उन्नीसवीं सदी में भारत ने कई महान सपूत पैदा किए जो न सिर्फ अपने देश की आज़ादी के लिए लड़े बल्कि तमाम तरह के शोषण के ख़िलाफ़ और समतामूलक समाज बनाने में अपने आप को ‘होम’ कर दिया. ऐसे ही एक महान सपूत और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे आचार्य नरेंद्र देव. इस 31 अक्टूबर को असाधारण और विलक्षण प्रतिभा के धनी भारत के प्रमुख बुद्धिजीवी, शिक्षाविद, लेखक, पत्रकार, साहित्यकार, विधायक एवं सांसद रहे आचार्य नरेंद्र देव की 135वीं जयंती थी.
आचार्य नरेंद्र देव को भारतीय समाजवाद का पितामह कहा जाता है. 1934 में आचार्य ने कांग्रेस पार्टी के अंदर ‘कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी’ की स्थापना की और उसके पहले सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गए. कांग्रेस से बाहर आने पर 1949 में सोशलिस्ट पार्टी के पटना सम्मेलन की अध्यक्षता भी आचार्य ने ही की और बाद में 1954 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष चुने गए.
समाजवादी आंदोलन में आचार्य नरेंद्र देव का वही स्थान रहा है जो एक परिवार में मुखिया का होता है. सौम्य व्यक्तित्व, शालीन आचरण और प्रांजल भाषा, चेहरे से टपकती ममता, करुणा और प्यार. देश को स्वतंत्र कराने का जुनून उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन में खींच लाया और भारत की आर्थिक दशा व गरीबों की दुर्दशा ने उन्हें समाजवादी बना दिया.
हिंदी, उर्दू, फारसी, बांग्ला, संस्कृत, प्राकृत, पाली, जर्मन, फ्रेंच और अंग्रेजी भाषाओं के जानकार आचार्य जी का अध्ययन अत्यंत विशाल और अध्यापन शैली अत्यंत सरल थी. बौद्ध दर्शन के अध्ययन में आचार्य जी की विशेष रुचि रही. नैतिक व्यवस्था की स्थापना में नास्तिक नरेंद्र देव धर्म की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते थे, इसलिए उन्होंने धार्मिक शिक्षा को भी महत्वपूर्ण माना.
आजीवन वे बौद्ध दर्शन का अध्ययन करते रहे. अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘बौद्ध-धर्म-दर्शन’ उन्होंने पूरा किया और ‘अभिधर्मकोश’ भी प्रकाशित कराया. साथ ही ‘अभिधम्मत्थसंहहो’ का हिंदी अनुवाद भी किया. प्राकृत तथा पाली व्याकरण हिंदी में तैयार किया. बौद्ध दर्शन के पारिभाषिक शब्दों के कोश का निर्माण कार्य भी उन्होंने शुरू किया था. अपने जीवन के अंतिम दिनों में आचार्य जी ने पेरुंदुराई में एक व्याख्यात्मक कोश भी बनाया था, किंतु उनके आकस्मिक निधन से यह काम पूरा न हो सका.
इतिहास, दर्शन, समाजशास्त्र, राजनीति, संस्कृति, भाषा आदि के संदर्भ में उनकी अपनी विशिष्ट सोच थी. उनकी बौद्धिक प्रखरता और पांडित्य से प्रभावित होकर ही उनके एक अन्यतम साथी श्रीप्रकाश ने उन्हें ‘आचार्य’ कहना शुरू कर दिया था.
राजनीति के साथ-साथ वे इतिहास, समाजशास्त्र और शिक्षाशास्त्र के भी विद्वान थे. सच्चे अर्थों में वे एक शिक्षक ही थे. जवाहरलाल नेहरू के कहने पर वे काशी विद्यापीठ में 1921 में अध्यापन करने लगे और बाद में उसके कुलपति भी बने. विद्यापीठ में सेवाकाल को अपनी अक्षुण्ण पूंजी स्वीकारते हुए, उन्होंने अपने ‘संस्मरणों’ में लिखा है:
‘मेरे जीवन में सदा दो प्रवृत्तियां रही हैं- एक पढ़ने-लिखने की और, दूसरी राजनीति की, और इन दोनों में संघर्ष रहता है. यदि दोनों की सुविधा एक साथ मिल जाए तो मुझे बड़ा परितोष रहता है और यह सुविधा मुझे विद्यापीठ में मिली. इसी कारण वह मेरे जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा है जो विद्यापीठ की सेवा में गुज़रा. अपनी जिंदगी पर एक निगाह डालने से मालूम होता है कि जब मेरी आंखें मुंदेंगी तो मुझे एक परितोष होगा कि जो काम मैंने विद्यापीठ में किया वह स्थायी है.’
काशी विद्यापीठ में अध्यापन करने के बाद वे 1947 से 1951 तक लखनऊ विश्वविद्यालय और 1951 से 1953 तक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे. एक अध्यापक के तौर पर वे मार्क्सवाद और बौद्ध दर्शन की ओर उन्मुख हुए. लोकतांत्रिक समाजवाद के सिद्धांतकार आचार्य नरेंद्र देव राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ चिंतक और मनीषी भी थे.
1920 में कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्होंने वकालत छोड़ दी. महात्मा गांधी का सानिध्य उनके लिए युगांतकारी सिद्ध हुआ और स्वाधीनता आंदोलन के दौरान वे कई बार जेल गए. वे समाजवाद के सूत्रधार बने और उसके सिद्धांत के रचनाकार भी. समाजवादी विचारों के प्रचार-प्रसार हेतु उन्होंने लखनऊ से ‘संघर्ष’ (साप्ताहिक) पत्रिका का संपादन किया और ‘जनवाणी’ के जरिये शिक्षण पद्धति और शिक्षकों की स्थिति का विवेचन किया.
आचार्य जी ने ‘विद्यापीठ’ त्रैमासिक पत्रिका, ‘समाज’ त्रैमासिक और ‘समाज’ साप्ताहिक पत्रों का संपादन भी किया. इनमें जो लेख, टिप्पणियां वगैरह समय-समय पर प्रकाशित हुए उनके संग्रह हैं: ‘राष्ट्रीयता और समाजवाद’, ‘समाजवाद-लक्ष्य तथा साधन’ (भाषण संग्रह) ‘राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास’, ‘समाजवाद और राष्ट्रीय क्रांति’, ‘सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद’, ‘भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास’, ‘युद्ध और भारत’, ‘किसानों के सवाल’ आदि.
इसके अलावा उन्होंने अपनी राजनीतिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार और नई संस्कृति के आवाहन के लिए संपादक का दायित्व ओढ़ते हुए राष्ट्रीय पत्रकारिता को भी गति प्रदान की. वे ‘जनवाणी, ‘संघर्ष’, ‘जनता, ‘समाज’ आदि पत्रिकाओं के संपादन और प्रकाशन से भी जुड़े रहे.
आचार्य जी मूलतः मार्क्सवादी समाजवादी थे और चिंतन-पद्धति के रूप में मार्क्सवाद को मानने थे. आचार्य जी ने एक मौके पर कहा भी कि वे पार्टी छोड़ सकते हैं पर मार्क्सवाद नहीं. वे मार्क्सवाद और भारत की पराधीन दुनिया के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में कोई विरोध नहीं देखते थे. वैसे ही वे किसान और मजदूरों की क्रांतिकारी शक्ति के बीच विरोध नहीं, बल्कि परस्पर पूरकता देखते थे.
वे कृषि क्रांति को समाजवादी क्रांति से जोड़ने के पक्षधर थे. इसीलिए उन्होंने काफ़ी समय किसान राजनीति को दिया. किंतु वे बराबर कहा करते थे कि इस युग की दो मुख्य प्रेरणाएं राष्ट्रीयता और समाजवाद हैं और राष्ट्रीय परिस्थितियों और आकांक्षाओं की दृष्टि से ही समाजवाद का अर्थ बताने पर जोर देते रहे. भारत में समाजवाद को राष्ट्रीयता और किसानों के सवाल से जोड़ना, आचार्य जी की भारतीय समाजवाद को एक स्थायी देन है.
अपनी पुस्तक ‘समाजवाद: लक्ष्य और साधन’ में वे कहते हैं,
‘समाजवाद का ध्येय वर्गहीन समाज की स्थापना है. समाजवाद प्रचलित समाज का इस प्रकार का संगठन करना चाहता है कि वर्तमान परस्पर विरोधी स्वार्थ वाले शोषक और शोषित, पीड़क और पीड़ित वर्गों का अंत हो जाए; वह सहयोग के आधार पर संगठित व्यक्तियों का ऐसा समूह बन जाए जिसमें एक सदस्य की उन्नति का अर्थ स्वभावतः दूसरे सदस्य की उन्नति हो और सब मिल कर सामूहिक रूप से परस्पर उन्नति करते हुए जीवन व्यतीत करें.’
आचार्य नरेंद्र देव को देश और दुनिया मार्क्सवादी-समाजवादी तथा बौद्ध दर्शन का प्रखर विद्वान जानती और मानती है. लेकिन आचार्य जी के किसान आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान की जानकारी कम ही लोगों को है.
1920 में असहयोग आंदोलन के दौरान अवध के चार प्रमुख जिलों- रायबरेली, फैजाबाद, प्रतापगढ़ और सुल्तानपुर में किसान आंदोलन तेजी से चला. आचार्य जी ने इस आंदोलन में खुलकर भाग लिया तथा उनके प्रभावशाली भाषण के चलते किसान, आंदोलन में डटे रहे. सरकार ने आंदोलन को दबाने के लिए 7 जनवरी 1921 को मुंशीगंज में गोली चलाई और कई किसान मारे गए. आंदोलन के दौरान किसानों को यह प्रतिज्ञा कराई गई कि वे गैर-कानूनी टैक्स अदा नहीं करेंगे, बेगार-बिना मजदूरी नहीं करेंगे. पलई, भूसा तथा रसल बाजार भाव पर बेचेंगे तथा नजराना नहीं देंगे. बेदखल खेत को कोई दूसरा किसान नहीं खरीदेगा तथा बेदखली कानून मंजूर होने तक सतत संघर्ष चलाएंगे.
1936 में भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई. किसान सभा के गठन में आचार्य जी की महत्वपूर्ण भूमिका थी. इसी वजह से आचार्य जी को 1939 में गया में हुए किसान सभा अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया. आचार्य जी ने जमींदारी उन्मूलन कमेटी को 1947 में लिखे ‘मेमोरेंडम’ में कहा कि जिस तरह से ज़मींदारों ने किसानों को लूटा, खसोटा और चूसा है यदि उसका हिसाब लगाया जाए तो किसानों के ऋण से मुक्त होना जमींदारों के बूते की बात नहीं. ऐसी हालत में जमींदारों को मुआवजा देने का सवाल ही नहीं उठना चाहिए.
सोशलिस्ट पार्टी ने आचार्य जी की प्रेरणा से 25 नवंबर 1949 को लखनऊ में एक विशाल ‘किसान मार्च’ आयोजित किया जिसमें 50 हजार से ज़्यादा किसानों ने भाग लिया. अप्रैल 1952 में आचार्य जी राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए और अपने निधन तक सांसद बने रहे.
आचार्य जी जीवन पर्यन्त दमे के मरीज रहे. इसी रोग के कारण 19 फरवरी, 1956 को मद्रास प्रांत के इरोड में उनका निधन हो गया. उनके निधन पर भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 20 फरवरी 1956 को राज्यसभा में कहा:
‘आचार्य नरेंद्र देव का निधन हममें से कई लोगों के लिए और, मैं समझता हूं, देश के लिए एक महत्वपूर्ण व्यक्ति के जाने से कहीं ज्यादा बड़ी बात है. वे दुर्लभ विशिष्टता वाले व्यक्ति थे- कई क्षेत्रों में विशिष्टता- आत्मा में दुर्लभ, मन और बुद्धि में दुर्लभ, मन की अखंडता में दुर्लभ और अन्यथा. केवल उनका शरीर ही उनसे दूर हुआ है. मुझे नहीं मालूम कि यहां इस सदन में कोई और व्यक्ति ऐसा मौजूद है जो मुझसे ज्यादा समय तक उनके साथ जुड़ा रहा हो. 40 साल से भी पहले हम एक साथ आए थे और हमने आजादी के संघर्ष की धूल और गर्मी में और जेल जीवन की लंबी खामोशी में एक साथ अनगिनत अनुभव साझा किए थे, जहां हमने-मुझे अब याद नहीं-विभिन्न स्थानों(जेलों) पर चार या पांच साल एक साथ बिताए थे, और अनिवार्य रूप से एक-दूसरे को करीब से जानने लगे थे; और इसलिए, हममें से कई लोगों के लिए एक ओर जहां सार्वजनिक तौर पर क्षति की भावना है, वहीं दूसरी ओर निजी तौर पर भी क्षति की भावना है और यह भावना है कि एक असाधारण व्यक्ति चला गया है और उसके जैसा कोई व्यक्ति दोबारा मिलना बहुत कठिन होगा.’
यह भारतीय समाजवाद के पितामह को स्मरण करने का अवसर है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों देश में समाजवादी आंदोलन के इतिहास का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं.)