को अब कड़वा लग रहा है.

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Kedarnath: Prime Minister Narendra Modi offering prayers at Kedarnath in Uttarakhand on Friday. PTI Photo/ PIB(PTI10_20_2017_000051B)(PTI10_20_2017_000060b)

गुजरात चुनाव में जातीय और आर्थिक असमानता की आंच पर ऐसी खिचड़ी पकी, जिसका स्वाद भाजपा को अब कड़वा लग रहा है.

Kedarnath: Prime Minister Narendra Modi offering prayers at Kedarnath in Uttarakhand on Friday. PTI Photo/ PIB(PTI10_20_2017_000051B)(PTI10_20_2017_000060b)
फाइल फोटो: पीटीआई

2002 में गुजरात में दंगों के बाद हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा और नरेंद्र मोदी ने बड़ी जीत हासिल की थी. इसके बाद से ही गुजरात की पहचान पूरे देश में ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ के रूप में रही है.

भाजपा ने यहां हिंदुत्व के पक्ष में राजनीतिक बहुमत जुटाने के सफल प्रयोग किए और फिर उन्हें सारे देश में आजमाया. इसका सीधा फॉर्मूला था- पहले राज्य की बहुसंख्यक आबादी को हिंदुत्व समर्थकों में तब्दील करना और फिर अल्पसंख्यक मुसलमान आबादी का भय दिखाकर उन्हें जातीय स्तर पर टूटने से रोककर एक बड़े राजनीतिक समुदाय में बदल देना.

भाजपा और उसके पितृसंगठन संघ ने इस फॉर्मूले को अजेय बताते देश के कई राज्यों में आजमाया. राजनीतिक विश्लेषकों ने भी दावा किया कि मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनाने में इसी प्रयोगशाला से निकले फॉर्मूले का महत्वपूर्ण योगदान रहा है.

हालांकि हिंदुत्व की सफल प्रयोगशाला बनने के करीब डेढ़ दशक बाद गुजरात में एक बार फिर चुनाव हुए हैं. इस चुनाव में जो परिणाम आए हैं उससे कुछ बातें साफ हुई हैं. पहला, भाजपा ने जीत हासिल की है.

दूसरा, कांग्रेस बाजी पलट पाने में असफल रही है. तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण यह कि गुजरात की जनता ने हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनने से इनकार कर दिया है.

तीसरा पहलू इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि भाजपा ने इस चुनाव में भी गुजरात को प्रयोगशाला बनाने की तमाम कोशिशें की. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत पूरे भाजपा ने औरंगजेब, पाकिस्तान, गद्दार, मंदिर, मीरजाफर, जयचंद जैसे शब्दों का बखूबी प्रयोग किया. लेकिन इसके बावजूद वह गुजरात की समस्त जातियों को हिंदुत्व के झंडे तले एकजुट करने में नाकाम रही.

इस चुनाव में तीन युवा नेताओं अल्पेश ठाकोर, हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी ने नरेंद्र मोदी और संघ के हिंदुत्व संबंधी पहचान को कड़ी टक्कर दी है.

हिंदुत्व की प्रयोगशाला बने राज्य में ही इन तीनों युवा नेताओं ने जातीय और आर्थिक असमानता की आंच पर ऐसी खिचड़ी पकाई जिसका स्वाद भाजपा को अब कड़वा लग रहा है.

इसकी बानगी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के गुजरात चुनाव के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं को दिए गए भाषणों में साफ देख सकते हैं. 150 सीटों का लक्ष्य बनाकर मैदान में उतरे भाजपा अध्यक्ष और प्रधानमंत्री कार्यकर्ताओं को जीत की बधाई देने के साथ-साथ ही जातीय चुनौतियों से लड़ने का पाठ भी पढ़ा गए.

इस विधानसभा चुनाव में भाजपा तीन अंकों में नहीं पहुंच पाई है. जीत के लिए जरूरी आंकड़ा पाने में वह सफल रही है लेकिन यह एक तरह से उसकी नैतिक हार है. कई सीटों में उसे बहुत कम अंतर से जीत हासिल हुई है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताबड़तोड़ रैलियों के साथ पूरे कैबिनेट ने गुजरात में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. चुनाव आयोग का कथित लाभ लेने, गुजराती अस्मिता से लेकर जातीय कार्ड और पाकिस्तान तक को इस चुनाव में शामिल करने वाली भाजपा के हाथ बस महज जीत लगी.

गुजरात की एक रैली में भाजपा समर्थक (पीटीआई)
गुजरात की एक रैली में भाजपा समर्थक (पीटीआई)

इस चुनाव में इस युवा तिकड़ी ने इस भ्रम को भी तोड़ दिया कि गुजरात भाजपा का वह अजेय दुर्ग है जिसमें सेंध नहीं लगाई जा सकती है. वह भी बिना किसी बड़े राजनीतिक कौशल या संसाधन का सहारा लिए बगैर.

अल्पेश ठाकोर ने गुजरात में पिछड़ी जातियों को एकजुट किया, जो देश के बाकी ज्यादातर राज्यों की तरह यहां भी मतदाताओं की बड़ी आबादी है. वे गुजरात में पिछड़ी जातियों के उन आकांक्षाओं के प्रतीक बनकर उभरे जिनका दम हिंदुत्व की प्रयोगशाला में घुट रहा था.

कुछ ऐसा ही हार्दिक पटेल के साथ रहा. वे बहुत प्रगतिशील न होते हुए भी बहुसंख्यक पाटीदार समुदाय की आशाओं के प्रतीक बन गए. हार्दिक के नेतृत्व की खासियत यह रही कि उन्होंने अपने आंदोलन को पाटीदारों की मांग तक सीमित रखा. उसे दलितों या पिछड़ों के खिलाफ टूल के रूप में इस्तेमाल नहीं होने दिया.

इसी तरह जिग्नेश की बेहतर राजनीतिक समझ का परिचय दिया. गुजराती समाज में जातीय अंतर्विरोध की जो बेहतर समझ उनके पास थी. उसे उन्होंने राजनीतिक संभावना में बदल दिया.

गुजरात में जुलाई 2016 में ऊना में जानवरों की खाल उतार रहे चार दलित लड़कों की कथित गोरक्षकों द्वारा बर्बर पिटाई के बाद जिग्नेश मेवानी ने दलित आंदोलन का नेतृत्व किया था. इसके बाद वे पूरे गुजरात में दलित आंदोलनों का चेहरा बन गए.

गुजरात के उना में दलित समुदाय के कुछ लोगों को मरी हुई गाय की खाल उतारने की वजह से सरेआम पिटाई की गई थी.
बीते साल ऊना में दलित समुदाय के कुछ लोगों को मरी हुई गाय की खाल उतारने की वजह से सरेआम पीटा गया था. (फाइल फोटो: वीडियो स्क्रीनशॉट)

इन सबमें कांग्रेस का योगदान बस इतना रहा कि उसने जनसाधारण के बीच से निकले इन युवा तुर्कों की संभावना को समझा और राहुल गांधी ने इनकी राजनीति को नेतृत्व देने की दूरदर्शिता और साहस दिखाई.

फिलहाल चुनाव परिणामों ने यह साफ किया है कि पिछले दो दशकों से प्रयोगशाला बने गुजरात ने हिंदुत्व और नवआर्थिकी नीतियों से बदहाल हो रहे जातीय समूहों की आकांक्षाओं को जोड़ते हुए ऐसा परिणाम दिया है जिसकी संभावना किसी को नहीं थी.

आने वाले दिनों में गुजरात के चुनाव परिणाम से निकली यह संभावना राजनीति की नई इबारत लिखेगी.