नई दिल्ली: बिहार से सटे चतरा जिला को कभी झारखंड के सबसे अधिक नक्सल प्रभावित जिलों में गिना जाता था. अब क्षेत्र में नक्सली तो नहीं रहे लेकिन ग़ुरबत ज्यों की त्यों बनी हुई है.
सरकारी आंकड़े गवाही देते हैं कि स्वास्थ्य और पोषण के मामले में यह जिला देश में सबसे बदतर है. शिक्षा का हाल भी कुछ ऐसा ही है. नक्सलियों को सरकारें विकास विरोधी कहती हैं, लेकिन नक्सलियों की अनुपस्थिति के बावजूद इस जिले का विकास क्यों नहीं हो पाया?
दूसरा, आमतौर पर माना जाता है कि आम जन की निर्धनता और सरकारी उदासीनता नक्सलियों के प्रसार के लिए उर्वरक का काम करती हैं. चतरा में इन दोनों परिस्थितियों की प्रधानता मिलती है, फिर नक्सल आंदोलन यहां क्यों कमजोर पड़ गया?
13 नवंबर को झारखंड विधानसभा चुनाव के पहले चरण में जिले की दोनों विधानसभा सीटों (चतरा और सिमरिया) पर मतदान है. आइए चुनाव के बहाने चतरा जिला की पड़ताल करते हैं.
चतरा से कौन–कौन मैदान में?
चतरा अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट है. साल 2019 के विधानसभा चुनाव में चतरा से राजद के सत्यानंद भोक्ता को जीत मिली थी. उन्होंने भाजपा के जनार्दन पासवान को 24,000 मतों से हराया था. भोक्ता को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सरकार में श्रम, रोजगार, प्रशिक्षण और कौशल विकास तथा उद्योग मंत्री बनाया गया था.
द वायर हिंदी से बातचीत में स्थानीय पत्रकार धर्मेंद्र ने बताया कि ‘रोजगार मंत्री बनने के बाद भी सत्यानंद भोक्ता ने इस गरीब इलाके की बेरोजगारी के बारे में नहीं सोचा. 50 हज़ार लोगों को रोजगार देने का वादा किया था, लेकिन पूरा नहीं किया. हां, वह इलाके में आते रहे, लोगों से मिलते–जुलते रहे. लेकिन काम के मामले में लोग उनसे नाराज़ लग रह हैं.’
इस बार भी इंडिया गठबंधन की तरफ़ से यह सीट राजद के हिस्से ही गई है और टिकट सत्यानंद भोक्ता की 25 वर्षीय बहू रश्मि प्रकाश को मिला है.
सत्यानंद भोक्ता को टिकट न मिलने का कारण उनकी जाति है, दरअसल 2022 में केंद्र सरकार ने भोक्ता की जाति को अनुसूचित जनजाति में डाल दिया था और सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है.
रश्मि प्रकाश का मुकाबला राजद के पूर्व नेता जनार्दन पासवान से है. भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने यह सीट लोजपा (लोक जनशक्ति पार्टी) को दिया है. कुछ महीने पहले ही जनार्दन पासवान भाजपा से लोजपा में शामिल हुए हैं.
झारखंड बनने के बाद इस सीट पर चार बार विधानसभा के चुनाव हो चुके हैं, और तीन चुनाव (2000, 2005, 2009) में पासवान राजद से टिकट लेकर मैदान में उतरे हैं. 2009 में राजद से विधायक भी रहे हैं, लेकिन फिर वे भाजपा के सदस्य बन गये.
मैदान में अन्य उम्मीदवार भी हैं, लेकिन मुख्य मुकाबला इन्हीं दो के बीच माना जा रहा है. हालांकि, चतरा के अनिल कहते हैं कि ‘दोनों गठबंधन ने ऐसा उम्मीदवार उतार दिया है कि लोग तय नहीं कर पा रहे हैं. दोनों उम्मीदवार ख़राब हैं.’
चतरा का चुनाव: पटना बनाम दिल्ली
इंडिया गठबंधन और एनडीए दोनों से नाराज़गी व्यक्त करते हुए कुंदा गांव के निवासी अनुज कहते हैं, ‘दोनों गठबंधनों ने चतरा के लिए कोई वादा नहीं किया है. भोक्ता (सत्यानंद) जी सभी यादवों से वोट की अपील कर रहे हैं, उनका कहना है कि आप मुझे नहीं, सीधे लालू जी को वोट कर रहे हैं. जनार्दन पासवान का कहना है कि आप हैलीकॉप्टर (लोजपा का चुनाव चिह्न) को नहीं, सीधे कमल को वोट कर रहे हैं. आपका वोट सीधे मोदी जी को जाएगा. यानी हमारा एक उम्मीदवार पटना के नाम पर वोट मांग रहा है, दूसरा दिल्ली के नाम पर. स्थानीय मुद्दा तो रह ही नहीं गया है चतरा के चुनाव में.’
चतरा विधानसभा क्षेत्र में 4.27 लाख मतदाता हैं, जिनमें से 2.17 पुरुष और 2.10 महिलाएं हैं. चतरा में पीने के पानी, बिजली आपूर्ति की समस्या है. इसके अलावा चतरा खराब सड़कों की समस्या, शैक्षणिक संस्थानों की कमी और अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं जैसी बुनियादी समस्याओं से भी जूझ रहा है.
‘चतारा के बहुत से इलाकों में आज भी शुद्ध पेय जल नहीं है. गर्मी में तो लोगों को बहुत परेशानी होती है.’ एक स्थानीय पत्रकार बताते हैं.
अनुज ने स्कूल में शिक्षा की ख़राब गुणवत्ता को गंभीरता से रेखांकित किया, ‘गांव के बच्चे स्कूल में सिर्फ मध्यान्ह भोजन के लिये जाते हैं, शिक्षा के लिये नहीं. अगर शिक्षा का स्तर सुधर जाएं, तो बहुत कुछ बदल सकता है.’
धर्मेंद्र बताते हैं, ‘हमारे क्षेत्र में उद्योग नहीं है तो रोजगार भी नहीं हैं. क्षेत्र के अधिकांश इलाके पठारी हैं, तो खेती भी बड़े पैमाने पर नहीं होती. कई इलाकों में तो सिर्फ तिलहन, दलहन ही होता है.’
क्षेत्र का अधिकांश इलाका जंगलों से घिरा है. समतल ज़मीन है लेकिन उसका अधिकांश भाग लाल लैटेराइट अम्लीय मिट्टी से बना है. ज़मीन की ऊपरी परत मोरम और पत्थर से ढकी हुई है. ऐसे में सिंचाई मुश्किल होती है.
क्षेत्र के कुछ और लोगों से बातचीत में पता चला कि चतरा के लोग रोजी–रोटी कमाने के लिए बड़ी संख्या में पलायन करते हैं. वे काम की तलाश में दिल्ली, पंजाब, राजस्थान और गुजरात, जैसे राज्यों में जाते हैं.
चतरा और नक्सल आंदोलन
इलाके से नक्सलियों के खत्म होने कारण बताते हुए लोटवा गांव के रामचंद्र यादव ने कहा, ‘पिछली सरकार (2014 की रघुबर दास सरकार) में नक्सली कम हुए. इस सरकार (हेमंत सोरेन सरकार) ने भी काम जारी रखा. लेकिन ज़्यादातर काम पहले ही भाजपा की सरकार कर चुक थी.’
स्थानीय पत्रकार इसमें जोड़ते हैं कि अब गांव का गरीब परिवार भी अपने बच्चे को पढ़ाना चाहता है. यह बड़ा बदलाव है.
अनुज कहते हैं, ‘पढ़–लिख जाने के बाद लोग नक्सल में जाने से बचते हैं. हम लोगों को ही ले लिजिए. हमारे पिता अनपढ़ थे. उन्हें मीटिंग में या कहीं कोई कांड करने के लिए बुलाया जाता था, तो चले जाते थे.’
वे आगे कहते हैं, ‘अब तो हालत बहुत ठीक है. नक्सली के नाम पर अब गुंडे हैं, जो सिर्फ वसूली करते हैं. कोई आंदोलन नहीं बच गया है. जैसे शहर में चोरों और डकैतों का गिरोह होता है, बस वैसा ही गिरोह रह गया है. कहीं सरकारी काम होता है तो वसूली वगैरा करते हैं सब. शिक्षा का स्तर सुधर जाए तो ये भी खत्म हो जाएंगे.’
झारखंड में क्यों बिखर गया नक्सल आंदोलन?
सीपीआई (माओवादी) का आंदोलन झारखंड में दो दशक पहले बिखरने लगा था. वैचारिक मतभेद की वजह से कई नक्सलियों ने पार्टी छोड़ी और अपने–अपने अलग संगठन बना लिए. झारखंड के चतरा और लातेहार जिले में ऐसे ही एक संगठन टीएसपीसी (तृतीय सम्मेलन प्रस्तुति कमेटी) ने कभी पकड़ बनाई थी, लेकिन जो बहुत जल्द बिखर गया क्योंकि वह क्रांति के लक्ष्य से बहुत दूर था.
इसी तरह झारखंड मुक्ति मोर्चा के पूर्व सासंद कामेश्वर बैठा जैसे पूर्व नक्सली जब मुख्यधारा में जुड़ने लगे, विभिन्न दलों की ओर से चुनाव लड़ने और जीतने लगे, अन्य नेताओं की तरह दलबदल करने लगे, लोगों का नक्सलवाद से मोहभंग होने लगा. अपने समय के वरिष्ठ नक्सल कमांडर कामेश्वर ने 2009 का लोकसभा चुनाव झामुमो की टिकिट पर जीता था, उसके बाद वे तृणमूल कांग्रेस से लेकर भाजपा सदस्य रह चुके हैं, और इस बरस का लोकसभा चुनाव बसपा की टिकट पर लड़ा था. जिस क्रांति के सपने के चलते कभी इन नक्सलियों ने जनसमर्थन जुटाया था, वह अब मिट गया है.
‘पंचायत चुनाव में गांव के लोग देख रहे हैं कि कैसे पूर्व नक्सली चुनाव लड़ रहे हैं, जनप्रतिनिधि बन रहे हैं, मुख्यधारा में वापस लौट रहे हैं,’ चतरा के एक निवासी कहते हैं.
ऐसी स्थिति में झारखंड में नक्सल आंदोलन को बिखरना ही था.