अयोध्या: हिंदी के सुपरिचित कवि व संपादक प्रो. सदानंद शाही इन दिनों ‘साखी’ (पत्रिका) और प्रेमचंद साहित्य संस्थान (गोरखपुर) के तत्वावधान में ‘चरथ भिक्खवे’ (बुद्ध जिस पथ पर गए, उस पर चलना) नाम की सचल कार्यशाला व साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्रा निकाल रहे हैं. गत 15 अक्टूबर को सारनाथ (बुद्ध के प्रथम उपदेश और धम्मचक्र प्रवर्तन के स्थल) से शुरू हुई यह यात्रा समूचे बौद्ध परिपथ से होती हुई आगामी 25 अक्टूबर को सारनाथ में ही संपन्न होगी.
इस क्रम में यह बोध गया (बुद्ध के प्रथम उपदेश व धर्मचक्र प्रवर्तन स्थल), बोधगया (जहां बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ), नालंदा (बुद्ध का यात्रा स्थल जो अशोक के काल से बौद्ध मठों का केंद्र है), राजगीर (अट्ठमहाथानों में से एक, जहां बुद्ध ने पागल हाथी को शांत किया), पटना ( जहां बुद्ध ने अपनी अंतिम यात्रा में गंगा तट- गौतम घाट- पर विश्राम किया), वैशाली( जहां बंदर ने बुद्ध को मधु अर्पित किया और द्वितीय बौद्ध संघ हुआ), केसरिया (जहां बुद्ध ने भिक्षापात्र दान किया और अंतिम उपदेश दिया), कुशीनगर ( बुद्ध का महापरिनिर्वाण स्थल), लुम्बिनी (बुद्ध का जन्म स्थान), कपिलवस्तु ( बुद्ध का बाल्यकालीन निवास), श्रावस्ती (बुद्ध के 26 वर्षाकाल का स्थल, जहां उनकी डाकू अंगुलिमाल से भेंट हुई), अयोध्या (साकेत) और कौशांबी (ज्ञान प्राप्ति के छठें व नवें वर्ष में बुद्ध के उपदेशों का केंद्र) से होकर गुजरेगी. इसमें गगन गिल, रंजना अरगडे, अरुण कमल, अनामिका, स्वप्निल श्रीवास्तव और रणेन्द्र समेत देश के अनेक बुद्धिजीवी, कवि-कथाकार, कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ता, संस्कृतिकर्मी और समाजविज्ञानी वगैरह शामिल हो रहे हैं.
गत दिनों इस यात्रा के उद्देश्यों और कार्यक्रमों पर प्रो. सदानंद शाही से लंबी बातचीत की. यहां उसके कुछ अंश प्रस्तुत हैं:
इस यात्रा की जरूरत क्यों महसूस हुई आपको? मेरा मतलब है कि इसके पीछे आपका मक़सद क्या है?
मकसद तो साफ कहूं तो उसी बात को आगे बढ़ाना है, जो महावग्ग, विनयपिटक में कही गई है: ‘चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकंपाय…’ (भिक्षुओं! बहुजन के हित के लिए, बहुजन के सुख के लिए और संसार को सुख पहुंचाने के लिए निरंतर भ्रमण करते रहो.)
मुझे लगता है कि हिंदी प्रदेशों में बड़े पैमाने पर जो सामाजिक-सांस्कृतिक पिछड़ापन जड़ें जमाए हुए हैं, उसका समुचित प्रतिकार इसी तरह की यात्राओं से किया जा सकता है क्योंकि इन्हीं से ऐसे व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की राह खुल सकती है, जो इस अंचल कहें या समूची हिंदी पट्टी के पिछड़ेपन से मुक्ति के लिए बहुत जरूरी है.
काश, इस पिछड़ेपन से मुक्ति संभव हो पाती!
मेरा ख़याल है कि किसी भी मुक्तिकामी सामाजिक परिवर्तन के लिए एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ज़रूरत होती ही होती है. मेरे निकट यह यात्रा इसी का एक उपक्रम है. मुझे लगता है कि इस अंचल में सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए बुद्ध ही सबसे प्रेरक व्यक्तित्व हैं. एक और बात है, भावना से जुड़ी हुई, जो मैंने अपनी एक कविता में भी कही है: मैं जिस धरती पर चलता हूं/उस पर बुद्ध के कदमों की छाप है/ जब तब/ लगता है/ अभी-अभी/ यहीं कहीं से गुज़रे हैं बुद्ध/ जब भी चलता हूं/ मेरे साथ-साथ चलते हैं बुद्ध.
आपसे इस भावना का थोड़ा और विस्तार करने को कहूं तो?
मैं वही कहूंगा जो इस यात्रा के लिए छापे गए ब्रोशर में इतिहास के युवा अध्येता रमाशंकर सिंह ने लिखी है: चरथ भिक्खवे यात्रा भौतिक के साथ आंतरिक यात्रा भी है. मनुष्य के बनने की कहानी अत्यंत रोचक और प्रेरणादायक है. उसकी वर्तमान और वैचारिक उपलब्धियां यात्राओं की देन हैं. यात्राओं के क्रम में उसने पानी के बेहतर स्रोत और खाने योग्य सामग्रियां खोजीं. एक जगह से दूसरी जगह तक जाने और रात में अपने डेरे पर लौट आने या शाम हो जाए, तो वहीं डेरा बना लेने की प्रवृत्ति ने उसकी दुनिया बदल दी. प्रत्येक दिन पिछले दिन से ज्यादा चलने लगा. धीरे-धीरे चलने में एक सलीका आ गया. चलना, फिर सुस्ताना और फिर चल पड़ना- इसने यात्रा के शिल्प को जन्म दिया. इससे अछूती धरती पर चारों तरफ़ रास्ते बनने शुरू हुए. इन रास्तों पर मनुष्य ने अकेले में और समूह में चलना सीखा.
समूह में चलने के कारण उसके अंदर का भय निकल गया. उसके जीवन में मनुष्य होने का सहज सामूहिक उल्लास आया. इसी सामूहिकता से गीत, कविता और गाथाओं ने जन्म लिया. सयाने और ज्ञानी मनुष्य का विकास हुआ और मनुष्यता आगे बढ़ी.
यात्राओं के इसी महत्व को रेखांकित करते हुए कभी वरिष्ठ कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने कहा था: कुछ लिख के सो, कुछ पढ़ के सो/ तू जिस जगह जागा सवेरे उस जगह से बढ़ के सो.
पिछले वर्षों में आपने ‘बुद्ध की धरती पर कविता’ नाम से चर्चित कार्यक्रम किए हैं. यह यात्रा उसी की अगली कड़ी है या…?
कम से कम उन कार्यक्रमों की प्रेरणा तो इसके पीछे है ही. हमने उस श्रृंखला में कुशीनगर-2019, लुम्बिनी-2020, बोधगया -2022, सारनाथ-2023 और कुशीनगर-2023 जैसे कार्यक्रम किए तो उनमें सहृदयों व विचारशीलों की अप्रत्याशित अयाचित भागीदारियों से हमारा हौसला बहुत बढ़ा. हमें लगा कि जैसा हम सोच रहे हैं, बहुत से दूसरे लोग भी कुछ वैसा ही सोच रहे हैं और इस लिहाज से हम जो कुछ भी कर पा रहे हैं, उसके अनसुना रह जाने का कोई अंदेशा नहीं है.
इसी एहसास से भरकर हमने इस यात्रा में परस्पर विचार-विमर्श का प्रमुख विषय यह रखा है कि हम कब तक बुद्ध के करुणा, प्रेम, मैत्री और संवाद जैसे श्रेष्ठ विचारों का निर्यात करके खुश होते रहेंगे? खुद भी उनका प्रयोग करेंगे या अपना श्रेष्ठ दूसरों को लेकर हमेशा कमतर से ही अपना काम चलाते रहेंगे?
आपको लगता है कि इस सवाल का जवाब मिल पाएगा?
फिलहाल, निराश होने का मुझे कोई कारण नहीं दिखता. लेकिन जवाब न मिले तो भी आज की स्थिति में हमें इस सवाल पर विचार करना इसलिए बहुत ज़रूरी लगता है कि बैर-विरोध से भरी होने के बावजूद आधी से ज्यादा दुनिया भारत के सामने इसलिए नतमस्तक होती है कि यह राजकुमार सिद्धार्थ गौतम की जन्मभूमि व कर्मभूमि है, जिन्होंने मैत्री, प्रेम, करुणा और विश्वबंधुत्व को मनुष्य की पहचान के रूप में देखा.
हां, जवाब मिलना मुश्किल हो तो सवाल से जूझना और जरूरी हो जाता है. उसे छोड़ देने से तो समस्याएं और जटिल ही होती हैं.
आपकी चिंता को समझा जा सकता है, लेकिन क्या इस यात्रा से इसका समाधान हो सकेगा?
काश, कोई एक यात्रा हमें ऐसे समाधान तक ले जा सकती!
भाई, इतना अज्ञानी नहीं हूं मैं कि इतना भी न समझूं कि ऐसे समाधान तक पहुंचाने के लिए इस तरह की कई-कई यात्राएं भी कम पड़ सकती हैं. लेकिन कभी किसी यात्रा से लौटिए / तो लगता है / कि आप वही नहीं लौटे हैं / जो गए थे / कुछ का कुछ हो गए हैं/कभी कोई किताब आती है / और चुपचाप बदल देती है / आपके होने को /कभी कोई आवाज़ / कभी संगीत की कोई तान / कभी कोई दृश्य / कभी कोई चित्र / कभी कोई भाव / कभी कोई विचार / मन को छू लेता है / और कंचन कर देता है / आप भूल जाते हैं / अपना पता/ अपना ठिकाना /वह सब भूल जाते हैं /जिसे भूल जाना चाहिए.
मुझे इतनी उम्मीद तो है कि इस यात्रा में शामिल होने वालों को भी इससे लौटने पर कुछ ऐसा एहसास होगा. वे जिसे भूल जाना चाहिए, वह सब भूल जाने की दिशा में ऐसी और यात्राओं की बाबत सोच सकेंगे.
इस विडंबना की समाप्ति के प्रति भी कि एक ओर बुद्ध के विचार पूरी दुनिया को आकृष्ट कर रहे हैं और दूसरी ओर वे उनकी जन्मभूमि में ही सिकुड़ते जा रहे हैं. हालांकि बोधि प्राप्ति के बाद वे आधी शताब्दी तक इसी अंचल में विचरण करते रहे और यहां की भौतिक सच्चाइयों से टकराते हुए ही उनके विचार अस्तित्व में आए.
(कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं.)