आज उपन्यासकार फणीश्वर नाथ रेणु का जन्मदिन है. ये मार्मिक संस्मरण कहानीकार निर्मल वर्मा ने उन्हें याद करते हुए लिखा था. इसे रेणु की पुस्तक ‘ऋणजल धनजल’ में शामिल किया गया है.
मुझे याद है. ये एक लंबा जुलूस था, जो इमरजेंसी से कुछ दिनों पहले दिल्ली में निकाला गया था. जयप्रकाश जी सबसे आगे थे. हज़ारों लोग उनके पीछे उमड़े आ रहे थे. देश के कोने-कोने से लोग जुलूस में शामिल होने के लिए आए थे.
मैं चलते-चलते अपनी पांत भूल गया और अजनबियों के जत्थे में चला आया. साथ चलने वाले सज्जन से पूछा कि वह कहां से आए हैं? ‘बिहार से,’ उन्होंने कहा और तब तुरंत बिना कुछ सोचे हुए मैं उनसे पूछ बैठा, ‘रेणु जी भी आए हैं?’ उन्होंने गदगद दृष्टि से मुझे देखा. ‘नहीं, वह बीमार हैं. आ नहीं सके. आप उन्हें जानते हैं?’
मैं चुपचाप उनके साथ चलने लगा. आप उन्हें जानते हैं? -यह प्रश्न बहुत देर तक मेरे भीतर गूंजता रहा. मैं उनसे केवल दो-तीन बार मिला था, पर आज भी मैं आंखें मूंदकर उनका चेहरा हू-ब-हू याद कर सकता हूं- उनके लंबे झूलते बाल एक संक्षिप्त-सी मुस्कुराहट, जो सहज और अभिजात सौजन्य में भीगी रहती थी.
कुछ लोगों में एक राजसी, ‘अरिस्टोक्रेटिक’ गरिमा होती है, जिसका ऊंचे या नीचे वर्ग से संबंध नहीं होता- वह सीधे संस्कारों से संबंध रखती है. रेणु जी में यह अभिजात भाव एक ‘ग्रेस’ की तरह व्याप्त रहता था.
किन्तु जिस चीज़ ने सबसे अधिक मुझे उनकी तरफ़ खींचा वह उनका उच्छल हल्कापन था. वह छोटे-छोटे वाक्यों में संन्यासियों की तरह बोलते थे और फिर शरमाकर हंसने लगते थे.
उनका ‘हल्कापन’ कुछ वैसा ही था जिसके बारे में चेखव ने एक बार कहा था, ‘कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते-सहते हैं- ऐसे आदमी ऊपर से बहुत हल्के और हंसमुख दिखाई देते हैं. वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते, क्योंकि उनकी शालीनता उन्हें अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती हैं.’
रेणु ऐसे ही शालीन व्यक्ति थे. पता नहीं ज़मीन की कौन-सी गहराई से उनका हल्कापन ऊपर आता था. यातना की कितनी परतों को फोड़कर उनकी मुस्कुराहट में बिखर जाता था- यह जानने का मौका कभी नहीं मिल सका.
वह अब नहीं हैं, मेरे लिए यह अब भी एक अख़बारी अफ़वाह है, जिस पर मैं विश्वास नहीं कर पाता. उनकी मृत्यु अभी तक मेरे लिए सत्य नहीं बनी है. मुझे हैरानी होती है कि उनकी बार-बार बीमारी की ख़बर मुझे इस भयानक ख़बर के लिए तैयार नहीं कर पाई.
हम कुछ मित्रों की बीमारी के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं जैसे उनकी कुछ जानी-पहचानी आदतों के- मृत्यु से उनका संबंध बिठाना असंभव और असहनीय जान पड़ता है. मुझे अपना दुख भी असंभव जान पड़ता है. जिस व्यक्ति को केवल दो-तीन बार देखा था उसके न रहने से मुझे अपनी लिखने की दुनिया इतनी सूनी और सुनसान जान पड़ने लगेगी, मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा था.
अब सोचता हूं तो समझ में आता है कि, हमारी चीज़ों को चाहे बहुत कम लोग पढ़ें किन्तु हम लिखते बहुत कम लोगों के लिए हैं. मैं जिन लोगों को ध्यान में रखकर लिखता था, उनमें रेणु सबसे प्रमुख थे. मैं हमेशा सोचता था, पता नहीं मेरी ये कहानी, यह लेख, उपन्यास पढ़कर वह क्या सोचेंगे.
यह ख्याल ही मुझे कुछ छद्म और छिछला, कुछ दिखावटी लिखने से बचा लेता था. कुछ लोग हमेशा हम पर सेंसर की तरह काम करते हैं- सत्ता का सेंसर नहीं, जिसमें भय और धमकी छिपी रहती है- किन्तु एक ऐसा सेंसर जो हमारी आत्मा और ‘कॉन्शंस’, हमारे रचना-कर्म की नैतिकता से जुड़ा रहता है.
रेणु जी का होना, उनकी उपस्थिति ही एक अंकुश और वरदान थी. जिस तरह कुछ साधु-संतों के पास बैठकर ही असीम कृतज्ञता का अहसास होता है, हम अपने भीतर धुल जाते हैं, स्वच्छ हो जाते हैं, रेणु जी की मूक उपस्थिति हिन्दी साहित्य में कुछ ऐसी ही पवित्रता का बोध कराती थी.
वह समकालीन हिन्दी साहित्य के संत लेखक थे.
यहां मैं संत शब्द उसके सबसे मौलिक और प्राथमिक अर्थों में इस्तेमाल कर रहा हूं- एक ऐसा व्यक्ति जो दुनिया की किसी चीज़ को त्याज्य और घृणास्पद नहीं मानता- हर जीवित तत्व में पवित्रता और सौंदर्य और चमत्कार खोज लेता है- इसलिए नहीं कि वह इस धरती पर उगने वाली कुरूपता, अन्याय, अंधेरे और आंसुओं को नहीं देखता, बल्कि इन सबको समेटने वाली अबाध प्राणवत्ता को पहचानता है; दलदल से कमल को अलग नहीं करता, दोनों के बीच रहस्यमय और अनिवार्य रिश्ते को पहचानता है.
सौदंर्य का असली मतलब मनोहर चीज़ों का रसास्वादन नहीं, बल्कि गहरे अर्थों में चीज़ों के पारस्परिक सार्वभौमिक, दैवी रिश्ते को पहचानना होता है- इसलिए उसमें एक असीम साहस और विवेक तथा विनम्रता छिपी रहती है. इस अर्थ में हर संत- व्यक्ति अपनी अंतर्दृष्टि में कवि और हर कवि अपने सृजनात्मक कर्म में संत होता है.
रेणु जी का समूचा लेखन इस रिश्ते की पहचान है, इस पहचान की गवाही है और यह गवाही वह सिर्फ अपने लेखन में नहीं, ज़िंदगी के नैतिक फ़ैसलों, न्याय और अन्याय, सत्ता और स्वतंत्रता की संघर्ष-भूमि में भी देते हैं.
रेणु जी की इस पहचान में सौंदर्य की नैतिकता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी नैतिक अंतर्दृष्टि की संवेदना. दोनों के भीतर एक रिश्ता है, जिसके एक छोर पर ‘मैला आंचल’ है, तो दूसरे छोर पर है जयप्रकाश जी की सम्पूर्ण क्रांति. दोनों अलग-अलग नहीं हैं- वे एक ही स्वप्न, एक ही लालसा, एक ‘विज़न’ के दो पहलू हैं. एक-दूसरे पर टिके हैं.
कलात्मक ‘विज़न’ और क्रांति दोनों की पवित्रता उनकी समग्र दृष्टि में निहित है, सम्पूर्णता की मांग करती है: एक ऐसी सम्पूर्णता, जो समझौता नहीं करती, भटकती नहीं, सत्ता के टुकड़ों पर या कोरे सिद्धांतों की आड़ में अपने को दूषित नहीं करती. वह एक ऐसा मूल्य है जो खुली हवा में सांस लेता है और इसलिए अंतिम रूप से पवित्र और सुंदर और स्वतंत्र है.
यह आकस्मिक नहीं था कि रेणु जी की इस समग्र मानवीय दृष्टि को अनेक जनवादी और प्रगतिवादी आलोचक संदेह की दृष्टि से देखते थे- कैसा है यह अजीब लेखक, जो ग़रीबी की यातना के भीतर भी इतना रस, संगीत इतना आनंद छक सकता है, सूखी-परती ज़मीन के उदास मरुस्थल में सुरों, रंगों, और गंधों की रासलीला देख सकता है.
सौंदर्य को बटोर सकता है, आंसुओं को परखता है, किन्तु उसके भीतर से झांकती धूल-धूसरित मुस्कान को देखना नहीं भूलता- एक सौंदर्यवादी की तरह नहीं, जो सुंदरता को अन्य जीवित तत्वों से अलग करके उनका रसास्वादन करता है.
रेणु एथीस्ट नहीं थे. किन्तु वह हाय-हाय करते, छाती पीटते प्रगतिशील लोगों के आडंबर से बहुत दूर थे, जो मनुष्यों की यातना को उसके समूचे जीवन से अलग करके अपने सिद्धांतों की लैबोरेटरी में एक रसायन की तरह इस्तेमाल करते हैं.
कितनी बड़ी विडंबना थी कि मार्क्सवादी आलोचक, जिन्हें सबसे पहले रेणु जी के महत्व को पहचानना था, अपने थोथे नारों में इतना आत्मलिप्त हो गए कि जनवादिता की दुहाई देते हुए सीधे अपनी नाक के नीचे जीवंत जनवादी लेखक की अवहेलना करते रहे. किन्तु यहां मैं ग़लत हूं. यह विडंबना नहीं थी.
यह एक ऐसी दृष्टि की भयानक परिणति थी जो एक तरफ अपने को प्रगतिशील घोषित करता था, दूसरी तरफ़ बिहार के जन-आंदोलन को फ़ासिस्ट और जयप्रकाश जी को देशद्रोही करार कर सकती थी: वह दृष्टि जो शब्दों के साथ इतना सिनिकल ढंग से बलात्कार कर सकती है, यदि रेणु जी को प्रतिगामी, सौंदर्यवादी लेखक प्रमाणित करने की कोशिश करे तो हमें क्षोभ अवश्य हो, आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
रेणु जी ने बहुत निकट से मनुष्य की पीड़ा, मजबूरी और ग़रीबी को देखा था, इसलिए वह उसके साथ कोई सैद्धांतिक खिलवाड़ नहीं कर पाते थे. साहित्य में वह ऐसी उम्र में आए थे जब अनेक लेखक बहुत-सी क़िताबें लिख चुके होते हैं. वह अपने साथ अनुभवों की पूरी संपदा लाए थे.
ये अनुभव उनके उपन्यासों में इतने ताज़े और तात्कालिक जान पड़ते हैं कि लगता है कि जैसे इनके पात्रों में मिट्टी के ज़र्रे चिपके हैं, जिन्हें अभी-अभी उन्होंने धरती से निकालकर अपनी कथाओं में पिरोया है.
उन्होंने जिस सूक्ष्म संवेदना और गहरे लगाव से बिहार के एक अंचल पूर्णिया की ज़मीन को कुरेदा था, उसके फैलाव को महीन और मांसल छवियों में ध्वनित किया था, उसके लिए गद्य की भाषा को अप्रत्याशित रूप से काव्यात्मक मुहावरे में ढाला था- वह हिंदी उपन्यास में अभूतपूर्व घटना थी.
अभूतपूर्व इस अर्थ में नहीं कि उनसे पूर्व किसी अन्य लेखक ने अपने गांव या क्षेत्र पर उपन्यास नहीं लिखे थे. अनेक कथाकारों का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने उनसे पहले भी आंचलिक उपन्यास लिखे थे. रेणु का स्थान यदि अपने पूर्ववर्ती और समकालीन आंचलिक कथाकारों से अलग और विशिष्ट है तो वह इसमें है कि आंचलिक उनका सिर्फ परिवेश था, उसके भीतर बहती जीवनधारा स्वयं अपने अंचल की सीमाओं का उल्लंघन, करती थी.
रेणु का महत्व उनकी आंचलिकता में नहीं, आंचलिकता के अतिक्रमण में निहित है. बिहार के एक छोटे भूखंड की हथेली पर उन्होंने समूचे उत्तर भारत के किसान की नियति-रेखा को उजागर किया था. यह रेखा किसान की क़िस्मत और इतिहास के हस्तक्षेप के बीच गुंथी हुई थी, जहां गांधी जी का सत्याग्रह आंदोलन, सोशलिस्ट पार्टी के आदर्श, किसान सभाओं की मीटिंगें अलग-अलग धागों से रेणु का संसार बुनती हैं.
सैकड़ों पात्र आते हैं, जाते हैं- उनकी गति, उनका ठहराव, उनकी ऊहापोह और आत्मसंघर्ष एक पूरी इमेज हम पर अंकित कर जाता है.
सिनेमा के परदे पर हम जैसे आइन्स्टाइन की फिल्मों में व्यक्ति और समूह, चलती हुई भीड़ में स्तब्ध चेहरे और अनेक का गत्यात्मक द्वंद्व हलचल और तनाव देखते है; बिल्कुल जैसे पूर्णिया के परदे पर उसकी पीठिका में हम भारतीय ग्रामवासी और इतिहास के बीच मुठभेड़ और टकराव की गड़गड़ाहट सुनते हैं.
एक ऐसा क्षण आता है जब पात्र और पीठिका में कोई अंतर नहीं रहता- दोनों एक-दूसरे में इतना गुंथ जाते हैं कि मनुष्य, धरती और इतिहास के बीच सीमाएं धुल-सी जाती है किन्तु आपसी मुठभेड़ से जो बिजली चमकती है, बिहार के अवसन्न, धूल भरे आकाश में जो चिनगारी कौंधती है, रेणु ने कैमरे की आंखों से उसे अपनी जीवंत फड़फड़ाती तात्कालिकता में पकड़ने की कोशिश की थी.
यह अद्भुत ड्रामा था! शायद ही किसी हिन्दी उपन्यासकार ने उपन्यास की ‘नरेटिव’ परंपरा को झिंझोड़कर उसे प्रेमचंदीय ढांचे से बाहर निकालकर इतना नाटकीय, इतना लचीला, इतना काव्यात्मक बनाया था जितना रेणु ने.
और यह नाटकीयता, यह कविता अलंकारमय और कृत्रिम नहीं थी, क्योंकि परंपराग्रस्त किसान और आधुनिक ऐतिहासिक आंदोलन के बीच जिस मुठभेड़ को रेणु ने अपना विषय बनाया था. उससे पहले ही बारूदी नाटकीय विद्यमान थे. उनमें सिर्फ़ दियासलाई लगाने की देर थी.
रेणु ने जिस तीली से किसानों के उदास, धूल-धूसरित क्षितिज में छिपी नाटकीयता को आलोकित किया था उसी तीली से हिन्दी के परंपरागत यथार्थवादी उपन्यास के ढांचे को भी एकाएक ढहा दिया था. मेरे विचार से यह रेणु की अविस्मरणीय देन और उपलब्धि है.
‘मैला आंचल’ और ‘परती परीकथा’ महज़ उत्कृष्ट आंचलिक उपन्यास नहीं हैं, वे भारतीय साहित्य के पहले उपन्यास हैं जिन्होंने अपने जमित ढंग से, झिझकते हुए भारतीय उपन्यास को एक नई दिशा दिखाई थी, जो यथार्थवादी उपन्यास के ढांचे से बिल्कुल भिन्न थी.
उन्होंने उपन्यास की नरेटिव, कथ्यात्मक परंपरा को तोड़ा था- उसे अलग ‘एपिसोड’ में बांटा था, जिन्हें जोड़ने वाला धागा कथा का सूत्र नहीं परिवेश का ऐसा लैंडस्केप था जो अपनी आत्यंतिक लय में उपन्यास को रूप और फॉर्म देता है.
रेणु जी के यहां समय में बंधी घटनाएं नहीं, उबड़-खाबड़ ज़िंदगियों की यह लय, यह स्पंदन उपन्यास के हिस्सों को एक-दूसरे से जोड़ता है.
रेणु जी पहले कथाकार थे जिन्होंने भारतीय उपन्यास की जातीय संभावनाओं की तलाश की थी; शायद सहज रूप से कहीं; शिल्प और सिद्धांत के स्तर पर तो अवश्य ही नहीं; बल्कि एक ऐसे रचनात्मक स्तर पर जहां ज़िंदगी का कच्चा माल स्वयं कलाकार के हाथों अपने प्राण, जो फॉर्म का दूसरा काम है, खींच लेता है, ताकि वह एक नए खुले, मुक्त ढांचे में सांस ले सके.
फॉर्म की असली उपलब्धि इसी प्राणवत्ता में निहित है- बाकी सब प्रश्न तकनीकी और शिल्प के हैं. आलोचक की बहस का विषय ज़रूर हों, कथाकार का उनसे कोई नाता नहीं.
मैं रेणु जी की मृत्यु को असामयिक नहीं कहूंगा. हर मृत्यु एक तरह से असामयिक होती है, क्योंकि ज़िंदगी का कारोबार किसी एक बिंदु पर पूरा नहीं होता, किंतु ख़ास इस दौर में- इमरजेंसी की यातना के बाद उनका अचानक हमारे बीच से चले जाना बहुत क्रूर और असहनीय जान पड़ता है. यह उनकी विजय का क्षण था और वह नहीं हैं!