कला वर्तमान भारत का बेचैन अंत:करण है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी : कलाविद् शनय झावेरी के 'भारत का कल्पना-संस्थान’ नाम के संचयन से स्पष्ट होता है कि हमारी समकालीन कला में रंगबोध, संयोजन, दृष्टि, शैली, सामग्री आदि की अपार और अदम्य बहुलता है.

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ऊपर लंदन की बुकशॉप. नीचे किरण नादर म्यूजियम ऑफ आर्ट. (सभी फोटो साभार: आधिकारिक वेबसाइट)

लंदन के बार्बिकन सेंटर में 1975 से 1998 के दौरान जो भारतीय कला विकसित हुई उसे एक संचयन के रूप में कलाविद् शनय झावेरी ने किरण नादर म्यूज़ियम ऑफ आर्ट के सहयोग से ‘भारत का कल्पना-संस्थान’ नाम से प्रस्तुत किया है. 30 कलाकार हैं और प्रदर्शनी का नाम विद्वान् सुदीप्त कविराज के एक निबंध से लिया गया है. अवधि आपातकाल से शुरू होती है और बाबरी मस्जिद के ढहाने, दंगों, अंतत: पहले भाजपा प्रधानमंत्री के सत्तारूढ़ होने और भारत द्वारा अणु बम परीक्षण तक की है.

प्रदर्शित कलाकृतियों में जो भारत प्रगट होता है उसमें जहां एक ओर भारतीय संवैधानिक मूल्यों और सामाजिक कायाकल्प करने में विफलता का, राज्य की धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय-अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा, कल्याण और विधेयात्मक कार्रवाई में विफलता और हिंदू दक्षिणपंथी और पूंजीवादी आर्थिक एजेंडा के उभार का आलोचनात्मक अन्वेषण है, वहीं दूसरी ओर प्रतिरोध और साहस की प्रवृत्ति और जगह भी है. इस दौरान कला, अधिक स्पष्ट रूप से, प्रतिरोध की सामाजिक और निजी विधा बनती है.

अपने विशेष आग्रह के कारण इस संचयन में जो चित्र चुने गए हैं, वे ज़्यादातर आकृतिमूलक और आख्यानपरक हैं. तब तक 1970 के दशक में उभरी नवआख्यानपरक वृत्ति अधिक व्यापक हो चुकी थी. प्रदर्शनी में चित्रों और रेखांकनों के अलावा फोटोग्राफ, संस्थापन आदि भी हैं इतनी विविधता है कि कोई सामान्यीकरण करना उचित नहीं है. फिर भी, यह स्पष्ट होता है कि हमारी समकालीन कला में रंगबोध, संयोजन, दृष्टि, शैली, सामग्री आदि की अपार और अदम्य बहुलता है.

यह बहुलता दिग्विहीन नहीं है: उसमें ‘इस दिशा से उस दिशा तक छूटने का सुख’ है. यह सजग कला है. जो हो रहा है और जो नहीं हो पा रहा है, उन दोनों के बीच के सर्जनात्मक तनाव को वह हिसाब में लेती है. अक्सर वह प्रश्नवाचक है: वह स्वयं अपने औचित्य पर भी प्रश्न उठाती लगती है. उसमें रूढ़ सामाजिक नैतिकता, सांप्रदायिक-धार्मिक रंग लेती राजनीति, बाज़ार की मनमानी आदि को लेकर चिंताएं और अतिक्रमण हैं. यह बेचैन लोगों की कला है जो देखने वालों को भी बेचैन करती है.

यह बेचैन भारत है जो राजनीतिक टिप्पणीकारों, गंभीर अध्येताओं, पर्यटकों, भारत को आध्यात्मिक नक़्शे में विजड़ित करने वाले पर्यटकों आदि की पकड़ में नहीं आता है.

कला, इस समय, भारत का बेचैन अंत:करण है, वही, जिसे उपन्यासकार जेम्स जॉयस से शब्द उधार लेकर कहें, कलाकार अपनी आत्मा की भट्टी में गढ़ रहे हैं. अपनी कुछ अपर्याप्तताओं के बावजूद यह प्रदर्शनी इस अंत:करण का साक्ष्य प्रस्तुत कर पाई है. उसकी लौ-लपट, धुआं और आग, राख, कुछ बुझा हुआ सभी इस कला में व्यक्त हैं.

पुस्तकें

नीस से लंदन पहुंचते और लंदन के सिटी एयरपोर्ट से ट्रैफ़गलर चौक के पास स्थित होटल तक जाने में दोपहर के तीन बज गए. लंदन जाने के बहुत लोगों के बहुत कारण होते हैं. हमारा तो कारण उसका पुस्तकों का स्वर्ग होना है. पहले चैरिंग क्रास रोड पर कई पुस्तकों की दुकानें थीं, कुछ प्रसिद्ध थिएटर हाउस के साथ-साथ. अब कई दुकानें ग़ायब हो गई हैं. फिर भी संसार की सबसे बड़ी पुस्तक दुकानों में गिनी जा नेवाली फ़ायल्स वहीं पर है और हर बार लगता है कि पहले से कुछ और बड़ी हो गई है.

सो हम पांच बजे अपने होटल से निकलकर वहां पहुंच गए. वहां कविता का खंड ही इतना बड़ा है कि हमारे यहांं की कई प्रसिद्ध दुकानें उससे छोटी जगह घेरती हैं.

संसार में इस समय असंतुष्ट-नाराज़-निराश आदि होने के कारण हैं. पर इसी दिन ब दिन असह्य होते जाते संसार में बहुत व्यापक पैमाने पर अनुवाद हो रहे हैं. अकेले कविता खंड में दूसरी भाषाओं से अंग्रेज़ी में अनुवाद की इतनी पुस्तकें हैं कि कई रैक सिर्फ़ उनसे भर जाएं. फ़ायल्स में पुस्तकें लेखक-नामों के अकारादि क्रम से लगी होती हैं, जहां तक निजी संग्रहों का संबंध है. कविता के व्यापक संचयन अलग क़तारों में लगे होते हैं. यह प्रीतिकर आश्चर्य होता है कि आज संसार में इतनी कविता लिखी जा रही है, इतनी पढ़ी-प्रकाशित की जा रही है और इतनी अनूदित हो रही है.

कविता-पुस्तकों के रूपाकारों में भी कई दिलचस्प और चित्ताकर्षक प्रयोग होते रहते हैं. लगता है जैसे संसार अपना लगातार कई भाषाओं में अनुवाद कर रहा है; जैसे वाद नहीं अनुवाद अब काव्यसुख का मूल कारक है. अनुवाद में पढ़ने पर कविता, कितनी ही विचित्र, अनहोनी, अप्रत्याशित लगे उसमें रसी-बसी मानवीय उपस्थिति और उसकी गरमाहट या आर्द्रता अलक्षित नहीं जा सकती. वही है जो हमें बरबस लपेट लेती है. जैसे कविता हमारे हर हालत में मनुष्य बने रहने का सजल सत्यापन हो.

अनुवाद कविता का आयात या निर्यात नहीं है: वह आपको जहां आप हैं वहां, और जहां आप नहीं हैं वहां दोनों जगह पर साथ उपस्थित होने का सहज अवसर देती है. एक तरह से अपने आप में रहना और दूसरा भी होते जाना. देश, काल बदलते हैं और फिर भी वही रहते हैं; आप समय की बंदिश से मुक्त हो जाते हैं. एक रोमानियन खिड़की, एक जर्मन सड़क, एक फ्रेंच अवलोकन, एक नीग्रो चीख़, एक ग्रीक उक्ति आदि सब आपके अपने घर में बैठे-बैठे आपके होने का हिस्सा हो जाते हैं.

अगले दिन भारी भागदौड़ थी. दो-दो प्रदर्शनियां देखना थीं. पर इतना समय निकाल ही लिया कि अपनी लंदन में एक और प्रिय दुकान ‘द लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स बुकशॉप’ जा पाए जो ब्रिटिश म्यूज़ियम के पास है. पहले दिन होटल वापस आते हुए वाटरस्टोन बुकशॉप में भी कुछ पुस्तकें मिल गई थीं. तो तीन दुकानों से लगभग पचास पुस्तकें ले लीं जिनका वजन करीब अठारह किलो हो गया तो उन्हें रखने और साथ लाने के लिए एक नया सूटकेस भी इस बीच खरीद लिया.

कवि और प्रेमी

लंदन संसार की उन राजधानियों में से एक है जहां कला-गतिविधियों का बारहमासा होता है. ऐसा कोई महीना नहीं जिसमें नाटक, कला-प्रदर्शनियां, साहित्यिक आयोजन कम होते हों. ये गतिविधियां सैलानियों के लिए बड़ा आकर्षण होती हैं और उनसे ख़ासी आय होती है जो उनके वित्तपोषण में सहायक होती हैं.

बहरहाल, इस बार ट्रैफ़गलार चौक पर ही नेशनल गैलरी है और वह अपनी स्थापना की दो शतियां पूरी कर चुकी है. जो आयोजन हो रहे हैं उनमें प्रमुख है विसेंट वान गॉग की एक बड़ी प्रदर्शनी जो ‘कवि और प्रेमी’ शीर्षक से वहां चल रही है. दर्शकों की लंबी क़तारें दोनों ओर उसके गेट के लगी हुई थीं. सौभाग्य से हमारी एक कलाविद् मित्र के पास एक विशेष क़िस्म का पास और आत्मविश्वास था तो उन्होंने हमें फुर्ती से गैलरी में दाखिल कर दिया.

इस अनूठे चित्रकार की एकल प्रदर्शनी शायद पहली बार ही देखी जबकि उस पर एकाग्र एक पूरा बड़ा संग्रहालय एम्सटर्डम में देख चुका हूं. यह जानना दिलचस्प लगा कि नेशनल गैलरी के वान गॉग के दो चित्र ख़रीदने के भी इसी वर्ष सौ साल पूरे हो रहे हैं.

प्रदर्शनी वान गॉग के अपने जीवन के अंतिम दो वर्षों में बनाए गए चित्रों पर एकाग्र है. उसमें एक चित्र का शीर्षक ‘कवि’ और एक दूसरे चित्र का शीर्षक ‘प्रेमी’ है. कुछ और व्यक्तिचित्र भी हैं पर ज़्यादातर चित्र प्रकृति से संबंधित हैं. पार्क, फूल-पौधे, वृक्ष, बगीचा, आंगन, पुल, खेत, अस्पताल, सूरजमुखी फूल, आकाश, रात आदि से संबंधित चित्र प्रेम और कविता का, जीवन से आसक्ति और काव्यात्मकता से भरपूर एक उपवन सा बनाते हैं. उसमें जीवन बेहद रंगारंग, ऊर्जस्वित है, वही जीवन जो स्वयं चित्रकार, आत्मक्रूर होकर समाप्त करने जा रहा है, जल्दी ही.

शायद इसीलिए इन चित्रों में कोई अलविदा का भाव नहीं है- जीवन की उच्छल लय उन्हें घेरे है. वान गॉग ने अपने भाई थियो को इसी दौरान लिखा था कि ‘भविष्य का चित्रकार एक रंगशील होगा जैसा पहले कभी न हुआ हो’. हम जानते हैं और यह प्रदर्शनी इस धारणा को बहुत सशक्त ढंग से पुष्ट करती है यह अभूतपूर्व रंगशीलता स्वयं वान गॉग में ही हुई.

18 अगस्त 1988 को वान गॉग ने यह भी लिखा कि अब मैं एक स्वेच्छाचारी रंगशील होने जा रहा हूं… सिर के पीछे नीचे कमरे की धूसर दीवार चित्रित करने के बजाय मैं अनंत चित्रित करूंगा. हमारी अनंत की कल्पना अक्सर रिक्ति, शून्य, अनुपस्थिति से बनती है- वान गॉग के यहांं अनंत भरा-पूरा है, रंगों का एक लगभग असह्य उपवन है. एक बड़े कलाकार के यहांं, जैसे कि इस प्रदर्शनी में, बेजान चीज़ें जैसे खिड़की, दरवाज़ा या कुर्सी सजीव हो उठते हैं, अपने पारंपरिक रंग छोड़कर वे नए रंगों में रंग जाते हैं.

वान गॉग की कला रंगों से अर्जित अनंत है जिसे अब हम नश्वरता और समापन की पदावली से मुक्त होकर महसूस कर सकते हैं. सचाई को रंगरंजन के अतिरेक से एक तरह का अनंत मिलता है, कला-अनंत. वान गॉग के यहांं इसी तरह कला कालजयी है. जीवन से मुक्त होकर नहीं, इतने सारे जीवन का अपने में समेटते हुए, उसे उसकी भौतिकता और पार्थिवता से मुक्त कर, कला में सदा जीवित रहने का वरदान देते हुए.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)