नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (22 अक्टूबर) को मदरसों, वैदिक स्कूलों और बौद्ध मठों जैसे संस्थानों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि अनेक संस्कृतियों और धर्म वाले देश में ऐसे संस्थानों को संवैधानिक सिद्धांतों के लिए खतरे के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, शीर्ष अदालत ने मंंगलवार को एक बार फिर इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई की, जिसमें उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम 2004 को असंवैधानिक घोषित किया गया था. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है.
सुनवाई के दौरान भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) धनंजय वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि इन संस्थानों को विनियमित करना और यह सुनिश्चित करना राज्य की जिम्मेदारी है कि बच्चों को धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा भी मिले, जो आखिर में राष्ट्रीय हित में है.
मालूम हो कि इस पीठ में सीजेआई के साथ ही जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी शामिल हैं.
अदालत ने मदरसों के संबंध में कहा, ‘आखिरकार, हमें इसे देश के व्यापक दायरे में देखना होगा. धार्मिक निर्देश सिर्फ मुसलमानों के लिए नहीं हैं. यह हिंदुओं, सिखों, ईसाइयों आदि में भी है. देश में संस्कृतियों, सभ्यताओं और धर्मों का मिश्रण होना चाहिए. आइए हम इसे इसी प्रकार संरक्षित रखें.’
पीठ ने आगे कहा कि मदरसा प्रणाली के पाठ्यक्रम में खामियों से पूरा अधिनियम अमान्य नहीं होना चाहिए. राज्य के पास इन कमियों को दूर करने के लिए मौजूदा कानूनों के तहत व्यापक शक्तियां हैं.
अदालत ने इस पर भी ज़ोर दिया कि धार्मिक शैक्षणिक संस्थान भारतीय समाज के व्यापक ढांचे के भीतर संचालित होते हैं और उन्हें केवल इसलिए खारिज नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वे धार्मिक शिक्षा देते हैं. अदालत ने चेतावनी दी कि मदरसों को सिर्फ धार्मिक संस्थान होने के चलते बंद किया जाएगा, तो वेद और उपनिषद जैसे हिंदू धर्मग्रंथ पढ़ाने वाले संस्थानों सहित ऐसे सभी संस्थानों को बंद करना होगा, जो धार्मिक निर्देश देते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘याद रखें, इस मामले में और इस्लाम के संदर्भ में हम जो निर्णय लेंगे वह देशभर के सभी धर्मों, वैदिक पाठशालाओं से लेकर बौद्ध मठों और जैन स्कूलों सभी पर लागू होगा…’
ज्ञात हो कि सोमवार को भी इस मामले पर सुनवाई हुई थी. ऐसे में मंगलवार को लगातार दूसरे दिन पीठ ने मुख्य रूप से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) केएम नटराज की दलीलें सुनीं, जो उत्तर प्रदेश सरकार और बाल अधिकार संरक्षण आयोग की ओर से पेश हुए थे.
इस मामले में वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी, मुकुल रोहतगी, सलमान खुर्शीद, मेनका गुरुस्वामी और एमआर शमशाद इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले का विरोध करने वाले याचिकाकर्ताओं की पैरवी की.
एएसजी नटराज ने अपनी दलीलों में कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार का आज भी वही रुख है, जो इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष था. सरकार मदरसा अधिनियम का समर्थन करती है और इसलिए मदरसा एक्ट को पूरी तरह रद्द करने का फैसला ठीक नहीं है. एक्ट के सिर्फ उन प्रावधानों की समीक्षा होनी चाहिए जो मौलिक अधिकारों के खिलाफ हैं, एक्ट को पूरी तरह खारिज करना उचित नहीं है.
इस पर पीठ ने कहा कि एक राज्य के रूप में, आपके पास शिक्षा की बुनियादी गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए व्यापक शक्तियां हैं. कोई भी उस शक्ति से इनकार नहीं करता, कोई भी आपको शक्ति से वंचित नहीं कर सकता. आपने हाईकोर्ट में यही कहा था.
ज्ञात हो कि 2004 में मदरसा अधिनियम तत्कालीन सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) सरकार द्वारा लागू किया गया था.
मदरसों का विरोध करने वाले पक्षों में से एक की ओर से पेश वरिष्ठ वकील गुरु कृष्णकुमार ने तर्क दिया कि ये अधिनियम धर्मनिरपेक्ष शिक्षा सुनिश्चित नहीं करता है और ज्यादातर धार्मिक अध्ययन पर केंद्रित है. उन्होंने कहा कि मान्यता के लिए एक विशेष समुदाय की धार्मिक संस्था को अलग करना असंवैधानिक है.
हालांकि, पीठ इससे सहमत नहीं थी. इसमें हिंदू, बौद्ध और इस्लामी परंपराओं सहित विभिन्न धर्मों की धार्मिक शिक्षा के ऐतिहासिक संदर्भ का उल्लेख किया गया और कहा गया है कि उनके ऐतिहासिक और सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व को नकारा नहीं जा सकता है.
पीठ ने मदरसों और अन्य धार्मिक संस्थानों के बीच तुलना करते हुए इस बात पर प्रकाश डाला कि धार्मिक शिक्षा से संबंधित मुद्दे किसी एक समुदाय के लिए अनोखे नहीं हैं. सभी धार्मिक शैक्षणिक संस्थानों में विनियमन की व्यापक आवश्यकता है, जिससे छात्र आधुनिक दुनिया के साथ कदम मिला सकें. अदालत ने आगे कहा कि उच्च न्यायालय के फैसले को मान्य करने का मतलब ऐसे संस्थानों की निगरानी का पूर्ण अभाव होगा.
एनसीपीसीआर की ओर से वरिष्ठ वकील स्वरूपमा चतुर्वेदी ने तर्क दिया कि अगर मदरसा शिक्षा स्कूली शिक्षा का पूरक है तो एनसीपीसीआर को कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन यह एक विकल्प नहीं हो सकता है.
पीठ ने सवाल किया कि क्या एनसीपीसीआर ने चतुर्वेदी के दावे के बाद अन्य धर्मों के संस्थानों के खिलाफ भी इसी तरह का रुख अपनाया है.
मालूम हो कि एनसीपीसीआर ने मदरसा प्रणाली की कमियों पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी और राज्यों को उनका निरीक्षण करने के लिए लिखा था.
पीठ ने सवाल किया, ‘क्या एनसीपीसीआर ने सभी समुदाय के लोगों को हिदायत दी है कि अपने बच्चों को किसी मठ, पाठशाला में न भेजें… क्या एनसीपीसीआर ने एक निर्देश जारी किया है कि जब बच्चों को इन संस्थानों में भेजा जाए, तो उन्हें विज्ञान, गणित आदि पढ़ाया जाना चाहिए? आपको केवल मदरसों की ही चिंता क्यों है? हम जानना चाहेंगे कि क्या आपने अन्य संस्थानों के साथ बातचीत की है. क्या एनसीपीसीआर का सभी समुदायों के प्रति व्यवहार समान रहा है?’
इस पर चतुर्वेदी ने निर्देश प्राप्त करने के लिए समय मांगा और एक अतिरिक्त बयान दाखिल करने की बात कही.
उच्च न्यायालय के फैसले की आलोचना करते हुए रोहतगी ने तर्क दिया कि अल्पसंख्यक छात्रों को उनके अधिकारों से वंचित करना धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के विपरीत है. उन्होंने कहा कि छात्रों को मुख्यधारा की शिक्षा के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए.
सीजेआई ने जवाब में कहा, ‘धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है – जियो और जीने दो.’
गौरतलब है कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम का पालन नहीं करने वाले सरकारी सहायता प्राप्त मदरसों को बंद करने की सिफारिश की थी, जिसके ख़िलाफ़ जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने शीर्ष अदालत का रुख़ किया था.
सोमवार को हुई सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) द्वारा जारी उन सिफारिशों पर फिलहाल रोक लगा दी थी, जिसमें शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम का पालन नहीं करने वाले सरकारी सहायता प्राप्त मदरसों को बंद करने की बात कही गई थी.
अदालत ने यह भी आदेश दिया था कि इस मामले में केंद्र, उत्तर प्रदेश और त्रिपुरा सरकार के आगामी निर्देशों पर भी कार्रवाई नहीं की जाएगी, ये आदेश स्थगित रहेंगे.