प्रतिष्ठित लेखक व विद्वान राजीव भार्गव की नवीन पुस्तक ‘राष्ट्र और नैतिकता: नए भारत से उठते 100 सवाल’ एक विचारोत्तेजक निबंध संग्रह है, जो समकालीन भारत के नैतिक और सामाजिक प्रश्नों पर संवाद केलिए प्रेरित करता है.
यह पुस्तक मूल रूप से अंग्रेजी में ‘बिटवीन होप एंड डेस्पेयर: हंड्रेड एथिकल रेफ्लेक्शंस ऑन कंटेम्पररी इंडिया (Between Hope and Despair: 100 Ethical Reflections on Contemporary India) के नाम से लेखक राजीव भार्गव द्वारा लिखी गई थी. इसका प्रकाशन पिछले वर्ष 2023 में ब्लूम्सबरी द्वारा किया गया था. हिंदी अनुवाद राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है और अनुवादक हैं चर्चित पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव.
राजीव भार्गव की लेखन शैली आम साहित्य से अलग है. यह शब्दों की एक कलात्मक संगम है जो बौद्धिक दृष्टि को भावनाओं के साथ सम्मिश्रित करता है. पुस्तक का आरंभ एक महत्वपूर्ण प्रश्न के साथ होता है: क्या भारत की नैतिक पहचान संकट में है?
इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए भार्गव सौ निबंधों के माध्यम से एक आत्म-विश्लेषण की यात्रा शुरू करते हैं, जो स्वतंत्रता और समानता से परिपूर्ण समाज के निर्माण के सपने को समझने की कोशिश करती है, भले ही विविधता के कारण चुनौतियां क्यों न हों!
आज के समय में भारत की सामूहिक नैतिक पहचान गहरे संकट और दबाव का सामना कर रही है. यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि हमारी सामूहिक भलाई किसमें निहित है. इस पर समाज में कोई स्पष्ट आम सहमति नहीं दिखती. देश के एक वर्ग का मानना है कि भारत आखिरकार अपनी मूल हिंदू पहचान को पुनः प्राप्त कर रहा है और एक सशक्त राष्ट्र-राज्य बनने की दिशा में अग्रसर है. उनके अनुसार, यह वह समय है जब हम अपने सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों को पुनर्जीवित कर रहे हैं, और यही भारत को उसकी प्राचीन गौरवशाली परंपरा की ओर लौटाने का मार्ग प्रशस्त करेगा.
वहीं, दूसरी ओर, एक बड़ा वर्ग यह महसूस कर रहा है कि यह बदलाव भारत के उस सभ्यतागत चरित्र के लिए खतरा बन चुका है, जो अपनी समावेशी और बहुलतावादी परंपराओं के लिए जाना जाता रहा है. उनके लिए, भारतीयता का अर्थ मात्र एक धर्म या पहचान तक सीमित नहीं था, बल्कि इसमें विविधता का सम्मान, सभी मतों और विश्वासों के प्रति सहिष्णुता, और विभिन्न समुदायों का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व शामिल था. उनका यह मानना है कि यदि हम इस ध्रुवीकरण के दौर में अपनी इस मूल सांस्कृतिक विशेषताओं को भूल जाते हैं,तो इसका बहुत ही नकारात्मक असर हमारे सामाजिक ताने-बाने पर पड़ेगा.
राजीव भार्गव का दृष्टिकोण इस मुद्दे पर स्पष्ट है. वे मानते हैं कि जो लोग आज के भारत में समावेशी और बहुलतावादी दृष्टिकोण से निराश हो रहे हैं, उनकी चिंताओं का समाधान भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के ढांचे के भीतर ही संभव है. उनकी दृष्टि में भारतीय गणराज्य की स्थापना ही एक समावेशी समाज के निर्माण की दिशा में हुई थी, जहां प्रत्येक व्यक्ति को समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्यों के आधार पर अपनी पहचान और विचारों को अभिव्यक्त करने का अधिकार हो.
अपनी संक्षिप्त, सहज, और सुबोध लेखनी के माध्यम से राजीव भार्गव भारतीय गणराज्य की मूल धारणाओं को पाठकों के सामने सरलता से प्रस्तुत करते हैं. यह पुस्तक कुल दस खंडों में विभाजित है. पुस्तक की शुरुआत में ‘समृद्ध प्रस्तावना’ और आखिर में ‘अनुवादकीय’ विचार भी सम्मिलित है.
लेखक अपने लेखों के माध्यम से यह समझाने की कोशिश करते हैं कि यदि हम अपनी मूल नीतियों, संवैधानिक आदर्शों और नैतिक दृष्टिकोण को सही ढंग से समझ पाते हैं, तो हम समाज में फैली उन विभाजक रेखाओं को मिटाने में भी सफल हो सकते हैं. भार्गव का मानना है कि एक सशक्त लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि समाज में संवाद और बहस का वातावरण बना रहे, जहां हर व्यक्ति की आवाज़ को सुना जाए और उसकी चिंताओं का समाधान खोजा जाए. इसी संवाद के माध्यम से हम अपने देश की एकता और अखंडता को सुरक्षित रख सकते हैं, साथ ही उन दरारों को भी पाट सकते हैं जो हमारे सामाजिक ताने-बाने को लगातार कमजोर करने का काम कर रही हैं.
भार्गव के विचारों की विशेषता यह है कि वे जटिल राजनीतिक और नैतिक प्रश्नों को सरल भाषा में प्रस्तुत करते हैं, ताकि हर पाठक उनकी बात को समझ सके और उस पर चिंतन कर सके. उनका यह विश्वास है कि समावेशी दृष्टिकोण के प्रति एक दृढ़ प्रतिबद्धता और संवैधानिक आदर्शों का पालन ही वह रास्ता है जिससे हम ध्रुवीकरण और सामाजिक विभाजन को रोक सकते हैं.
उनके विचार हमें यह सोचने के लिए प्रेरित करते हैं कि हम किस प्रकार एक बेहतर समाज की स्थापना कर सकते हैं, जहां हर व्यक्ति का सम्मान हो और उसकी गरिमा सुरक्षित रहे.
भार्गव यह तर्क देते हैं कि लोकतांत्रिक समानता को भारत जैसे विविध समाज में लागू करना एक विरोधाभास हो सकता है, फिर भी उनका मानना है कि ‘मानवता को विविधता से कहीं अधिक लाभ होता है बजाय एकरूपता के.’ भारत के भविष्य के लिए उनका दृष्टिकोण इस विश्वास पर आधारित है कि इसके घटक (लोग) लगातार और रचनात्मक संवाद में शामिल रहें. वे कहते हैं कि ‘राष्ट्र’ वही है जहां लोग संवाद करते हैं, और इस संवाद की रक्षा करना अत्यंत आवश्यक है.
पूरे संग्रह में लेखक राजीव भार्गव पाठकों को भारत के भविष्य के निर्माण में सक्रिय भागीदार बनने का आह्वान करते हैं. उनका यह विश्वास है कि भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के ढांचे के भीतर उन लोगों की चिंताओं का समाधान संभव है जो इसके समावेशी आदर्शों से असंतुष्ट हैं. निबंध हमें संस्थानों के महत्व, लोकतंत्र को बनाए रखने में स्वतंत्र अभिव्यक्ति के मूल्य, और लोकतंत्र की असफलताओं के हमारे निजी जीवन पर प्रभाव की भी याद दिलाते हैं.
राजीव भार्गव का मानना है कि ‘हम अनिवार्य रूप से नैतिक प्राणी हैं’ और ‘हम भले या बुरे या सही या गलत की ओर उन्मुख हुए बिना नहीं रह सकते.’
हालांकि, वे इस बात का भी उल्लेख करते हैं कि कैसे भारतीय मध्यम वर्ग ने लंबे समय तक सार्वजनिक रूप से अपने ‘नैतिक मूल्य’ को व्यक्त करने से इनकार किया है. जिसके फलस्वरूप समाज में नैतिक शून्यता की स्थिति उत्पन्न हुई है. पुस्तक यह भी इंगित करती है कि आजकल ‘राष्ट्रविरोधी’ जैसी श्रेणियों का उपयोग करके दूसरों के प्रति नकारात्मक मूल्य निर्णय करना आम हो गया है, जो लोकतंत्र के लिए हानिकारक है.
पुस्तक में कई सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं का उल्लेख किया गया है जो भारत को निराशा की ओर धकेल रहे हैं, उदाहरण के रूप में ‘वैचारिक हिंसा’ और ‘आम जनजीवन में व्याप्त सामाजिक अन्याय’ आदि प्रमुख हैं. लेखक ने उन घटनाओं पर भी गंभीरता से विचार किया है जहां विचारों की अभिव्यक्ति के कारण लोगों को प्रताड़ना और हिंसा का सामना करना पड़ा है.
उत्कृष्ट अनुवाद
अभिषेक श्रीवास्तव का अनुवाद उत्कृष्टता का अनुपम उदाहरण है. उन्होंने राजीव भार्गव के विचारों की गहराई और निबंधों की मूल भावना को हिंदी में बहुत ही सहजता के साथ प्रस्तुत किया है. अनुवाद के दौरान उन्होंने न केवल लेखक के दृष्टिकोण को संरक्षित रखा है, बल्कि भाषा को इतना सरल और प्रवाहमयी बनाया है कि यह हर वर्ग के पाठक के लिए सुलभ हो जाती है.
पुस्तक न केवल भारत के समकालीन नैतिक संकटों पर प्रकाश डालती है, बल्कि यह हर उस भारतीय के लिए एक महत्वपूर्ण पाठ है जो राष्ट्र के भविष्य को समझना और उसमें योगदान देना चाहता है. इसे विभिन्न भाषाओं में अनूदित किया जाना चाहिए ताकि अधिक से अधिक नागरिक इसके विचारों पर चिंतन कर सकें और भारत के सामूहिक सपने की दिशा में आगे बढ़ सकें.
राजीव भार्गव का यह संग्रह एक नैतिक मार्गदर्शिका के रूप में भी काम करता है जो भारत के सामाजिक और राजनीतिक जीवन को समझने में सहायक है.
(आशुतोष कुमार ठाकुर पेशे से मैनेजमेंट प्रोफेशनल हैं.)