नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले के दौरान इस बात पर ज़ोर दिया है कि जमानत की शर्तें आनुपातिक और उचित होनी चाहिए, जो सीधे तौर पर किसी व्यक्ति की नागरिक स्वतंत्रता को कुचलने के बजाय न्यायिक कार्यवाही सुनिश्चित करती हों.
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, शीर्ष अदालत ने कहा कि जमानत मामलों में न्यायिक विवेक को व्यक्तिगत स्वतंत्रता या नागरिक अधिकार का उल्लंघन किए बिना आपराधिक न्याय प्रणाली के उद्देश्यों को पूरा करना चाहिए.
जस्टिस सीटी रविकुमार और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने स्पष्ट किया कि जमानत का मूल उद्देश्य नागरिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करना नहीं है, न ही अनावश्यक प्रतिबंध लगाना है. इसका असल मकसद मुकदमे के दौरान आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित करना है.
अदालत ने अपने फैसले में इस बात पर जोर दिया कि जमानत के दौरान लगाई गई कोई भी शर्त सीधे तौर पर न्याय को सुविधाजनक बनाने और आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए है. ऐसे में, मामले में हस्तक्षेप करने या न्याय में बाधा डालने से जुड़ी शर्ते ही लगाई जानी चाहिए.
पीठ ने 25 अक्टूबर को दिए अपने फैसले में कहा, ‘जमानत का मूल उद्देश्य जांच और मुकदमे के दौरान आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित करना है, इसलिए जमानत के लिए लगाई गई कोई भी शर्त उचित और सीधे इस उद्देश्य से ही संबंधित होनी चाहिए.’
मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के उस जमानत आदेश के खिलाफ अपील के बाद सामने आया है, जिसमें जमानत के लिए असामान्य रूप से प्रतिबंधात्मक शर्तें लगाई गई थीं.
इस संबंध में हाईकोर्ट द्वारा जुलाई में जारी एक आदेश में अन्य बातों के अलावा आरोपियों को अपने खर्च पर एक विवादित दीवार को गिराने और संपत्ति का कब्जा शिकायतकर्ता को ट्रांसफर करने को भी कहा गया था. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट द्वारा लगाई इन शर्तों को बहुत अधिक पाया और कहा कि ये जमानत के साधारण मापदंडों से अधिक है, जो नागरिक विवाद समाधान के दायरे में नहीं है.
अपने फैसले में पीठ ने जमानत के मुख्य उद्देश्य को लेकर कहा कि जमानत की शर्तें अनुचित बाधाएं लगाए बिना या नागरिक या संपत्ति मामलों में हस्तक्षेप किए बिना मुकदमे में आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित करना.
पीठ ने कहा, ‘इस मामले में मुकदमे के दौरान आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित करने के उपायों के बजाय लगाई गई शर्तें स्पष्ट रूप से नागरिक अधिकारों से वंचित करने के समान हैं. इसलिए, उच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई शर्तों को रद्द किया जाता है.’
अदालत ने एक संतुलित दृष्टिकोण को परिभाषित करते हुए कहा कि ये कानूनी प्रक्रिया की अखंडता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता दोनों का सम्मान करता है.
शीर्ष अदालत ने परवेज़ नूरदीन लोखंडवाला बनाम महाराष्ट्र राज्य (2020) में अपने पहले के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि जमानत की शर्तों को लागू करते हुए अदालतें विवेक का प्रयोग कर सकती हैं.
अदालत ने कहा कि अत्यधिक या अप्रासंगिक जमानत शर्तें व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन कर सकती हैं.
हाईकोर्ट के फैसले में अभियुक्तों के लिए एक दीवार को गिराने और विवादित संपत्ति का कब्जा देने को जमानत की शर्त के रूप में रखने की आवश्यकता की आलोचना करते हुए पीठ ने कहा कि न्यायालय के विवेक को न्याय के प्रशासन को सुविधाजनक बनाने, आरोपी की उपस्थिति को सुरक्षित करने की आवश्यकता द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिए.
अदालत ने ये भी कहा हा कि अभियुक्त की स्वतंत्रता का दुरुपयोग नहीं होनी चाहिए.
इस संबंध में महेश चंद्र बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006) के शीर्ष अदालत के फैसले का भी संदर्भ दिया गया, जिसमें कहा गया था कि जमानत की शर्तों को सिविल मामलों में नहीं डाला जाना चाहिए, क्योंंकि ऐसे मामलों पर निर्णय करना अदालत का अधिकारक्षेत्र नहीं है.
अपने फैसले में पीठ ने जमानत की कार्यवाही के दौरान विवादित संपत्ति पर नियंत्रण लेने के लिए मध्य प्रदेश में पुलिस की कार्रवाई की भी निंदा की और इस कदम को कानूनी सीमाओं का उल्लंघन और ‘पूर्ण अराजकता’ वाला करार दिया.
अदालत ने कहा कि कोई भी प्रावधान कानून प्रवर्तन को आपराधिक कार्यवाही के हिस्से के रूप में अचल संपत्ति पर नियंत्रण रखने की अनुमति नहीं देता है. किसी भी परिस्थिति में, पुलिस को अचल संपत्ति के कब्जे में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, क्योंकि ऐसी कार्रवाई को कानून के किसी भी प्रावधान द्वारा मंजूरी नहीं मिलती है.