13 नवंबर मुक्तिबोध का जन्मदिन हुआ करता है. इत्तेफ़ाक़ ही है कि उनके जन्मदिन के एक दिन बाद ही उनके प्रिय राजनेता जवाहरलाल नेहरू का जन्मदिन पड़ता है. दोनों को एक प्रकार से भारत के अंतिम रोमांटिक कहा जा सकता है. इस अर्थ में रोमांटिक कि दोनों के लिए ही व्यक्ति की कल्पना की स्वाधीनता का प्रश्न सबसे महत्त्वपूर्ण है. व्यक्ति की स्वाधीनता का अर्थ यह है कि वह अपने आत्म के उद्घाटन या उसकी खोज में स्वतंत्र महसूस करे.
यह स्वतंत्रता लेकिन उसे दी हुई अवस्था नहीं है. और वह कभी आख़िरी तौर पर हासिल होने वाली स्थिति भी नहीं. मुक्तिबोध की कविता ‘एक आत्म वक्तव्य’ की इन पंक्तियों में इसका संकेत है:
‘…और, जब
मेरा सिर दुखने लगता है,
धुंधले-धुंधले अकेले में, आलोचनाशील
अपने में से उठे धुएं की ही चक्करदार
सीढ़ियों पर चढ़ने लगता हूं.’
यहां धुआं कहीं बाहर से नहीं, ख़ुद अपने भीतर से उठ रहा है. और यह अपना ‘आलोचनाशील’ अपना है. उसकी सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मिलते हैं ‘आलोचन हत मेरे पुराने व्यक्तित्व,/ भूतपूर्व, भुगते हुए, अनगिनत ‘मैं’. यह आलोचना भी ख़ुद अपने भीतर से ही पैदा हो रही है. अपनी आलोचना से ही अपने पुराने व्यक्तित्व हत होते हैं. और वे व्यक्तित्व अनगिनत हैं.
इन व्यक्तित्वों के शवों या अर्ध-शवों पर ‘निज सर्व-स्पृश पैर’ रखकर मेरा वर्तमान चलता है जो ‘भावी-कर-बद्ध’ है. दोनों विशेषणों पर हम ध्यान दें: पैर ‘सर्व-स्पृश’ हैं और वर्तमान ‘भावी कर बद्ध’ है. इस चलने या चढ़ने में लेकिन फिर फिर नए नए आलोचक नेत्र मिलते हैं. वे आलोचक शत्रु नहीं मित्र हैं. उनका काम है:
‘खूब काट-छांट और गहरी छील-छाल
रंदों और बसूलों से मेरी देखभाल,
मेरा अभिनव संशोधन अविरत
क्रमागत.’
मार्क्सवादी मुक्तिबोध के लिए यह संशोधन हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है, प्रिय है. ज़ाहिर है, यह संशोधन सबके बस की बात नहीं और जो मैं इससे गुजरता है, वह मामूली मैं नहीं. उसके सिर में ‘तड़फड़ाता रहा ब्रह्मांड,/लड़खड़ाती दुनिया का भूरा मानचित्र’ है. इस ब्रह्मांडीय चेतना वाला मन किसी एक बिंदु पर स्थिर हो ही कैसे सकता है? पूरेपन का भ्रम उसे कभी होता नहीं. लेकिन इस दुनिया में अधबनेपन को बहुत इज्जत की निगाह से देखा नहीं जाता.
नेहरू से एक शिकायत उनके आलोचकों की यह है कि वे जब एक प्रस्ताव करते थे, फ़ौरन ही उसके प्रति अपना संदेह भी व्यक्त कर डालते थे. ’इसे उनके भीतर दृढ़ता की कमी माना जाता है. मुक्तिबोध को भी संदेह है कि उनके अधबनेपन को समर्थों के द्वारा तिरस्कृत कर दिया जाएगा. जो समर्थ है वे ‘अर्थहीन समर्थ’ हैं. प्रश्न है कि अर्थवान होना क्या है? जीवन में अर्थ कैसे प्राप्त किया जाता है?
पूरे बने हुओं के ठाठदार अक्स देखकर अकेलेपन का एहसास होता है:
‘मुझे गहरी उचाट,
लगता है वे मेरे राष्ट्र के नहीं हैं.’
यह जो भटकता हुआ अधबना ‘मैं’ है , वह ‘अटाले में फेंका गया एक प्रेमपत्र’ है. ख़ुद को निरंतर बनाने की यह यात्रा विश्व यात्रा है लेकिन वह एक निवेदन भी है. उसे कौन पढ़ सकता है और कहां पढ़ा जा सकता है?
‘सच्चा है जहां असंतोष
वहां मेरा परिपोष.
वहां दीवालों पर टंगते हैं भिन्न मानचित्र,
चिनगियां बरसाते
लगातार विचारों के सत्र,
मेरे पात्र-चरित्रों की
आंखों की अंगारी ज्योति
ललककर पढ़ती है मेरा प्रेम पत्र!’
मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में ‘ यह पत्र किसी समानधर्मा के पास पहुंचता है:
‘किंतु मैं बहुत दूर मीलों के पार वहां
गिरता हूं चुपचाप पत्र के रूप में
किसी एक जेब में
वह जेब …
किसी एक फटे हुए मन की.’
मन किनका फटा हुआ है. कौन हैं जो बेगानगी महसूस करते हैं और उस वजह से अकेले हैं?
अधबनेपन का एहसास नए रिश्तों की तलाश में डाल देता है. किनसे? कैसे? सिर्फ़ मैं ही तो नहीं खोज रहा किसी अपने को, और भी खोज रहे हैं. एक दूसरी कविता ‘मेरे लोग’ में,
‘उपेक्षित काल-पीड़ित-सत्य के समुदाय
लेकर साथ
मेरे लोग
असंख्य स्त्री-पुरुष-बालक भटकते हैं
किसी की खोज है उनको.’
मैं की खोज साथ-साथ परस्परता की तलाश भी है. दूर से किसी की पुकार सुनाई देती है. उस पुकार की दिशा में बढ़ने पर एक पुस्तकालय मिलता है. किताब खोलने पर
‘पृष्ठों के हृदय में से
उभरते कांपते हैं वायलिन के स्वर
सहज गुंजारती झनकार
गहरे स्नेह-सी.’
इस सांद्र ध्वनि में अपना मन खुलता है, ख़ुद की ग्रंथियां खुलती हैं. लेकिन जिन पृष्ठों से वायलिन की झनकार निकलती है, वहीं से
‘पृष्ठों के जिगर में से
भयानक डांट
कोई भव्य विश्वात्मक तड़ित आघात
सहसा बोध होता है
उभरता क्रोध निःस्वात्मक
सहज तनकर गरजता
ज़िंदगी की कोख में जनमा
नया इस्पात
दिल के खून में रंगकर !!
तुम्हारे स्वर कहां हैं
ओ!!’
असल संघर्ष इन अपने स्वरों की खोज का है. अपने प्रामाणिक स्वर. वह तभी हो सकता है जब हम अपनी जड़ता को पहचान पाएं और ख़ुद को उससे मुक्त करने का यत्न करें. ‘एक टीले और डाकू की कहानी’ में ‘टीला जगधात्री वर्षा’ का आह्वान करता है जो चट्टान को चूर-चूर कर डाले. कण कण अपने भीतरी पुर्ज़ों को तोड़कर सूरज पर चले जाएं:
‘अनगिनत प्रकाश-वर्ष-गतियों की
यात्राएं प्राप्त हों
नए नए अनुभव उपलब्ध हों
नव-नवीन द्रव्यों को जन्म दें…’
और
‘हृदय-कोष-गह्वर में
ज्ञान-रुधिर भर जाए!
सिहर उठे संशोधन-वेदना
पुनः-पुनः
पुनः -पुनः संगठन वेदनार्त
अनवरत तेजस्वी अनवस्था,
विकसित होता हुआ गतिशील सामंजस्य,
अनवरत असंतुलन,
व विकसित होती हुई
गतिशील संगतियां
मुझको दो…’
मुक्तिबोध में छटपटाहट है, तड़प है, अस्थिरता है. ख़ुद को लगातार बदलने की प्रस्तुति. उनसे मिलने की आकांक्षा जो अपनी तरह नहीं हैं:
‘ जो मुझसे एकदम भिन्न हैं
वे मेरे मित्र हैं…’
यह जो टीला है, जिसे तोड़ना है, वह मैं ख़ुद हूं:
‘वह टीला मैं स्वयं
मैं ही हूं -खड़ा हूं मैं शिलामूर्ति
इस पथरीले चेहरे में शिलारूप अनगिनत चेहरे हैं
झांकते.’
रोमांटिकों पर अपने एक व्याख्यान में इसाया बर्लिन ह्यूम को याद करते हैं जो लिखते हैं कि जब मैं अपने भीतर झांकता हूं तो मुझे ढेर सारे संवेदन, स्मृतियों के टुकड़े, आशा और भय -हर तरह की छोटी मनोवैज्ञानिक इकाइयां दिखती हैं लेकिन कोई एक ऐसी इकाई नहीं मिलती जिसे मैं ‘स्व’ या आत्म कह सकूं. यानी यह स्व कोई एक चीज़ नहीं, वह अनेक अंतर्ग्रथित अनुभवों का नाम है जिनसे मानव-व्यक्तित्व और मानव-इतिहास निर्मित होता है.
मुक्तिबोध इन असंख्य अनुभवों को हासिल करने की जद्दोजहद को ही अपने ख़ुद का सृजन मानते हैं. उनके प्रिय नेहरू भी ख़ुद के भीतर के तजुर्बों और आवाज़ों को सुनने की कोशिश करते हैं. ख़ुद के भीतर चल रही अंजुमन की बहस को. ताज्जुब नहीं कि एक समय तक मुक्तिबोध की इस अस्थिरता, बेचैनी के कारण माना गया कि उनके पास सत्य नहीं है. वैसे ही जैसे नेहरू को आज भी एक असफल राजनेता माना जाता है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. )